मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाली राजनीति देश के विकास की एक बड़ी बाधा है, यह आम जनता को अकर्मण्य एवं कामचोर बनाने के साथ-साथ राजनीति को दूषित करती है। जो नेता इसे परोपकार मानते हैं, वे देश की जनता को गुमराह करते हैं। यह सरासर प्रलोभन एवं चुनावों में अपनी जीत को सुनिश्चित करने का हथियार है और नेताओं की जीत का ताकतवर मोहरा है। जीत के लिए जनता से मुफ्त सामान का वादा, राज्य के खज़ाने पर भारी आर्थिक असंतुलन का कारण है। अब इस मुफ्त संस्कृति एवं रेवड़ियां बांटने के राजनीतिक प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही सवाल उठाते हुए केंद्र सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों की ओर से मुफ्त में चीजें बांटने या ऐसा करने का वादा करने को वह कोई गंभीर मुद्दा मानती है या नहीं? अदालत ने केंद्र को वित्त आयोग से यह भी पता लगाने को कहा कि पहले से कर्ज में डूबे राज्य में मुफ्त की योजनाओं पर अमल रोका जा सकता है या नहीं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी उन राजनीतिक दलों पर निशाना साधा जिन्होंने चुनावी घोषणाओं में देश की जनता को मुफ्त की चीजों का लालच देकर वोट हासिल करने की साजिश की है। निश्चित ही मुफ्त की रेवड़ियां बांटने का बढ़ता प्रचलन देश के विकास के लिए हानिकारक है। श्रीलंका आज बर्बादी के जिस कगार पर पहुँचा है तो इसका सबसे बड़ा कारण जनता को मुफ्त की रेवड़ियां बांटना ही है।
लोकतन्त्र में यह मुफ्त बांटने की मानसिकता एक तरह का राजशाही का अन्दाज ही कहा जायेगा जो लोकतंत्र के मूल्यों के विपरीत है। लोकतंत्र में कोई भी सरकार आम जनता की सरकार ही होती है और सरकारी खजाने में जो भी धन जमा होता है वह जनता से वसूले गये शुल्क या टैक्स अथवा राजस्व का ही होता है। राजशाही के विपरीत लोकतन्त्र में जनता के पास ही उसके एक वोट की ताकत के भरोसे सरकार बनाने की चाबी रहती है। दरअसल, जनता के हाथ की इस चाबी को अपने पक्ष में घुमाने एवं जीत का ताला खोलने के लिये यह मुफ्त की संस्कृति एक राजनीतिक विकृति के रूप में विकसित हो रही है। चुनावों में सत्ता हासिल करने के लिए अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की ओर से किए जाने वाले वादे की शक्ल अब बीते कुछ समय से कोई चीजें या सुविधाएं मुफ्त मुहैया कराने के रूप में सामने आने लगी है। अगर एक पार्टी विद्यार्थियों को मुफ्त लैपटाप, वृद्धों को मुफ्त धार्मिक यात्रा, महिलाओं को मुफ्त बस सफर देने का वादा करती है तो दूसरी पार्टियां बिजली-पानी और स्कूटी या गैस सिलेंडर। हालत यह हो गई है कि इस मामले में लगभग सभी पार्टियों के बीच एक होड़ जैसी लग गई है कि मुफ्त के वादे पर कैसे मतदाताओं से अपने पक्ष में लुभा कर मतदान कराया जा सके। इससे राज्यों का आर्थिक संतुलन लड़खड़ाता है या वे कर्ज में डूबते हैं तो इसकी चिन्ता किसी भी दल की सरकार को नहीं है।
अक्सर विकास से संबंधित किसी काम के समय पर पूरा नहीं होने को लेकर सरकारें कोष में धन की कमी और कर्ज के बोझ का रोना रोती हैं। लेकिन वहीं वे मुफ्त में लोगों को कोई सामान बांटने से लेकर बिजली या पानी जैसी योजनाएं चला कर जनपक्षीय होने का दावा करते हुए राज्य के आर्थिक बजट को डांवाडोल कर देती हैं। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों की ओर से वादे किए जाने पर पूरी तरह रोक लगाना लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा के लिये जरूरी है। लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि जनता के ‘मालिक’ नहीं बल्कि ‘नौकर’ होते हैं और केवल पांच साल के लिए जनता उन्हें देश या प्रदेश की सम्पत्ति या खजाने का रखरखाव (केयर टेकर) करने के लिए चुनती है। लेकिन राजनीति में घर कर रही विकृतियों के कारण, चरमराते राजनीतिक मूल्यों एवं येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की होड़ के चलते जन-प्रतिनिधि स्वयं को मालिक मानने की भूल करने लगे हैं। चुनावों से पहले ही मुफ्त सौगात देने के वादे करके राजनीतिज्ञ या राजनीतिक दल जनता के खजाने को निजी सम्पत्ति समझ कर मनचाही सौगात बांटने की जो घोषणा करते हैं, वह पूरी तरह लोकतन्त्र को आधिकारिक रिश्वतखोरी के तन्त्र में बदलने का एक घिनौना एवं विरोधाभासी प्रयास ही कहा जा सकता है।
पिछले कुछ दौर से यह मुफ्त की संस्कृति वाली राजनीति एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। सवाल है कि लगभग हर छोटी-मोटी सुविधाओं या आर्थिक व्यवहार को ‘कर’ के दायरे में लाने और उसे सख्ती से वसूलने वाली सरकारें इतने बड़े पैमाने पर कोई चीज कैसे मुफ्त देने लगती हैं? यह जनता को गुमराह करने का जरिया है। इसका एक अन्य पहलू यह है कि कुछ सुविधाएं या सेवाएं मुफ्त किए जाने से इतर सरकार क्या जनता से अन्य मदों में कर नहीं वसूलती है? फिर विशेष या आपात स्थिति में अगर जीवन-निर्वाह के लिए लोगों को कोई सामान निःशुल्क दिया जाता है तो क्या वह सरकार की जिम्मेदारी नहीं होती है? एक आदर्श सरकार वही है जो अपनी जनता में मुफ्तखोरी में जीने की आदत डालने की बजाय उसे कर्ममय एवं उद्यमी बनाये। उन्हें रोजगार दें, काम-धंधों में लिप्त करें। जितनी राशि मुफ्त में सुविधाएं या चीजें देने में खर्च होती है, वही राशि यदि उद्यम एवं विकास में खर्च की जाये तो प्रांत का विकास होगा, बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा, समृद्धि का वातावरण बनेगा। मुफ्त की संस्कृति एवं प्रचलन पर नियंत्रण जरूरी है, इसके लिये वित्त आयोग आवंटन के समय किसी राज्य सरकार का कर्ज और मुफ्त में सामान मुहैया कराने की कीमत को देख कर अपना निर्णय ले सकता है। जाहिर है, चुनावों में जीत के लिए कोई चीज या सेवा मुफ्त मुहैया कराए जाने का सवाल विवादों के घेरे में है और इस पर कोई स्पष्ट रुख, नीति एवं प्रावधान सामने आना जरूरी है।
भारत में बहुत से ऐसे राज्य हैं जहां राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को मुफ्त सौगात बांटने के वादे किये और सत्ता में भी आ गये मगर खजाने खाली हो गये और यहां की सरकारें भारी कर्जदार हो गईं। लोकतन्त्र में मतदाता राजनीतिक दलों की नीतियों व सिद्धान्तों व भविष्य के कार्यक्रमों को देख कर वोट देते हैं। मगर दक्षिण भारत से शुरू हुई रेवड़ी बांटने की संस्कृति या प्रचलन अब उत्तर भारत में भी शुरू हो गया है। यह मुफ्त संस्कृति के हिमायती राजनेता एक संतुलित एवं विकसित समाज की स्थापना की बजाय गरीबी का ही साम्राज्य बनाये रखना चाहते हैं, इन नेताओं की मुफ्त-सुविधाओं को पाने के लिए गरीब हमेशा गरीब ही बना रहे, यह सोच है इन तथाकथित गरीबों के मसीहा राजनेताओं की। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए देश राजनीति की इस विकृति से मुक्त हो, यह अपेक्षित है। इसके लिये इसी संसद के मानसून सत्र में ‘रेवड़ी बांटने’ के विरुद्ध मोदी सरकार कोई विधेयक लेकर आये तो इससे भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा एवं सशक्त भारत बनने की दिशा में हम एक कदम आगे बढ़ा सकेंगे।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)