By सुखी भारती | Aug 10, 2021
धन्य हैं वे वानर, जो श्रीराम जी के श्रीचरणों के अनुरागी व पिपासु होते हैं। गोस्वामी जी लिखते हैं कि सभी वानर, बारी-बारी श्रीराम जी को श्रद्धा संपन्न हृदय से प्रणाम करते चले जा रहे हैं-
‘सोइ गुनग्य सोई बड़भागी।
जो रघुबीर चरन अनुरागी।।
आयसु मागि चरन सिरु नाई।
चले हरषि सुमिरत रघुराई।।’
कितनी विलक्षण बात है कि सुग्रीव ने श्रीसीता जी की खोज हेतु एक समय सीमा का निर्धारण निश्चित कर रखा है कि जो एक माह तक भी, श्रीसीता जी का पता न लगा पाया, और फिर भी वापिस लौटने का साहस कर डाला, तो उसका वध मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा। ऐसी प्राण घातक धमकी मिलने के पश्चात भी, करोड़ों वानरों में एक भी वानर ऐसा नहीं था, कि जिसे प्राणों के रक्षण की कोई कण भर भी चिंता सता रही हो। कारण कि श्रीराम जी के पावन दर्शनों से, वे सभी इतने अभिभूत व निडर हुए, कि प्राण रक्षण का तो उनके जीवन में कोई मुद्दा ही न रहा। क्योंकि प्रभु के दर्शनों का नशा ही ऐसा है, कि जीव उनका प्रेम पाकर सिर से नख तक भरा-भरा व परम संतुष्ट महसूस करता है।
ऐसा साधक मृत्यु को साधारण-सी घटने वाली प्रक्रिया मानता है। उसका मन आठों पहर हर्षित महसूस करता है। सभी वानर भी इतने हर्षित व उत्साहित हैं, कि शब्दों में वर्णन रहीं किया जा सकता। सभी वानर एक-एक करके श्रीराम जी को प्रणाम करके चले जा रहे हैं। और अंत में महाबली पवनसुत श्रीहनुमान जी भी, श्रीराम जी के समक्ष उपस्थित होते हैं। श्रीराम जी तो मानो श्रीहनुमान जी की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। अभी तक तो प्रभु श्रीराम जी अन्य वानरों के साथ ही व्यस्त थे। लेकिन श्रीहनुमान जी को अपने समक्ष देखते ही श्रीराम जी परम आवश्यक कार्य का ध्यान करते हुए श्रीहनुमान जी को अपने समीप बुलाते हैं, और उन्हें खूब प्यार देते हुए अतिअंत स्नेह से उन्हें दुलारते हैं। और इसी भक्त और भगवान के प्रेम प्रवाह में बहते प्रभु श्रीराम जी श्रीहनुमान जी के सीस पर अपने पावन हस्त को टिका देते हैं। यह क्षण ऐसा था कि समस्त देवी देवता भी इसे निहारते हुए फूले नहीं समा रहे हैं। कारण कि जिस सीस पर श्रीराम जी का हाथ टिक जाए, भला वहां तीनों लोकों का ताज भी सज जाए, तो उसकी तुलना कण बराबर भी नहीं है। किसी भक्त के लिए इससे बड़ी प्रसन्नता का विषय हो ही नहीं सकता। भक्त को तो ऐसा लगता है, कि मानो वह सनाथ ही आज हुआ है। अन्यथा इससे पूर्व तो वह अनाथ ही भटक रहा था, और उसकी जिंदगी कोई जिंदगी थोड़ी न थी। खै़र! श्रीराम जी श्रीहनुमान जी का सीस अपने ममतामय पावन हस्त से निरंतर सहला रहे हैं। क्योंकि श्रीहनुमान जी को तो, अपने माता-पिता से मिले वर्षों ही बीत गए थे, और उन्हें यह अहसास भी भूल ही गया था, कि माँ अथवा पिता जब सीस सहलाते हैं, तो कैसा प्रतीत होता है।
मान लीजिए वह अहसास याद भी होता, तो यह तो निश्चित ही है, कि चर्म स्पर्श का, जो आनंद श्रीराम जी के ममता भरे हाथों में था, यह माता-पिता के सपर्श में हो ही नहीं सकता था। श्रीहनुमान जी तो मानो किसी दिव्य लोक में तैर रहे थे। समय की घड़ी की सूईयां भी जैसे भूल ही गई थीं, कि हमें समय की चाल के साथ घूमना भी है। सोचिए, बिना चेतना व संवेदना वाली घड़ी की सूईयां जब इस सुंदर घटना की साक्षी बन जीवंत हो उठी थीं, तो परम वैराग्यवान, चेतना संपन्न व श्रेष्ठ भावना से लबालब, श्रीहनुमान जी भला, कैसे पत्थर की भाँति ठोस बने रहते, उन्हें तो मोम की भाँति पिघलना ही था। वर्तमान घड़ी में श्रीहनुमान जी को यूं प्रतीत हो रहा था, कि बस यह श्वाँसें अब और आगे न बढ़ें, यहीं थम जायें। कारण कि जीवन में जिसे सर्वश्रेष्ठ व उत्कृष्ट माना था, वह तो उसने पा ही लिया। भला अब जीवन में और क्या पाना शेष रह गया था। लेकिन तभी भाव सागर से बाहर गोता लगाते हुए, श्रीहनुमान जी सोचते हैं, कि अरे यह मैं कैसा स्वार्थी व स्वकेंद्रित-सा बन गया हूं। जो अपने हित का शिखर छूते ही यह भूल गया, कि हमें तो प्रभु के कार्य में ही संलग्न होना है। भला श्रीराम काज बीच में ही छोड़ कर, संसार से विदा होने के लिए ही हमने इस तन को थोड़ी न धारण किया था।
सज्जनों निश्चित ही श्रीराम जी ने, श्री हनुमान जी के इन मनोभावों को पढ़ लिया होगा। कारण कि श्रीराम जी तभी एक सुंदर प्रतिक्रिया करते हैं। श्रीराम जी अपने हाथों से श्रीहनुमान जी को कुछ पकड़ाते हैं। श्रीहनुमान जी देखते हैं, कि श्रीराम जी ने उनके हाथों पर एक मुद्रिका रखी है। वह मुद्रिका ऐसी दिव्य थी, कि शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। उस मुद्रिका में एक विचित्र व दिव्य संपन्न आकर्षण था। उस मुद्रिका को छूते ही श्रीहनुमान जी समझ गए, कि श्रीराम जी इस मुद्रिका के माध्यम से अपना कार्य मुझे सौंप रहे हैं। उस मुद्रिका के प्रति श्रीराम जी अपने मनोभावों से इतने गहरे बंधन में बंधे प्रतीत हो रहे थे, कि उन्हें व्यक्त करने के लिए कागज़ और कलम के पास न तो उचित शब्द थे, और न ही पर्याप्त क्षमता। श्रीहनुमान जी मुद्रिका को देख कल्पना कर रहे हैं, कि इस मुद्रिका का आकार व व्यवहार ही अलग है। मुद्रिका क्योंकि श्रृंगार का ही साधन है। और श्रृंगार मन को शाँत नहीं, अपितु रागी बनाता है। और प्रभु ने जो मुद्रिका दी है, वह तो मन को अतिअंत शीतल किए जा रही है। इस मुद्रिका में मुझे बैराग का जो परम सुख मिल रहा है, उसे मैं कैसे ब्याँ करूँ। माया का यह अभिन्न अंग, मुझे माया से ही विरक्त करने का साधन क्यों प्रतीत हो रही है। श्रीराम जी श्रीहनुमान जी को यूं मुद्रिका में ही मस्त देख, उनकी सुंदर जिज्ञासा का आनंद ले रहे हैं। और मानो उस दिव्य मुद्रिका का रहस्य खोलते हुए कहते हैं, कि हे हनुमंत लाल! इस मुद्रिका का माया से भला क्या लेना देना। सुनार तो संसार में कोई मुद्रिका बनाता ही तब है, जब बदले में उसे माया मिले। हम यह भी कह सकते हैं, कि संसार में कोई भी आभूषण, बिना माया के सहयोग से बन ही नहीं सकता। बस संपूर्ण माया जगत में, यह दिव्य मुद्रिका ही एक ऐसी मुद्रिका है, जिसके निर्माण में माया का अंश मात्र भी प्रयोग नहीं हुआ। उल्टे यह मुद्रिका का कार्य तो माया को ही हरण कर लेना है। हे हनुमंत लाल! हम आपको यह मुद्रिका भी किसी विशेष कार्य हेतु ही प्रदान कर रहे हैं। कारण कि इस विशेष मुद्रिका से आप जैसे विशेष भक्त द्वारा, कोई विशेष कार्य ही हो सकता है। इसलिए कमर कस लो, क्योंकि वह विशेष कार्य, है ही इतना विशेष, कि हमें आपसे बेहतर सेवक, कोई मिला ही नहीं। क्या था श्रीराम जी का वह विशेष सेवा कार्य? जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)... श्रीराम!
-सुखी भारती