By नीरज कुमार दुबे | Feb 22, 2024
दिल्ली चलो का आह्वान करने वाले लोग खुद को किसानों का नेता बताते हैं लेकिन सवाल उठता है कि यह आखिर कैसे नेता हैं जो किसानों का भला नहीं चाहते। सरकार ने वर्तमान आर्थिक परिदृश्यों में एक बेहतर प्रस्ताव दिया। इस प्रस्ताव को तैयार करते समय सरकार ने पंजाब के किसानों की दिक्कतों का खासतौर पर ध्यान रखा लेकिन फिर भी उसे ठुकरा दिया गया। देखा जाये तो खुद को किसान नेता कहने वाले लोगों ने सरकारी एजेंसियों द्वारा पांच साल तक दाल, मक्का और कपास की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर करने के केंद्र के प्रस्ताव को खारिज कर किसानों के हितों को बहुत बड़ा धक्का पहुँचाया है।
पहले जरा सरकार के प्रस्ताव पर नजर डालते हैं फिर आपको बताएंगे कि कैसे यह पंजाब के किसानों के हित में था। हम आपको बता दें कि किसानों के साथ चौथे दौर की बातचीत के बाद केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता महासंघ और भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन महासंघ जैसी सहकारी समितियां ‘अरहर दाल’, ‘उड़द दाल’, ‘मसूर दाल’ या मक्का का उत्पादन करने वाले किसानों के साथ एक अनुबंध करेंगी ताकि उनकी फसल को अगले पांच साल तक एमएसपी पर खरीदा जाए। उन्होंने कहा था कि खरीद की मात्रा की कोई सीमा नहीं होगी और इसके लिए एक पोर्टल विकसित किया जाएगा। मंत्री पीयूष गोयल ने यह भी प्रस्ताव दिया था कि भारतीय कपास निगम उनके साथ कानूनी समझौता करने के बाद पांच साल तक किसानों से एमएसपी पर कपास खरीदेगा।
अब जरा समझिये यह प्रस्ताव किसानों के हित में कैसे था। दरअसल गेहूं और धान की फसलों में सर्वाधिक पानी लगता है। पंजाब उन राज्यों में शुमार होता जा रहा है जहां जल संकट धीरे-धीरे बढ़ रहा है। बड़े किसानों के पास तो फिर भी संसाधन हैं मगर एक छोटे किसान के लिए हाल के वर्षों में भूजल निकालने की लागत बढ़ गयी है इसलिए यदि यह किसान उन फसलों की ओर मुड़ते जिनमें पानी की अधिक खपत नहीं होती तो उनकी लागत कम हो जाती। सरकार चाहती है कि गेहूं और धान से अलग फसलें उगाकर किसान विविधता लायें। इसके लिए सरकार उनको पांच साल तक पूरी मदद की गारंटी भी दे रही थी। देखा जाये तो सरकार का यह प्रस्ताव पंजाब के लिए आदर्श था, जहां भूजल स्तर चिंताजनक रूप से कम हो गया है।
आंकड़ों के जरिये समझायें तो आपको बता दें कि इस समय पंजाब के अधिकांश क्षेत्र में गेहूं और धान की खेती (2020-21 में 85%) होती है। पंजाब में कपास, दालों और मक्का के लिए पारिस्थितिकी तंत्र (बाजार, खरीदार, रसद, इनपुट आपूर्ति, आदि) उतना सशक्त नहीं है इसलिए सरकार किसानों को अपने समर्थन की गारंटी देना चाह रही है। अभी के संदर्भ में देखें तो मक्का 1.5%, कपास 3.2% और दालों की केवल 0.4% खेती हो रही है। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि किसान यदि इन फसलों की ओर बढ़ते हैं तो नये बाजार खुलेंगे। साथ ही किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए निजी क्षेत्र में भी बड़े खरीददार मिलेंगे।
देखा जाये तो केंद्र के प्रस्ताव को अस्वीकार करके, किसान संगठनों ने अपने अल्पकालिक हितों के लिए पंजाब के आम किसानों के दीर्घकालिक हितों को दांव पर लगा दिया है। गेहूं और धान से दूर जाने की अनुमति नहीं देकर ये यूनियनें न केवल किसानों को नए बाजार तलाशने से रोक रही हैं, बल्कि भूजल तनाव भी बढ़ा रही हैं। इस सबसे यकीनन किसानों के लिए इनपुट लागत बढ़ जाएगी। जहां तक बात इन कृषि यूनियनों की है तो हमको यह भी समझना होगा कि इनमें ज्यादातर मंडियों में काम करने वाले दलाल और आढ़ती शामिल हैं। यह लोग सिर्फ अपने भारी कमीशन को प्राथमिकता दे रहे हैं ना कि किसानों के हितों को। हम आपको बता दें कि एपीएमसी मंडियों में गेहूं और धान के व्यापार से दलाल और आढ़ती बड़ी रकम कमाते हैं। बहरहाल, कुल मिलाकर देखा जाये तो यह आंदोलन पंजाब के किसानों के हितों के लिए नहीं बल्कि बिचौलियों के कमीशन को सुरक्षित रखने के लिए चलाया जा रहा है।
-नीरज कुमार दुबे