By अभिनय आकाश | Sep 13, 2021
गांधीनगर का टाउन हॉल जहां नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी तय करने की औपचारिकता पूरी होनी थी। आनंदीबेन का नाम भूपेंद्र चौरसमा ने प्रस्तावित किया, जिसे अमित शाह ने समर्थन दिया। प्रस्ताव सर्व सम्मति से पारित हो गया। मोदी के बाद विकास के गुजरात मॉडल को आगे बढ़ाने का जिम्मा आनंदीबेन पटेल को दिया लेकिन कुछ ही वर्षों में उसके दरकने और खिसकने की सुगबुगाहट को गंभीरता से लेते हुए आनंदीबेन से वापिस लेकर सूबे में महज 2 प्रतिशत की भागीदारी रखने वाले जैन समुदाय से आने वाले विजय रुपानी पर भरोसा जताया गया। अबआनंदीबेन की तर्ज पर ही विजय रुपाणी की भी मुख्यमंत्री पद से विदाई हो गई और भूपेंद्र पटेल को राज्य का नया सीएम बनाया गया। ऐसे में आज के इस विश्लेषण में जानेंगे कि बीजेपी को रातो-रात हटाने का फैसला क्यों लिया गया। आखिर बीजेपी को किस बात की सता रही थी चिंता। नितिन पटले क्यों बार-बार सीएम बनते-बनते रह जाते हैं।
बीजेपी को सता रही थी किस बात की चिंता
गुजरात में नरेंद्र मोदी की शैली थी कि वो विधानसभा चुनाव में कई विधायकों का टिकट काट देते थे। सरकार में नियमित अंतराल पर बड़ा बदलाव करते थे। इससे वह लोकल एमएलए के खिलाफ या उनकी सरकार के खिलाफ उपजे एंटी इनकंबेंसी को पूरी तरह काउंटर कर देते थे। पार्टी को लग रहा है कि अगले साल दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी रुपाणी के नेतृत्व में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकेगी। गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गृह राज्य है। पार्टी यहां कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहेगी। 2017 में रुपाणी के सीएम रहते हुए बीजेपी बमुश्किल गुजरात का चुनाव जीत पाई थी। पिछले विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ट्रिपल डीजिट की बजाय डबल डिजिट यानी 99 सीटों पर जीती थी। बीजेपी ये जानती है कि रुपाणी भले ही अच्छी सरकार चला रहे हों लेकिन उनके नाम पर वोट नहीं मिल पाएंगे।
उपचुनाव और निकाय चुनाव में भी गिरा पार्टी का परफार्मेंश
गुजरात में पार्टी के लिए चुनौती सिर्फ कांग्रेस से नहीं है, आम आदमी पार्टी का सूरत के स्थानीय चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करना बीजेपी के लिए चिंता का सबब बन गया था। विधानसभा चुनाव से पहले आप की यहां पर आक्रामक प्रचार करने की योजना है। 2019 में लोकसभा चुनाव के ठीक बाद छह सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने तीन सीटें जीतकर बीजेपी की चिंता और बढ़ा दी। इसलिए रुपाणी को हटाकर बीजेपी नया एक्सपेरिमेंट कर रही है।
कोरोना की दूसरी लहर को ठीक से हैंडल नहीं कर पाए रुपाणी
विजय रुपाणी की सरकार कोरोना को लेकर भी सवालों के घेरे में रही। अस्पताल के बाहर मरीजों की कतार और अहमदाबाद में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति ने कहीं न कहीं रुपाणी सरकार को कठघरे में खड़ा किया। अप्रैल-मई में कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हाई कोर्ट ने राज्य सरकार पर सख्त टिप्पणी की थी। चीफ जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस भार्गव कारिया की बेंच ने कोरोना को लेकर दाखिल पीआईएल पर सुनवाई के दौरान कहा, 'लोग अब सोच रहे हैं कि वे भगवान की दया पर हैं।' हाई कोर्ट ने कहा था कि अगर प्रदेश में सब कुछ ठीक चल रहा है और पर्याप्त मात्रा में ऑक्सिजन बेड उपलब्ध हैं तो लोग अस्पतालों में लाइन लगाकर क्यों खड़े हैं। कोर्ट ने कहा कि राज्य में कोरोना के हालात सरकारी दावों के विपरीत हैं।
रुपाणी को हटाने संबंधी आर्टिकल पब्लिश करने पर लगा था राजद्रोह
एक लोकल वेब पोर्टल के पत्रकार को इस तरह की संभावना जताने पर अरेस्ट कर लिया गया था। उस पर राजद्रोह का केस लगा दिया गया था। हालांकि, बाद में माफी मांग लिए जाने पर हाई कोर्ट ने पत्रकार धवल पटेल के खिलाफ राजद्रोह का मामला रद्द कर दिया था। 7 मई, 2020 को अहमदाबाद में लोकल न्यूज पोर्टल चलाने वाले पत्रकार ने एक आर्टिकल लिखा। इस आर्टिकल में धवल पटेल ने कयास लगाए थे कि कोरोना महामारी से निपटने में नाकामी के कारण गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी को हटाया जा सकता है। आर्टिकल के पब्लिश होते ही बवाल मच गया। गुजरात पुलिस ने पत्रकार के ऊपर राजद्रोह का केस लगाकर उसे गिरफ्तार कर लिया।
इसी तरह चुनाव पूर्व हुई थी आनंदीबेन की विदाई
75 साल की गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के पास जब कोई सहारा नहीं बचा तो उन्होंने फेसबुक का सहारा लेकर इस्तीफा दे दिया। पटेल और दलित आंदोलनों को देखते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा था कि गुजरात उनसे संभल नहीं रहा था। दरअसल मोदी के जाने के बाद गुजरात के जो हालात बने उन्हें संभालना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता था। आनंदीबेन सरकार के खिलाफ 2 आंदोलन, अगले साल होने वाला यूपी विधानसभा चुनाव और उसके 6 महीने बाद गुजरात चुनाव ही गुजरात के मुख्यमंत्री पद से आनंदीबेन की छुट्टी की असली वजह बनी थी। हालांकि खुद मुख्यमंत्री की दलील कुछ और रही और उन्होंने पिछले कुछ समय से चलते आ रहे पार्टी के 75 साल से ऊपर के आयु के कार्यकर्ताओं के खुद से ही सेवानिवृत होने की दलील दी थी। लेकिन राजनीतिक जानकारों की माने तो आनंदीबेन ने दो खास वजहों से समय से पहले पद छोड़ने का फैसला किया। सूत्रों के अनुसार पहले आनंदीबेन को 15 अगस्त के बाद इस्तीफा देना था लेकिन ऊना कांड की वजह से उन पर जल्द इस्तीफे का दबाव बढ़ गया था। बतौर मुख्यमंत्री आनंदीबेन की पहली राजनीतिक परीक्षा पटेल आंदोलन के समय हुई लेकिन इस राजनीतिक परीक्षा में आनंदीबेन फ़ेल साबित हुई और जो पाटेदार समुदाय एक समय भाजपा का मजबूत आधार मन जाता रहा वह भाजपा से दूर जाता दिखा। पटेल आंदोलन की टीस अभी बाकि ही थी की ऊना दलित पिटाई कांड सामने आ गया। ऊना में गो रक्षा के नाम पर हुई गुंडागर्दी ने भाजपा की राजनीतिक मुश्किल बढ़ाने का काम किया और इस घटना से आक्रोशित होकर दलित समुदाय का सड़कों पर आना व दूसरी तरफ भाजपा विरोधियों के घटनास्थल पर आकर चक्कर लगाने से भाजपा को अपनी जमीन और साख खोने का डर सताने लगा था।
गलतियां जो बनीं आनंदीबेन पटले के इस्तीफे का कारण
अनार पटेल- आनंदीबेन पटेल की बेटी अनार पटेल पर कांग्रेस ने आरोप लगाया कि उनके बिजनेस पार्टनर की कंपनी को करोड़ों की जमीन कौड़ियों के भाव में दी गई। पार्टी को इस विवाद से बैकफुट में आना पड़ा।
पटेल आंदोलन- खुद पटेल समुदाय से आने वाली आनंदीबेन अपने राज में पटेलों को संतुष्ट करने में नाकाम रहीं। उनके कार्यकाल में हार्दिक पटेल भाजपा के विरोध में बड़ा चेहरा बनकर उभरा। हार्दिक पटेल के आरक्षण आंदोलन को पूरे राज्य में अपार समर्थन मिला।
ऊना में दलितों से मारपीट का मामला- काफी वक़्त से आरएसएस व भाजपा के दलितों को लुभाने की कोशिश व आंबेडकर जयंती के मनाए जाने की पहल को गुजरात के ऊना जिले में गोरक्षक दलों द्वारा दलितों को बांधकर पिटाई करने की घटना व इसके वायरल होते वीडियो का असर संसद से सड़क तक दिखाई पड़ा। संसद में जहां इस बात को लेकर जमकर हंगामा हुआ, वहीं दलितों ने अहमदाबाद में बड़ी रैली कर इसका विरोध किया। यह मामला इस वक्त पूरे देश में भाजपा के खिलाफ बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया था।
वोट प्रतिशत में गिरावट- भाजपा का गढ़ माने जाने वाली गुजरात में आनंदीबेन के कार्यकाल में भाजपा के वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट हुई। वहीँ दूसरी ओर राज्य में हाशिये पर पहुंच हुकी कांग्रेस पंचायत और नगर निगम चुनावों में मजबूती से उभरी है। ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 44 से बढ़कर 47 प्रतिशत हो गया था, वहीं शहरी इलाकों में भी भाजपा की वोट शेयरिंग 50 प्रतिशत से गिरकर 43 प्रतिशत हो गई थी।
स्थापना के बाद अब तक मिले 25 मुख्यमंत्री
गुजरात की 14वीं विधानसभा का कार्यकाल अगले साल दिसंबर में पूरा होना था लेकिन इसके करीब 15 महीने पहले ही राज्य को 25वां मुख्यमंत्री मिल गया। दूसरी बार सीएम बने रुपाणी कार्यकाल का चौथा साल पूरा करने से करीब 3 महीने दूर थे। 1 मई 1960 को देश के नक्शे पर नए राज्य के रूप में अवतरित होने के बाद अपने 61 साल के इतिहास में आर्थिक रूप से समृद्ध गुजरात को सिर्फ 2 मुख्यमंत्री ही ऐसे मिले हैं जिन्हें अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा करने का अवसर मिला है। मतलब एक कांग्रेस के और एक बीजेपी के नेता ही ऐसा कर सके। केशुभाई पटेल के इस्तीफे के बाद 7 अक्टूबर 2001 को सीएम बने नरेंद्र मोदी ने गुजरात में लंबे समय तक इस पद पर काबिज रहने का रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज कराया है। वह लगातार 12 साल 227 दिन तक मुख्यमंत्री पद पर रहे। दिसंबर 2002 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद 11वीं विधानसभा के गठन के बाद नरेंद्र मोदी दूसरी बार मुख्यमंत्री बने और पांच साल पूरे किए। ये सिलसिला उनके 2014 में प्रधानमंत्री बनने तक चलता रहा। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में केंद्र में आने के बाद 7 साल और 112 दिन में गुजरात को 3 मुख्यमंत्री देखने पड़े। कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी गुजरात के पहले ऐसे सीएम बने जिन्होंने लगातार पूरे 5 साल मुख्यमंत्री के रूप में गुजारे। वह राज्य में 4 बार मुख्यमंत्री रहे।
क्यों सीएम बनते-बनते रह जाते हैं नितिन पटेल
महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखंड और अब गुजरात बीजेपी ने हर बार अपने फैसले से चौंकाया है। गुजरात में जिस तरह से भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी गई वो अपने आप में चौंकाने वाला है। क्योंकि नए मुख्यमंत्री पहली बार के विधायक हैं। इस नाम के साथ ही गुजरात सरकार में सबसे अनुभवी नेता और पाटीदार समाज के बड़े चेहरे को एक बार फिर अनदेखा कर दिया। और वो गुजरात के लाल कृष्ण आडवाणी की तरह इन वेटिंग ही रह गए। सरकार में डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल के नाम की चर्चा रुपाणी के इस्तीफे के बाद तेज हो गई थी। लोकप्रिय और जमीनी पाटेदार नेता होने के चलते उनके नाम की चर्चा सबसे ज्यादा थी। 6 बार के विधायक रहे पटेल का राजनीतिक अनुभव भी उनके नाम पर उठती अटकलों पर मुहर लगाने के लिए काफी था। मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान होने के पहले खुद नितिन पटेल ने ये कहकर ये इशारा किया था कि मुख्यमंत्री किसी अनुभवी नेता को चुना जाना चाहिए। लेकिन पार्टी ने उनके इस इशारे को अनदेखा कर दिया। खबर ये भी आई कि मुख्यमंत्री की कुर्सी न मिलने के बाद नितिन पटेल नाराज हो गए। गृहनगर मेहसाड़ा से नितिन पटेल के मन का मलाल सामने आया। हल्के फुल्के अंदाज में ही सही उन्होंने अपने मन की पीड़ा बता भी दी। उन्होंने कहा कि कई अन्य लोग भी हैं, जिनकी बस छूट गई। मैं अकेला नहीं हूं। इसलिए इस घटनाक्रम को उस नजर से न देखें। पार्टी निर्णय लेती है। हालांकि बाद में अपनी बातों पर सफाई देते हुए भावुक हो गए। उनकी जुंबा कह रही थी कि वे सीएम पद न मिलने से नाराज नहीं हैं, लेकिन दिल की बात आंखों से आंसू बनकर बह निकली। भावुक होते हुए नितिन पटेल ने कहा कि मैं 6 बार का विधायक रह चुका हूं। मेरे लिए जब तक जनता के दिलों में जगह है, तब तक मैं बना रहूंगा। मैं 18 साल से जन संघ से लेकर आज तक बीजेपी का कार्यकर्ता हूं और रहूंगा.. कोई जगह मिले या नहीं, बो बड़ी बात नहीं है लोगों का प्रेम और सम्मान मिले वही बड़ी बात है। भूपेंद्र पटेल नितिन पटेल से मिलने उनके घर भी गए। माना जा रहा है कि ये उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश थी। भूपेंद्र पैर छूकर नितिन पटेल का आशीर्वाद भी लिया। हालांकि ये पहली बार नहीं है कि जब नितिन पटेल को निराशा हाथ लगी है। 2016 में जब आनंदीबेन पटेल का इस्तीफा हुआ था तो उस वक्त उनका नाम काफी तेजी से सामने आया था। यहां तक की नितिन पटेल बतौर मुख्यमंत्री मीडिया को इंटरव्यू देने लगे। लेकिन ऐन वक्त पर पार्टी हाईकमान ने उनका पत्ता काट कर विजय रुपाणी को कमान सौंप दी। इस फैसले से नितिन पटेल समेत सभी मीडिया जगत भी हैरान हो गया था। बाद में उन्हें डिप्टी सीएम पद देकर साधा गया। 2017 में जब बीजेपी फिर से सरकार में आई तब भी नितिन पटेल का नाम सामने आया। लेकिन इस बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी उनसे रूठी रही है। बाद में वित्त मंत्रालय न मिलने पर नितिन पटेल बगावती मूड में आ गए। बाद में पार्टी झुकी और नितिन पटेल को वित्त मंत्रालय सौंप दिया गया। अब फिर एक बार नितिन पटेल को निराशा हाथ लगी है। खबर है कि पार्टी उन्हें उत्तराखंड का राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव दे रही है। लेकिन नितिन पटेल सक्रिय राजनीति से दूर नहीं होना चाहते हैं।
कैसे आया भूपेंद्र पटेल का नाम सामने
मोदी भले ही देश के प्रधानमंत्री हों लेकिन गुजरातियों के लिए वो आज भी नरेंद्र भाई ही हैं और सरकारी तंत्र और पार्टी सगंठन के अलावा भी गुजरात की जानकारी जुटाने के उनके अपने अनेक स्रोत और चैनल हैं। इनके जरिए और संगठन तंत्र के जरिए मिलने वाली जानकारी के बाद उन्होंने गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन का मन तो बना लिया था। उन्होंने इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को भी राजी कर लिया। लेकिन लाया किसे जाए यह एक बड़ा सवाल था। राज्य सरकार और संगठन में जिस कदर ऊपर से नीचे तक गुटबाजी है, उसे देखते हुए गुजरात के किसी जाने पहचाने चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने से पार्टी संगठन की गुटबाजी घटने की बजाय बढ़ सकती थी। आनंदीबेन ने बेहद खामोशी से अपने वफादार भूपेंद्र पटेल का नाम बढ़ाया। नंदीबेन पटेल के वफादार भूपेंद्र पटेल का नाम मोदी को जंच गया, क्योंकि यह नाम न सिर्फ नया था, बल्कि राजनीति की पहली पारी होने के कारण इसके पीछे किसी तरह का विवाद या आरोप भी नहीं है। इसके साथ ही पटेल फैक्टर भी उनके चयन में एक्स फैक्टर साबित हुआ। गौरतलब है कि पटेल गुजरात का सबसे बड़ा समुदाय है और भाजपा का परंपरागत वोट बैंक भी रहा है। साल 2012 में जब भाजपा से नाराज होकर केशुभाई पटेल ने अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा तो भी पटेल समुदाय ने मोदी के नेतृत्व में लड़ रही भाजपा को ही चुना था। राज्य में 15 प्रतिशत की आबादी रखने वाले पाटेदारों को साधने की चुनौती भूपेंद्र पटेल की होगी। हालांकि भूपेंद्र पटेल का राज्य के शीर्ष पद पर चुना जाना नरेंद्र मोदी के शीर्ष नेतृत्व पर आने के बाद के कई ऐसे फैसलों की याद कराता है जब किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया जो नाम मीडिया की सुर्खियों से कोसों दूर था। - अभिनय आकाश