दिवाली का त्यौहार आने वाला है। ऐसे में सभी जश्न में सराबोर हो जाते हैं। लोग अपने घरों को तो दियों से सजाते ही हैं। लेकिन बच्चों में पटाखा चलाने को लेकर गजब की उत्सुकता देखी जाती है। इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर पटाखा चलाने की परंपरा कहां से शुरू हुई? इसका इतिहास क्या है? आज हम आपको इसी के बारे में बता रहे हैं।
इतिहास के पन्नों में
इतिहास में अगर झांकने की कोशिश करें तो पटाखों की शुरुआत भाई 2200 साल पहले चीन में हुई थी। बताया जाता है कि शुरुआत में बांस की छड़ो को पटाखे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था जिन्हें आग में डालने के बाद गांठ के फटने की आवाज निकलती थी। इसके बाद से चीन में एक परंपरा शुरू हो गई जिसमें आग में बांस डालकर फटने की आवाज को शुभ माना जाता था।
हालांकि बाद में चीनी सैनिकों ने इससे जुड़ा एक नया अविष्कार कर लिया। चीन के कुछ इलाकों में पहाड़ से पीले रंग की मिट्टी को लेकर बगीचे में डाली गई जहां पहले से ही कोयले के टुकड़े पड़े हुए थे। धूप निकलने के बाद वहां जोर का धमाका हुआ और आसपास के पेड़ राख हो गए। उसके बाद से इन सैनिकों ने बांस की नली में उन बारूदों को भरना शुरू किया जिसके बाद उनसे आवाज होने लगी।
दुनिया में कैसे फैला
चीन से धीरे-धीरे यूरोपीय देशों में पहुंच गया। बारूद के फार्मूले का आविष्कार रोजर बेकन नाम के एक यूरोपीय रसायनविद ने किया था। 13वीं और 15वीं शताब्दी में चीन से निकलकर पटाखे अब यूरोप और अरब के साथ-साथ दुनिया में फैल रहे थे। यूरोप के शासकों ने जश्न के समय प्रजा को खुश करने के लिए खूब आतिशबाजी कराने की शुरूआत की। इसके बाद पटाखा धीरे-धीरे अमेरिका भी पहुंच गया जहां स्वतंत्रता से पहले खूब आतिशबाजी हुई थी।
भारत में इतिहास
भारत में पटाखों का इतिहास भी काफी पुराना है। 300 ईसा पूर्व में रचे गए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी पटाखों का भी जिक्र है। लेकिन पटाखों को शुरू में बारूद की ही श्रेणी में रखा गया था। 1526 में मुगल सेना के आने के साथ ही देश में पटाखों का खूब इस्तेमाल हुआ जिसका डर भारतीय सैनिकों में भी देखा गया। माना जाता है कि अगर उस वक्त पटाखों की परंपरा रही होती तो शायद सिपाही इससे इतना नहीं डरते। हालांकि एक इतिहासकार ने यह भी दावा किया है कि 1443 में रामनवमी त्योहार के दिन इस बाजी हुई थी। इसके अलावा एक पुर्तगाली यात्री के हवाले से यह भी लिखा गया है कि 1518 में गुजरात के एक ब्राह्मण परिवार के शादी में जोरदार तरीके से आतिशबाजी की गई थी। हालांकि उस समय आतिशबाजी की परंपरा सामान्य तौर पर नहीं थी। लेकिन 17वीं और 18वीं शताब्दी में दिल्ली और आगरा में आतिशबाजी की परंपरा बढ़ी। उस समय आतिशबाजी राजा महाराजाओं की शान की पहचान होने लगी। त्योहारों, शादियों और जश्न के समय खूब आतिशबाजी होती थी।
हालांकि आतिशबाजी सबसे ज्यादा शादियों में होती थी। इसके अलावा एक कवि ने अपनी कविता में इस बात का भी जिक्र किया है कि रुक्मणी और कृष्ण के विवाह के समय भी आतिशबाजी हुई थी। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि जब प्रभु राम अयोध्या लौटे थे तब भी आतिशबाजी की गई थी। दिवाली पर आतिशबाजी की परंपरा कोटा से शुरू हुई थी जहां चार दिनों तक दिवाली मनाई जाती है। यहां के राजा ने 4 दिन तक आतिशबाजी करवाई थी। इन पटाखों को लंका की श्रेणी में रखा गया था। माना जाता है कि जैसे हनुमान जी ने पूरे लंका को आग के हवाले कर दिया वैसे ही पटाखों को देखा जाता है। 20वी शताब्दी में भारत में पटाखे का चलन बढ़ा और अभी त्यौहार और जश्न के माहौल में इसका खूब इस्तेमाल होने लगा।