By डॉ. रमेश ठाकुर | Dec 21, 2020
किसान आंदोलन के दुष्प्रभाव दिखने शुरू हो गए हैं। ऐसोचैम और सीआईआई की रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली में जारी किसानों के आंदोलन से अभी तक व्यापार को हजारों नहीं, बल्कि लाखों करोड़ रूपयों का नुकसान हो चुका है। आसार भी नहीं दिखते कि आंदोलन जल्द थम जाएगा। सरकार-किसान दोनों अपनी जिदों पर अड़े हैं, कोई भी पीछे हटने को राजी नहीं। व्यापार के लिहाज से देखें तो यह आंदोलन अर्थव्यवस्था को निश्चित रूप से बड़ा आघात पहुंचाएगा। अर्थशास्त्री एवं तर्कशास्त्री ए.के. मिश्रा से हमने आंदोलन से होने वाले नुकसान को विस्तार से समझने की कोशिश की। उनका मानना है कि आंदोलन खत्म होने के बाद समीक्षा होगी कि अर्थव्यवस्था को कितना बड़ा आघात पहुंचा है। इकोनॉमिस्ट ए.के. मिश्रा के साथ डॉ. रमेश ठाकुर ने की विस्तृत बातचीत। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश।
प्रश्न- इकॉनॉमी पर किस तरह का असर डाल सकता है ये आंदोलन?
उत्तर- असर अभी से दिखने लगा है। रोजाना कई करोड़ों का नुकसान हो रहा है। ये आंदोलन दूरगामी साबित होगा, विशेष कर भारतीय राजनीति और संवैधानिक परिवर्तन के क्षेत्र के लिए। आंदोलन भारत जैसे कृषि प्रधान देश में इस बात को इंगित करता है कि भारत केवल एक कृषि प्रधान देश ही नहीं, अपितु यह कि अर्थव्यवस्था और राजनीति भी कृषि सेक्टर पर टिकी है। देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था किस तरह से कृषि और कृषकों के कंधों पर निर्वहित करती है इस बात को सिद्ध करने के लिए यह आंदोलन हुक़ूमत को चेतावनी युक्त संदेश देगा। मैं अब इतना कहना चाहूँगा कि सरकार को किसानों को हल्के में लेना भारी पड़ेगा।
प्रश्न- जीडीपी में बड़ी भूमिका अदा करता है कृषि क्षेत्र, फिर सरकार की इतनी बेरुखी क्यों?
उत्तर- अव्वल, कारण है उत्पादन की अधिकता और कृषि उपज में आत्मनिर्भरता। सरकार के खाद्यान्नों में कभी भी कृषि उत्पादों की कमी नहीं रही। बाजार की मांग के हिसाब से किसान अपनी फ़सल उगाते हैं। बावजूद इसके उन्हें गंभीरता से नही लिया जाता। दूसरा, प्रमुख कारण मूल्य प्रदत्तता और इसके अवयवों का कृषि क्षेत्र में अभी भी कमजोर भूमिका निभाना, यानी बाजार और मार्केट डायनामिक्स। यह देखा गया है कि अभी भी कृषि क्षेत्र में डिमांड और सप्लाई में कोई संतुलन स्थापित नहीं हो पाया है जिसके कारण कृषि क्षेत्र में अभी भी इकोनॉमीस ऑफ स्केल प्रभावशाली तरीके से स्थापित नहीं है। हां, बिचैलियों के केस में ये दोनों सिद्धांत जरूर लागू हो रहे हैं जिससे उनको तो भरपूर फायदा हो जाता है, पर उत्पादक यानी किसान वंचित रह जाता है।
प्रश्न- केंद्र की उदासीनता को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर- देखिए, किसानों की वर्तमान मांगों की पृष्ठभूमि कोई नई नहीं है, बल्कि सदियों पुराना कृषकों के मन में व्याप्त भय है जो जमींदारों, शासक या संपन्न वर्ग द्वारा उनके लगातार दोहन हुआ। किसानों की लगातर उपेक्षा और समाधान न निकालने के कारण आज भी वही भय और अविश्वास है कि कैसे किसानों की मेहनत का उचित मूल्य उन्हें मिले? कृषक वर्ग वर्षों से यह देखता आया है कि दूसरे क्षेत्रों को चिन्हित स्रोतों से पर्याप्त सहायता मिलती रहती है। पर अन्नदाताओं को उनके परिश्रम का उचित मूल्य भी नहीं मिलता। दरअसल, जिस दिन किसानों को ऐसी सुविधाएँ दे दी जाएंगी कि उनके अनाज का उचित मूल्य दूसरे क्षेत्रों की तरह ही व्यवहारिक होगा, समस्या का निदान स्वतः हो जाएगा।
प्रश्न- आंदोलन से फैले जनाक्रोश के दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं?
उत्तर- न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था, बल्कि भारतीय राजनीति भी प्रभावित होगी। राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में उचित समाधान न मिलने पर सत्तापक्ष को किसानों का कोप भाजन बनना पड़ता है, इससे पहले के कई उदाहरण हमारे सामने हैं। किसान वर्तमान, भविष्य और चुनावों के लिए किसी भी सरकार के लिए चुनौती होते हैं। अर्थव्यवस्था के लिहाज से आंदोलन के परिणाम ज्यादा सुखद नहीं होंगे। कृषकों का रोष और उनके प्रति हुकूमतों की उदासीनता सीधे तौर पर जीडीपी पर गहरा असर डालती है।
प्रश्न- नए कृषि क़ानूनों को आप किस रूप में देखते हैं?
उत्तर- मात्र एक सकारात्मक और ठोस पहल की तरह। संकल्पना स्वरूप यह बिल काफी प्रभावशाली हैं, पर इसका धरातल पर क्रियान्वयन अपने आप में एक चुनौती है। जैसा कि उपरोक्त वर्णित है कि कृषि क्षेत्र को प्रभावित करने वाले सारे घटकों में एक सामंजस्य बना पाना दुर्लभ कार्य है और बिना इसके बाजार और उत्पादन में उचित सामंजस्य नहीं बन पाएगा। अगर क्रियान्वयन प्रभावी तरीके से हुआ, तो भविष्य में अनेक सुधारों के साथ यह बिल कृषि क्षेत्र को जरूर आगे ले जाएगा और भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा योगदान देने वाला कृषि क्षेत्र और कृषकों की संपन्नता भी उसी अनुपात में निश्चय ही बढ़ेगी जो कृषकों के रोष को शांत करने में सक्षम होगा।
प्रश्न- आंदोलन से सबसे ज्यादा प्रभावित कौन-सा सेक्टर हो रहा है?
उत्तर- सबसे ज्यादा स्वयं कृषि क्षेत्र और उससे संबंधित क्षेत्र हो रहे हैं। कृषि से जुड़े दूसरे क्षेत्र जैसे दूध उत्पादन इत्यादि भी प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे उद्योग जहां पर कृषि उत्पादों का प्रयोग कच्चे माल की तरह होता है, जैसे चीनी उद्योग चिप्स एवं खाने पीने की वह वस्तुएँ जो एक आम आदमी रोज दुकानों से खरीदते हैं सभी चौपट हो रहे हैं। रास्ते बंद होने के कारण श्रमशक्ति भी धराशायी है। हम सरकारों और नेताओं का कितना भी विरोध क्यों न करें, लेकिन एक तल्ख सच्चाई ये भी है कि देश को चलाने के लिए निर्बाध सरकारी व्यवस्था का सुचारू रूप से चलना अतिजरूरी होता है। सरकार और राजनीति प्रमुख घटकों में से एक होते हैं। लेकिन बिना कृषि के कल्याण भी नहीं।
-जैसा अर्थशास्त्री ए.के. मिश्रा ने डॉ. रमेश ठाकुर से कहा।