बड़ी देर से मोबाइल कान से सटाए प्रधानी के उम्मीदवार रामभरोसे किसी से बात कर रहे थे। कह रहे थे– चाहे कुछ भी हो जाए चुनाव हमें ही जीतना है। हम अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे, लेकिन जीतकर रहेंगे। लोगों में आशा और विश्वास की नई किरण बनकर उभरेंगे। वर्तमान प्रधान को धूल न चटवा दिया तो मेरा नाम भी रामभरोसे नहीं। इतना कहते हुए मोबाइल काट दिया। बाहर कार चालू खड़ी है। ईंधन धुआँ होता जा रहा है। रामभरोसे जी कार चढ़ने ही वाले थे कि तभी पत्नी टपक पड़ी और बोली– अजी सुनते हो, दोपहर में भोजन करने तो आयेंगे न? कूढ़ते हुए रामभरोसे जी ने कहा– तुम्हें दोपहर की लगी है। मुझे जीवन भर की लगी है। एक बार जो हम प्रधान बन जायेंगे तब देखना इतना कमायेंगे, इतना कमायेंगे कि हमारी आने वाली सात पुश्तें बैठकर खायेंगी। इतना कहते हुए वे चुनावी रैली की ओर चल पड़े।
रामभरोसे ने पानी की तरह पैसा बहाकर भाड़े पर बुलाए लोगों में अपने वोटों की गिनती करने लगे। रैली में जोरदार भाषण दिया। ऐसे-ऐसे वादे कर डाले कि न भूतो न भविष्य। चुनाव तो गाँव स्तर का था लेकिन वादे अमेरिकी चुनाव से कम नहीं थे। रामभरोसे ने लोगों को खेती के नाम पर बिना खेती के खेत उगाने, बिना अस्पताल के छू मंतर से ठीक कर देने, पीने के लिए पानी की जगह घर-घर मधुकूप लगाने तथा भ्रमण के नाम पर सभी ग्रामवासियों को चंद्रमंडल की सैर कराने के एक से बढ़कर एक वादे कर दिए। चुनाव से कुछ दिन पहले उन्होंने मतदाताओं में खाने-पीने, टीवी, फ्रिज, कूकर, वाशिंग मशीन, मिक्सी आदि बंटवा दिए। अब उन्हें पूरा यकीन हो चला था कि भगवान भी उनके सामने खड़े हो जायेंगे तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुल हो जाएगी।
आखिरकार वह दिन आ ही गया। लोगों ने बढ़-चढ़कर वोट का प्रतिशत ऐसे बढ़ाया जैसे उनको इसके सिवा कुछ आता ही नहीं। भारी वोटिंग को देख रामभरोसे की बाँछे खिल उठीं। मतगणना शुरू हुई। रामभरोसे मतगणना का परिणाम देख कोमा में चले गए। उनके चुनाव चिह्न अंगूठे पर एकमात्र एक वोट मिला। वह वोट किसी और का नहीं खुद का था। अंगूठा दिखाने के चक्कर में लोगों ने तो उन्हें जिता दिया। लेकिन अंगूठा दबाने के चक्कर में उन्हें हरा दिया। प्रधानी के चक्कर में रामभरोसे ने अपना सब कुछ गंवा दिया। पाप बेचारे प्रधानी के नाम पर खुद गौण बन गए।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'