प्रथम अध्यक्ष अटलजी से लेकर नए अध्यक्ष की प्रतीक्षा बेला तक

By प्रवीण गुगनानी | Apr 06, 2025

आज जब देश भाजपा के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के पदासीन होने की प्रक्रिया व प्रतीक्षा में हैं तब स्वाभाविक ही भाजपा की समृद्धशाली अध्यक्षीय परंपरा का ध्यान देश के मानस में उभर आता है। भारतीय जनता पार्टी का उत्थान, आरोह, अवरोह, विन्यास का मार्ग और आज के भारतीय राजनैतिक क्षितिज में उसकी चमकदार स्थिति कोई संयोग मात्र नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, नानाजी देशमुख आदि की राजनैतिक शुचिता व परंपरा के उत्तराधिकारी थे भाजपा के प्रथम अध्यक्ष श्रीमान अटल बिहारी वाजपेयी। भाजपा के प्रथम अध्यक्ष के रूप में उन्होंने जिस प्रकार अपनी पार्टी को एक सुदृढ़ नींव प्रदान की, एक सैद्धांतिक आधार दिया, “पार्टी विद डिफरेंस” के आसन पर विराजित किया वह सब एक तपस्या ही है। अटल जी से लेकर जे पी नड्डा तक भाजपा की अध्यक्षीय परंपरा, संघ परंपरा के संवाहक के रूप में ही हमें दिखती चली आई है। अटल जी, लालकृष्ण आडवाणी जी, मुरली मनोहर जी, कुशाभाऊ ठाकरे जी, जना कृष्णमृति जी, वैंकया नायडू जी, राजनाथ जी, नितिन गड़करी जी, अमित शाह जी, जेपी नड्डा जी तक की अध्यक्षीय परंपरा पर संघ, जनसंघ व भाजपा की समूची तपस्या व साधना का अमिट प्रभाव रहा है। 


1 मई, 1977 को भारतीय जनसंघ ने लगभग पाँच हज़ार प्रतिनिधियों के एक अधिवेशन में अपना विलय जनता पार्टी में कर दिया था। शीघ्र ही, जनता पार्टी का प्रयोग विफल हो गया था। इस स्थिति में सर्वाधिक किंकर्तव्यमूढ़ स्थिति में जनसंघ के कार्यकर्ता को खड़े होना चाहिए था। सर्वाधिक सांगठनिक हानि जनसंघ की ही हुई थी। जनसंघ का सामान्य कार्यकर्ता गहन हताश और निराश हो जाना चाहिए था! किंतु ऐसा कतई नहीं हुआ!! क्योंकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शीर्ष नेतृत्व स्थितियों को केवल भाँप ही नहीं रहा था अपितु भली भाँति नब्ज पर हाथ रखें हुए था। स्वयंसेवकों के समक्ष स्वयंसेवक होने या जनता पार्टी के सदस्य होने में से किसी एक को चुनने का यक्ष प्रश्न उभर रहा था। इस बेला में ही भाजपा जन्म का बीजारोपण हो चुका था। यही कारण था कि, 4 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति ने अपने सदस्यों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य होने पर प्रतिबंध लगाया और मात्र दो सूर्योदय के बाद 6 अप्रैल, 1980 को भाजपा स्थापित हो चुकी थी। यह संघ के संत जैसे प्रचारकों व देवस्वरूप गृहस्थ कार्यकर्ताओं की दूरदृष्टि का ही परिणाम था। 

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भाजपा के सभी अध्यक्षीय कार्यकाल एक से बढ़कर एक रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्षों की भौगोलिक या राज्यीय पृष्ठभूमि, सांगठनिक पृष्ठभूमि, कार्यशैली, भाषायी पृष्ठभूमि, शिक्षा क्षेत्र, अनुभव बड़े ही विविधतापूर्ण रहे हैं। मात्र 45 वर्ष की आयु वाले इस युवा संगठन का समूचे देश में सतत व तीव्रता से बढ़ता हुआ जनाधार ही इसकी अद्भुत व सफल अध्यक्षीय परंपरा का परिचायक है। 

 

आज भाजपा के बड़े स्तर पर सत्तासीन हो जाने से लोग बहुधा एक बात कहते हैं; अरे, अब यह “पार्टी विद डिफ़रेंस” नहीं रही। विरोधी दल स्वानंद के लिए यह कह लें किंतु भाजपा आज भी “पार्टी विद डिफ़रेंस” ही है!! भाजपा में अनेक दलों से करोड़ो कार्यकर्ता आकर सम्मिलित हुए हैं, लाखों पदाधिकारी आए, हजारो सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधि आये; किंतु क्या भाजपा ने क्या मंदिर को छोड़ा? कश्मीर को छोड़ा? समान नागरिक संहिता को छोड़ा? तुष्टिकरण के विरुद्ध अभियान को छोड़ा? हिंदुत्व के आग्रह को छोड़ा? और तो और भारतीय मुस्लिम महिला समाज को, उसकी दोज़ख़ी कुप्रथाओं से बाहर निकालने का नया काम भी भाजपा ने अपने हाथों में ले लिया!! यह श्रृंखला, यह कृतत्व ही बताता है कि भाजपा आज भी “द पार्टी विद डिफरेंस” ही है। आप पिछले एक दो दशक में सभी भारतीय दलों दलों द्वारा विकसित किये गए विमर्शों को जांचे तो पता चलेगा की वैचारिक दृष्टि से शेष दल सुविधाभोगी हो गए हैं किंतु भाजपा ने अपना वैचारिक आग्रह नहीं छोड़ा। भाजपा ने दुसरे दलों से कार्यकर्ता, पदाधिकारी, विधायक, सांसद अपने दल में लिए अवश्य किंतु आने वाले व्यक्ति और उनके विचार बदले हैं भाजपा का वैचारिक आग्रह नहीं बदला है। भाजपा आज भी अपने संघी ध्रुव पर, एकात्म मानववाद पर, अन्त्योदय पर, राममंदिर पर, समान नागरिक संहिता पर, मुस्लिम सुधार पर और ऐसे अनेक विषयों पर अंगद और अटलभाव से खड़ी हुई है। यह भाजपा की समृद्धशाली अध्यक्षीय परंपरा का ही परिणाम है। 


वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में अल्पमत की सरकार बनाने के बाद भी नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद में नए वक़्फ़ बिल “उम्मीद” का प्रस्तुत होने से लेकर पारित होने तक की प्रक्रिया, भाजपा की अटल जी से लेकर जेपी नड्डा तक की राष्ट्रनिष्ठ अध्यक्षीय परंपरा का प्रताप ही है। 


भाजपा की अध्यक्षीय परंपरा की तुलना यदि हम कांग्रेस से या दूसरे राजनैतिक दलों से करें तो हमारे समक्ष एक भयावह दृश्य प्रस्तुत होता है। कांग्रेस सहित अन्य सभी राष्ट्रीय या राज्यीय स्तर के राजनैतिक दलों में अध्यक्षीय आसंदी एक खिलौना बनकर रह गई है। पिता अपने पुत्र को अपनी अध्यक्षीय कुर्सी किसी खिलौने की भाँति ही उपहार में दे देता है। भाजपा से इतर अन्य पार्टियों के अध्यक्ष, कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर बैठते हैं। वो विचार बदलते हैं, परिवार बदलते हैं, आधार बदलते हैं और नौ सौ चूहे खाकर कभी हज को तो कभी हरिद्वार को जाने का प्रपंच करते हैं! कांग्रेस, कम्युनिस्ट होकर कटुक, बिटूक गई है। कम्युनिस्ट लोग इस्लामिस्ट होने का ढोंग रच रहे हैं। हमारे देश में कम्युनिस्ट होने की नई परिभाषा है “हिंदू विरोध मात्र”। साम्यवादी, समाजवादी तो पता नहीं क्या क्या प्रपंच कर रहे हैं। 


सबसे बड़ी बात सत्तासीन होने के लिए ये लोग भारतीयता को छोड़ने में सदा अव्वल रहते हैं। “भारतीयता को छोड़ना” इस एक बड़े शब्द का प्रयोग यहां किया है, किंतु आपके समक्ष कांग्रेस जनित आपातकाल और तुष्टिकरण के बाद के कालखंड के कुछ सामाजिक संदर्भ रख रहा हूं, थर्मामीटर लगाकर चैक करें कि इन संदर्भों में भाजपा से इतर वाले राजनैतिक दलों ने कितनी तेजी से सत्ता के लिए अपनी केंचुली बदली है। जनजातीय को हिंदुओं से अलग बताना, जैन और लिंगायत जैसे कुछ अन्य समुदायों को अलग धर्म या अल्पसंख्यक कराना, शाहबानों प्रकरण में न्यायालय के निर्णय को बदलना, एक देश दो विधान, आर्य अनार्य का वितंडा उपजाना, राममंदिर को संघ या भाजपा का कार्यालय बताना, अयोध्या निर्माण में बाधाएं उत्पन्न करना, रामेश्वर रामसेतु के विध्वंस हेतु मशीनों का बेड़ा भेजना, श्रीराम को काल्पनिक बताना, ऐन दीवाली की रात्रि को पूज्य शंकराचार्य की गिरफ्तारी, देश में कोविड वेक्सिन को भाजपा की वेक्सिन कहकर विरोध करना, विदेशों में वेक्सिन डिप्लोमेसी का विरोध करना, नक्सलवाद, खालिस्तान, बोडो, माओइज्म, अनुच्छेद 370 हटाने का विरोध करना, पंडित विहीन कश्मीर, दक्षिण राज्यों में हिंदी विरोध के आधार पर राजनीति, भाषायी विभाजन, भीम मीम गठजोड़, मंडल-कमंडल, पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाव, गुरमेहर कौर विवाद, चीन के साथ भारत के विवाद या संघर्ष में चीन की ओर झुकाव बताना जैसे कई कई मुद्दे हैं। ये और इन जैसे अनेक अन्य मुद्दों पर भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी व प्रगतिशील राजनीतिक तत्वों ने सदैव ही राष्ट्र की मूलभावना के विपरीत आचरण प्रस्तुत किया है। भारत की परिवार परम्परा और विवाह परम्परा के विरुद्ध इनके षड़यंत्र आए दिन नए नए रूप में देश के प्रत्येक भाग में उभरते रहते हैं। सीआरपीएफ के 75 सैनिकों के नक्सलियों से संघर्ष करते हुए बलिदान होने पर उत्सव मनाने जैसी घटनाएं ये लोग आए दिन करते रहते हैं। भाजपा को छोड़कर अन्य भारतीय राजनैतिक दलों की अध्यक्षीय परंपरा इतनी विपन्न, विचित्र व विछिन्न-विदीर्ण रही है कि उसे स्वार्थी प्रोपराइटर शिप कहना अधिक उचित होगा।  


- डॉ. प्रवीण गुगनानी 

विदेश मंत्रालय, भारता सरकार में सलाहकार, राजभाषा

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