किसानों को MSP पर संशय है तो सरकार इसे कानूनी रूप क्यों नहीं दे देती ?

By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dec 03, 2020

किसान नेताओं और केंद्र सरकार के नेताओं की बीच बात शुरू हो गई है। यह अच्छी बात है लेकिन यह बात कब शुरू हुई ? जब पंजाब और हरियाणा के हजारों किसानों ने सीधे दिल्ली पर धावा बोल दिया? मैं पूछता हूं कि संसद में कानून बनाने के पहले किसान नेताओं से विचार-विमर्श क्यों नहीं किया गया ? विपक्षी नेताओं का अभिमत क्यों नहीं जाना गया? इस कानून को इतनी झटपट क्यों थोप दिया गया? इसे संसदीय समिति को पहले क्यों नहीं सौंपा गया ? भाजपा के सहयोगी अकाली दल की मंत्री हरसिमरत कौर के इस्तीफे के बावजूद सरकार ने अपने कानून पर पुनर्विचार करने की बात नहीं सोची। संसद के अल्पकालीन सत्र में इन कृषि-विधेयकों पर बहस भी ठीक से नहीं हो सकी।

इसे भी पढ़ें: 'शाहीन बाग' के जैसा नजर आ रहा है पंजाब के किसानों का यह आंदोलन

अब जबकि दिल्ली पर किसानों की भीड़ जमा होने लगी तो सरकार के होश फाख्ता हो गए। वे दिल्ली में न घुस आएं, इसलिए उन पर क्या-क्या जुल्म नहीं किए गए। पंजाब और हरियाणा के किसान इस बार अपना राशन-पानी लेकर दिल्ली पहुंचे हैं। वे चौधरी चरण सिंह और महेंद्र सिंह टिकैत के किसानों की तरह दो-चार दिन के लिए नहीं आए हैं। क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री खुद उनसे मिलने की पहल करते लेकिन अब भी सरकार सत्ता के अहंकार से मुक्त होकर किसानों से बात करेगी तो इस समस्या का सर्वहितकारी समाधान हो सकता है।


यदि शासन-विरोधी कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो विपक्षी दल चुप क्यों बैठेंगे ? वे बोल रहे हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह आंदोलन खालिस्तिानियों और कांग्रेसियों ने खड़ा किया है। कुछ किसानों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी के बारे में जो जहरीले बयान दिए हैं, वे निंदनीय हैं लेकिन यह आंदोलन अपने ही पांवों पर चलकर दिल्ली पहुंचा है। भाजपा की केंद्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि जो पंजाब कल तक आतंकवाद का गढ़ था, वहां बगावत के बीज फिर से न फूटने लगें।


इस किसान आंदोलन में पंजाब और हरियाणा के अलावा अन्य प्रांतों के किसान भी जुड़ने लगे हैं। खेती के संबंध में जो तीन कानून बने हैं, कुछ किसान नेता उन सभी को रद्द करने की मांग कर रहे हैं लेकिन आंदोलनकारी किसानों का ध्यान मुख्य रूप से एक ही मुद्दे पर टिका हुआ है। उन्हें शक है कि उनकी उपज पर उन्हें जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलता है और मंडियों में उनका माल जिस आसानी से बिक जाता है, उनकी यह सुविधा अब चुप-चाप खत्म हो जाएगी और वे बड़े-बड़े पूंजीपतियों की कंपनियों के हाथ के खिलौने बन जाएंगे। उनका अनाज और फसलें फिर मिट्टी के मोल बिकेंगी। 


सरकार ने जो नए कानून बनाए हैं, उनके अनुसार अब किसान अपना माल मंडियों के अलावा बाहरी बाजारों में भी बेच सकेंगे। किसानों को सरकार की इस घोषणा पर भरोसा नहीं है कि उन्हें अपने माल के ज्यादा पैसे मिलेंगे या कंपनियों से सौदा हो जाने पर उन्हें बीज, खाद, सिंचाई, बिक्री आदि की बेहतर सुविधाएं मिलेंगी। उन्हें डर है कि मंडी-व्यवस्था धीरे-धीरे अपने आप खत्म हो जाएगी। यह डर दो कारणों से मजबूत हुआ है। पहला तो केंद्रीय वित्त मंत्री का नवंबर 2019 का वह बयान है, जिसमें उन्होंने मंडी-व्यवस्था को ‘गई-बीती’ बताया था और यह भी कह दिया था कि अब उसके विदा होने के दिन आ गए हैं। दूसरा कारण है, यह प्रचार कि मोदी सरकार कुछ पूंजीपतियों को विशेष लाभ पहुंचाने के लिए कमर कसे हुए है।


सरकार का कहना है कि यह दुष्प्रचार भर है। यह गलतफहमी है। इसे विपक्ष फैला रहा है। मान लिया जाए कि यह ठीक है तो सरकार इस गलतफहमी को पिछले दो-ढाई माह में दूर क्यों नहीं कर सकी ? भाजपा में प्रचार-पंडितों की कमी नहीं है। उन्हें किसानों को सिर्फ एक बात ही समझानी है। वह यह कि समर्थन मूल्य खत्म नहीं होगा। तो वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा को कानूनी रूप क्यों नहीं दे देते ? यह ठीक है, अभी भी उसके पीछे कानून नहीं है लेकिन अब गलतफहमी इतनी फैल गई है कि उसे कानूनी रूप दे देने में सरकार को क्या संकोच है ? कुछ अन्य छोटे-मोटे मुद्दे भी हैं, जिन पर सहमति होना कठिन नहीं है।

इसे भी पढ़ें: किसान तो हल चलाता है पर यह आंदोलनकारी तलवार दिखा रहे हैं

सरकार समय-समय पर फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती रहती है। अभी तक सिर्फ 23 फसलों पर यह होता है जबकि भारत में कम से कम 200 तरह की फसलें होती हैं। पंजाब और हरियाणा में गेहूं और धान की फसलें सबसे ज्यादा मंडियों में बिकती हैं। सरकार इनकी सबसे बड़ी खरीद करती है। देश की कुल उपज का सिर्फ 6 प्रतिशत माल ही मंडियों में बिकता है। बाकी 96 प्रतिशत फसलों के लिए भी सरकार को कोई कमोबेश ‘दाम बांधो’ नीति बनानी चाहिए या नहीं ? इन फसलों को बेचने वाले किसान ही गरीबी, बेकारी और लूट के शिकार होते हैं। उन्हें अपनी लागत से सवाई या डेढ़ी कीमत मिले, इसका प्रबंध भी सरकार क्यों नहीं करती ? केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने 16 सब्जियों के न्यूनतम मूल्य घोषित किए हैं। इनसे किसानों को अपनी लागत से 20 प्रतिशत मूल्य ज्यादा मिलेगा और उन्हें नुकसान होने पर 32 करोड़ रु. तक की सहायता सरकार देगी। भारतीय खेती को अमेरिका की तरह खुला बाजार दे देना तो ठीक है लेकिन सरकार उन्हें क्या अमेरिकी किसानों की तरह प्रतिवर्ष 62 हजार डालर की सहायता दे सकती है ? वहां खेती में 2 प्रतिशत से भी कम लोग हैं जबकि भारत में लगभग 50 प्रतिशत लोग खेती से जुड़े हुए हैं। यदि खेती खुलती है तो उत्पादन बढ़ेगा, उसकी गुणवत्ता बढ़ेगी और भारत बड़ा निर्यातक देश भी बन सकता है लेकिन खेती के मूलाधार किसान का विश्वास जीते बिना इस लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है।


-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

प्रमुख खबरें

Delhi Elections 2025 । घर-घर जाकर महिला सम्मान योजना और संजीवनी योजना के लिए रजिस्ट्रेशन करेगी AAP

PM Modi Receives Honour| पीएम मोदी को Kuwait में मिला गार्ड ऑफ ऑनर, कहा दोनों देशों के बीच है ऐतिहासिक संबंध

Germany के क्रिसमस बाजार में हुए जानलेवा हमले में एक बच्चे समेत पांच लोगों की मौत, Elon Musk ने की घटना की निंदा

Delhi Police का खुलासा, छात्रों को नहीं देनी थी परीक्षा, तो स्कूल को बम से उड़ाने की फर्जी धमकी दे डाली