कोरोना संकट के इस दौर में नायक भी मिले और खलनायक भी

By विजय कुमार | Jun 16, 2020

कोरोना ने सारी दुनिया को तहस-नहस कर डाला है। भारत में इस दौरान कई लोग नायक बने हैं तो कई खलनायक। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महानायक बन कर उभरे हैं। पूरा विश्व उनके निर्णयों को सराह रहा है। स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन की भूमिका भी अच्छी रही। स्वयं डॉक्टर होने से उन्हें कोरोना को समझने और रोकथाम के जरूरी उपाय करने में सहायता मिली। कई राज्य भी समुचित उपायों से बीमारी रोकने में सफल हुए हैं।


दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल को देखें। राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री होने से उन पर जिम्मेदारी कुछ अधिक ही है; पर उनके व्यवहार से साफ हो गया कि वे नेता नहीं, नौटंकीबाज हैं। वे एन.जी.ओ तो चला सकते हैं; पर सरकार नहीं। उनकी निगाह दिल्ली में रह रहे देशवासियों पर नहीं, केवल अपने वोटरों पर है। 24 मार्च को पहली तालाबंदी होते ही हर राज्य अपने यहां रह रहे मजदूरों को संभालने लगा। उनके वेतन, खानपान, निवास आदि की चिंता की गयी; पर इनसे पिंड छुड़ाने के लिए उन्होंने 28 मार्च को बसें लगाकर उन्हें आनंद विहार बस अड्डे और उससे भी आगे उ.प्र. की सीमा में फेंक दिया। वे भूल गये कि दिल्ली में भवन और सड़क यही बनाते हैं। सब्जी और दूध यही बेचते हैं। उद्योग इनके पसीने से ही चलते हैं। इनके बिना दिल्ली चल नहीं सकती।

 

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इस पर उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तुरंत 5,000 बसें भेजकर राज्य के मजदूरों को उनके जिले तक पहुंचाया। इससे हजारों बिहारी मजदूर भी बिहार की सीमा तक पहुंच गये। योगी के कारण अन्य राज्यों में फंसे प्रदेश के हजारों छात्र और श्रमिक अपने घर पहुंच सके। इसके बाद अन्य मुख्यमंत्रियों पर दबाव पड़ा। अतः वे भी अपने छात्रों और श्रमिकों को बुलाने को मजबूर हुए। मुंबई में कई बार ऐसी भीड़ रेलवे स्टेशन पर पहुंची। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की अनुभवहीनता तथा गठबंधन दलों में सामंजस्य का अभाव खूब दिखाई दिया।


केजरीवाल की क्षुद्र मानसिकता तब फिर दिखी, जब तालाबंदी में ढील के बाद कोरोना मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। उन्होंने यह कहकर जनता को भी बांट दिया कि दिल्ली के अस्पतालों में बस दिल्ली वालों का ही इलाज होगा। ये तो अच्छा हुआ कि उप राज्यपाल ने इसे ठुकरा दिया, अन्यथा पूरे देश में क्षेत्रवाद की आग लग जाती। फिर राज्यों में ही क्यों, जिले और नगरों में भी बीमार बंट जाते। अब केजरीवाल ये कहकर अपनी विफलता मोदी के मत्थे मढ़ रहे हैं कि हमने तो उनके कहने पर तालाबंदी की और खोली; पर वे यह भूलते हैं कि तालाबंदी का उद्देश्य बीमारी का फैलाव रोकने के साथ ही बीमारों के इलाज की व्यवस्था बनाना भी था; पर उन्होंने इधर ध्यान नहीं दिया। वे सोचते थे कि यहां इतने अस्पताल तो हैं ही; फिर हमें कुछ करने की क्या जरूरत है ? अब बीमारों की संख्या लाखों तक पहुंचने पर उनके हाथ-पैर फूल गये हैं।


ऐसी ही मानसिकता ममता बनर्जी की भी रही। इसलिए पहले उन्होंने तालाबंदी की हंसी उड़ाई और उसे लागू नहीं किया; पर मरीज तेजी से बढ़ने पर उन्हें होश आया। श्रमिकों को बुलाने में उन्होंने भी रुचि नहीं ली। जब श्रमिक रेलगाड़ियां आने लगीं, तो उन्हें ‘कोरोना एक्सप्रेस’ कहा गया। लोगों की सहायता में भी धर्म और पार्टी के आधार पर भेदभाव हुआ। इसलिए वहां कोरोना भयावह हो गया है। पूरे देश में सबसे अधिक मजदूर बिहार से ही जाते हैं; पर नीतीश कुमार ने भी आंखें बंद कर लीं। उन्हें डर था कि मजदूर आएंगे, तो कोरोना फैलेगा; पर तालाबंदी बढ़ने से लोग पैदल ही चल दिये। इसलिए शासन को श्रमिक बसें और रेलगाड़ियां चलानी पड़ीं। इससे लोग घर तो पहुंचे; पर बीमारी भी फैली। गुजरात में की गयी शुरुआती ढिलाई से भी काफी नुकसान हुआ।

 

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कुछ लोग कहते हैं कि तालाबंदी यदि धीरे-धीरे बढ़ती, तो श्रमिकों की सड़क या रेलगाड़ी आदि में मृत्यु न होती; पर वे भूलते हैं कि उद्योग या काम-धंधे बंद होते ही लोग जैसे घर भागते, उससे मौतें और ज्यादा होतीं। लाखों लोग रेलगाड़ियों में लद जाते। इस भगदड़ में हजारों लोग मरते और लाखों परिवार बिछुड़ जाते। देश विभाजन जैसा ही हाल फिर से होता।


यहां दिल्ली में निजामुद्दीन के मरकज प्रकरण की चर्चा भी जरूरी है। अखबार बताते हैं कि वहां कार्यक्रम होते रहते हैं; पर कोरोना फैलने के बाद उन्होंने मरकजियों को छिपाया। सैंकड़ों विदेशी भी वहां आये थे। उनमें से कई कोरोना से संक्रमित थे। बाद में वे कई जगह मदरसों और मस्जिदों में छिपे मिले। दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे की भीड़ के साथ अधिकांश मरकजी भी निकल गये। क्या यह अपराध नहीं है ? हैरानी यह भी है मोदी को कोसने वाले सब नेता इस पर चुप हैं।


केन्द्र का विचार था कि 21 दिन की पहली तालाबंदी से हालात सुधरेंगे और काम-धंधे शुरू हो जाएंगे। इसलिए मोदी ने हर बार सबसे श्रमिकों का ध्यान रखने को कहा। लाखों सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं ने उनके पेट भरे। उद्योगपतियों ने वेतन भी दिये। इससे अधिकांश श्रमिक टिके रहे; पर दिल्ली के मरकज और आनंद विहार प्रकरण से स्थिति बिगड़ गयी। अफवाहों से कई जगह उमड़ी भीड़ का भी इसमें योगदान रहा। इसलिए दूसरी तालाबंदी होते ही उद्योगपतियों और ठेकेदारों आदि ने इस डर से हाथ खींच लिये कि हमें अपने लिए भी कुछ बचाकर रखना है। अतः श्रमिक भागने लगे। ऐसे दुखद प्रकरण न होते, तो अप्रैल अंत तक काफी कुछ ठीक हो जाता; पर अब वह स्थिति कब आएगी, कहना कठिन है।


-विजय कुमार


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