By सुखी भारती | Sep 01, 2022
श्रीराम जी ने जब महाबली श्रीहनुमान जी के, लंका दहन के महान पराक्रम की प्रशंसा की, तो श्रीहनुमान प्रभु श्रीराम जी के श्रीचरणों में गिर कर, ‘रक्षा करो-रक्षा करो’ की दुहाई देने लगे। हनुमंत लाल जी ऐसा क्यों कर रहे थे, यह तो हमने देवऋर्षि नारद जी के प्रसंग से बड़े विस्तार से श्रवण कर ही लिया। हमने यह भी बड़ी अच्छी प्रकार से समझ लिया, कि भक्ति पथ पर प्रशंसा कितना बड़ा शत्रु है। ऐसा भी नहीं कि प्रशंसा का कार्य, मानव को केवल गिराना ही है। क्योंकि प्रशंसा तो प्रभु भी श्रीहनुमान जी की कर ही रहे हैं। जो कार्य स्वयं प्रभु भी कर रहे हैं, वह भला निंदनीय कैसे हो सकता है? हाँ, यह अवश्य विचारणीय है, कि उस प्रशंसा का उपयोग कौन, कहाँ और किस भाव से कर रहा है। प्रशंसा अगर चाटुकारिता के लेपन में लिपटी हो, तो वह निःसंदेह हानि का ही कारण बनती है। उदाहरणतः रावण की सभा में कोई जितना बड़ा चाटुकार होता था, वह उतना ही बड़ा रावण का प्रिय व उच्च पद पर आसीत था। भगवान श्रीराम जी के दरबार में भी प्रशंसा का निरंतर उपयोग होता है। लेकिन वह उपयोग किसी के भी द्वारा, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं, अपितु आत्मिक व सामाजिक कल्याण के लिए होता है। भगवान किसी की प्रशंसा करें, तो निश्चित ही वे चाहते हैं, कि उनका भक्त अपने परम कल्याण की डगर पर, ओर तेज गति से बढ़े। और जब कोई चाटुकार व्यक्ति, किसी की प्रशंसा करे, तो समझ लेना चाहिए, कि ऐसी चाटुकारिता पर आत्ममुग्ध होने वाले का पतन निश्चित है।
भगवान श्रीराम के श्रीचरणों में से, भक्त शिरोमणि श्रीहनुमान जी उठ ही नहीं रहे हैं। उन्होंने प्रभु के श्रीचरणों को कस कर पकड़ रखा है। प्रभु श्रीराम जी श्रीहनुमान जी को बार-बार उठाना चाह रहे हैं, लेकिन श्रीहनुमान जी हैं, कि उठने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। यह दृश्य बड़ा ही सुंदर व मन को सुख देने वाला था। कारण कि प्रभु का कर कमल, श्रीहनुमान जी के सीस पर बिराजमान जो था। यह ऐसा दृश्य था, कि उसका वर्णन कर भगवान शंकर भी प्रेममग्न हो गए-
‘बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।।
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।’
क्योंकि भगवान शंकर जी भी अपने श्रीमुख से माँ गौरी को, श्रीराम कथा श्रवण करा रहे हैं। तो उस कथा प्रवाह में यह ऐसा प्रसंग था, जिसमें भगवान शंकर की व्यक्तिगत भावनायें जुड़ी हुई थीं। भावनायें यह, कि जैसा कि सबको विदित है, कि श्रीहनुमान जी भगवान शंकर जी का ही अवतार हैं। तो वास्तव में प्रभु श्रीराम जी के साथ श्रीहनुमान जी, जो भी कोई लीला कर रहे हैं, वह सब वास्तव में भगवान शंकर जी भी महसूस कर रहे हैं। और भगवान शंकर तो, क्योंकि श्रीराम जी के अनन्य उपासक हैं, तो श्रीहनुमान जी के माध्यम से, केवल श्रीहनुमान जी ही प्रभु के पावन सानिध्य का आनंद नहीं ले रहे, अपितु भगवान शंकर जी भी, वह आनंद की अनुभूति कर रहे हैं।
श्रीहनुमान जी द्वारा, भगवान श्रीराम के श्रीचरणों को, बार-बार कहने पर भी न छोड़ने के पीछे भी, भगवान शंकर जी की ही अधूरी रह गई इच्छा ही थी। जी हाँ! भगवान शंकर जी ने अपने जीवन काल में दो बार यह प्रयास किया, कि उन्हें श्रीराम जी के पावन श्रीचरणों को स्पर्श करने का अवसर प्राप्त हो जाये। लेकिन दोनों ही बार, भगवान शंकर जी के जीवन की यह अभिलाषा अधूरी की अधूरी ही रही। पहली बार तो तब, जब प्रभु श्रीराम जी का जन्म होता है। तब भगवान शंकर जी अपना वेष बदल कर, अयोध्या नगरी में भगवान श्रीराम जी के बिल्कुल समीप पहुँच जाते हैं। लेकिन तब भी, श्रीराम जी के चरण स्पर्श पाने में, वे असफ़ल सिद्ध होते हैं। दूसरी बार जब प्रभु श्रीराम जी का विवाह होने लगता है, तब भी भगवान शंकर अपना वेष बदल कर वहाँ जाते हैं, लेकिन तब भी उन्हें सफलता हाथ नहीं लगती। भगवान शंकर ने सोचा होगा, कि प्रकट रूप में जाना संभव नहीं, क्योंकि इससे तो प्रभु की नर लीला में, निश्चित ही अवरोध उत्पन्न होगा। पता नहीं वह कौन सा शुभ वेष होगा, जिसे धारण करने पर मुझे प्रभु के श्रीचरणों को स्पर्श करने का अवसर प्राप्त होगा। उन्हें क्या पता था, कि वानर रूप ही वह रूप है, जब उन्हें अपनी इस मनोकामना की पूर्ती होगी। इसलिए आज दूसरा अवसर था, जब भगवान शंकर, वानर स्वरूप में प्रभु के श्रीचरणों को पकड कर ही बैठ गए, और छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे। श्रीराम जी से प्रथम भेंट में भी, जब श्रीहनुमान जी ब्राह्मण वेष में थे, तब भी उन्होंने कितनी ही देर प्रभु के पावन चरणों को बार-बार कहने पर भी नहीं छोड़ा था।
प्रभु श्रीराम जी एवं श्रीहनुमान जी के मध्य और क्या मीठे प्रसंग घटते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती