'अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं होने के कारण बड़े स्तर पर इसका दुरुपयोग हो रहा है

By अश्विनी उपाध्याय | Jul 25, 2022

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 30 (1) भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान का निर्माण करने और इसे संचालित करने का अधिकार देता है और संविधान का अनुच्छेद 30 (2) कहता है कि केंद्र और राज्य सरकार शिक्षण संस्थानों को मदद देते समय भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा बनाए गए शिक्षण संस्थान के साथ कोई भेदभाव नहीं करेगी। लेकिन प्रश्न यह है कि भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक कौन हैं? विश्व में 6000 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं तो क्या भारत सरकार 6000 भाषाई अल्पसंख्यक घोषित कर सकती है? इसी प्रकार विश्व में 1000 से ज्यादा मत पंथ संप्रदाय हैं तो क्या भारत सरकार विश्व के सभी संप्रदायों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे सकती है? और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अल्पसंख्यकों को प्राइमरी स्कूल खोलने का अधिकार मिलना चाहिए या इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, लॉ कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलने का अधिकार भी मिलना चाहिए?


भारतीय संविधान भारतीयों के लिए बना है न कि विदेशियों के लिए और भारतीय संविधान भारतीय भाषा, भारतीय रीति-रिवाज, भारतीय प्रथा, भारतीय वेशभूषा, भारतीय संस्कार, भारतीय संस्कृति, भारतीय शैली, भारतीय परंपरा और भारतीय संप्रदाय को संरक्षित करने का अधिकार देता है न कि विदेशी भाषा, विदेशी रीति-रिवाज, विदेशी प्रथा, विदेशी वेशभूषा, विदेशी संस्कार, विदेशी संस्कृति, विदेशी शैली, विदेशी परंपरा और विदेशी मजहब को। आर्टिकल 30 में भाषा और संप्रदाय आधारित अल्पसंख्यक का जिक्र है लेकिन वह विदेशी भाषा और विदेशी संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि भारतीय भाषा और भारतीय संप्रदाय को संरक्षित करने के लिए है अर्थात उत्तर प्रदेश में तमिल, मलयालम, बंगाली, गुजराती, असमी, मराठी बोलने वालों को भाषाई अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है लेकिन फ्रेंच, जर्मन, जापानी या चाइनीज बोलने वालों को नहीं। यही पैमाना संप्रदाय आधारित अल्पसंख्यक पर भी लागू होता है अर्थात जैन, बौद्ध, सिख, आर्य समाज जैसे भारत में शुरू हुए पंथ मानने वालों को आर्टिकल 30 के अंतर्गत धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है लेकिन यहूदी, पारसी, ईसाई, बहाई और इस्लाम जैसे विदेशी मत पंथ संप्रदाय मानने वालों को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं मिल सकता है।

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संविधान दो शब्दों 'सम और विधान' से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है समान विधान, जबकि 'कॉन्स्टिट्यूशन' का अर्थ है 'विधान'। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में 'धर्म' का कोई समानार्थी शब्द नहीं है इसलिए 'रिलिजन' का उपयोग किया जाता है उसी प्रकार 'संविधान' का कोई समानार्थी शब्द नहीं है इसलिए कॉन्स्टिट्यूशन का उपयोग होता है। जिस प्रकार धर्म और रिलिजन का अर्थ अलग है उसी प्रकार संविधान और कॉन्स्टिट्यूशन का अर्थ भी सर्वथा भिन्न है। भारतीय संविधान का भावार्थ को आर्टिकल 14, 15, 16, 19, 21, 25, 26, 27 में स्पष्ट है। आर्टिकल 14 कहता है कि सभी भारतीय एक समान हैं और सबको कानून का समान संरक्षण प्राप्त है। आर्टिकल 15 कहता है कि जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र, जन्मस्थान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा और आर्टिकल 16 कहता है कि हिंदू हो या मुसलमान, नौकरियों में सबको समान अवसर मिलेगा। आर्टिकल 19 सभी नागरिकों को देश में कहीं पर भी जाने, रहने, बसने, रोजगार शुरू करने का अधिकार देता है। संविधान को यथारूप पढ़ने से स्पष्ट है कि समता, समानता, समरसता, समान अवसर तथा समान अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा है। कुछ लोग आर्टिकल 25-30 में प्रदत्त अधिकार की दुहाई देकर समाज को गुमराह कर रहे हैं जबकि आर्टिकल 25 की शुरुआत ही होती है- ‘सब्जेक्ट टू पब्लिक ऑर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी’ अर्थात अच्छी रीति-प्रथा-परंपरा को पालन करने का अधिकार है लेकिन कुप्रथा, कुरीति, कालाजादू, अंधविश्वास, पाखंड और भेदभाव को आर्टिकल 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार अन्य जितने भी मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व हैं, वे सब समता और समरसता मूलक समाज की स्थापना करने का निर्देश देते हैं। मजहब के आधार पर आयोग और मंत्रालय का तो संविधान में कहीं जिक्र भी नहीं है।


अनुच्छेद 29-30 में 'अल्पसंख्यक' शब्द का जिक्र तो है लेकिन अल्पसंख्यक को परिभाषित नहीं किया गया है। संविधान सभा की बहस पढ़ने से स्पष्ट है कि अनुच्छेद 29 सभी भारतीयों को भारतीय भाषा, भारतीय रीति-रिवाज, भारतीय प्रथा, भारतीय वेश-भूषा, भारतीय संस्कार, भारतीय संस्कृति, भारतीय संप्रदाय, भारतीय शैली और भारतीय परंपरा को संरक्षित करने का अधिकार देता है न कि विदेशी भाषा, विदेशी रीति-रिवाज, विदेशी प्रथा, विदेशी वेश-भूषा, विदेशी संस्कार, विदेशी संस्कृति, विदेशी शैली, विदेशी परंपरा और विदेशी मजहब को। केंद्र सरकार ने अब तक 125 बार संविधान में संशोधन किया और 5 बार तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी पलट दिया गया लेकिन भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक को परिभाषित करने और उसे जिलेवार निर्धारित करने के लिए गाइडलाइन आजतक नहीं बनायी। अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय की आवश्यकता तो पाकिस्तान-बांग्लादेश जैसे देशों में है जहां शरिया लागू है और गैर मुस्लिमों को मुस्लिमों के बराबर अधिकार नहीं है और उन पर अत्यधिक अत्याचार हो रहा है और उनकी संख्या लगातार घट रही है लेकिन भारत जैसे सेकुलर देश में जहां प्रत्येक मौलिक अधिकार सबके लिए एक समान है और जहां किसी भी प्रकार का भेदभाव संभव नहीं है वहां अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय बनाना और विदेशी संप्रदायों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देना असंवैधानिक है।

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अंग्रेजों ने डिवाइड एंड रूल नीति के अंतर्गत अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विभाजन शुरू किया। सन 1899 में तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने तो यह भी कह दिया था कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं और सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, इसीलिए संविधान सभा में ‘अल्पसंख्यक’ मुद्दे पर जोरदार बहस हुई थी। 26 मई 1949 को संविधान सभा में आरक्षण पर बहस के दौरान अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने के प्रश्न पर आम राय थी लेकिन धार्मिक आधार पर आरक्षण देने पर अत्यधिक विरोध था। पंडित नेहरू ने भी कहा था कि पंथ आस्था मजहब आधारित आरक्षण गलत है लेकिन तब तक अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान हो चुका था। संविधान सभा के सदस्य तजम्मुल हुसैन ने जोर देकर कहा था कि "हम अल्पसंख्यक नहीं हैं, अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों की खोज है। अंग्रेज यहां से चले गए, इसलिए इस शब्द को डिक्शनरी से हटा दीजिए। अब हिंदुस्तान में कोई अल्पसंख्यक नहीं है, हम सब भारतीय हैं"। तजम्मुल हुसैन के भाषण पर संविधान सभा में खूब तालियां बजी थीं।


अनुच्छेद 29-30 में भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक के लिए विशेष प्रावधान हैं लेकिन अल्पसंख्यक परिभाषित नहीं हैं। संविधान निर्माताओं को अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के गठन की जरूरत नहीं महसूस हुई थी लेकिन राजनीति को इसकी जरूरत थी, सन 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम बनाकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बनाया गया। इस एक्ट में भी अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं तय की गई। धारा 2(सी) केंद्र सरकार को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का असीमित अधिकार देती है। किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने की विधि बहुत जटिल है और यह काम केवल संसद ही कर सकती है (अनुच्छेद 341-342) लेकिन किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का काम सरकारी बाबू भी कर सकता है। इसी अधिकार द्वारा केंद्र सरकार ने 23 अक्टूबर 1993 को एक अधिसूचना के जरिये पांच समुदायों (मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी) को अल्पसंख्यक घोषित किया। 2006 में अलग से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय शुरू किया गया और 2014 में तत्कालीन संप्रग सरकार ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया।


सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उस समुदाय को अल्पसंख्यक कह सकते हैं जो भारत के लगभग 200 जिलों में पार्षद-प्रधान का भविष्य तय करता हो, लगभग 200 लोकसभा क्षेत्रों में साँसद का भविष्य तय करता हो और लगभग 1000 विधान सभा क्षेत्रों में हार जीत का निर्धारण करता हो और वह भारतीय संप्रदाय नहीं बल्कि विदेशी संप्रदाय हो ?

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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कहा था, ‘यह सुनिश्चित करने के लिए कि अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान विकास में बराबरी से फायदा ले सकें, हमें मौलिक योजना बनानी पड़ेगी। संसाधनों पर उनका पहला हक होना चाहिए’। मनमोहन सिंह ने तो ‘अल्पसंख्यक’ का मतलब ही मुसलमान मान लिया था लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी देश में अल्पसंख्यक कौन है यह तय नहीं हो पाया है। ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा नहीं होने के कारण बड़े स्तर पर इसका दुरुपयोग हो रहा है। कश्मीर में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं लेकिन अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सारी सहूलियतें इन्हें मिलती हैं और हिंदू समुदाय जो कि वास्तविक अल्पसंख्यक है, उन सुविधाओं से महरूम है। यही स्थिति लद्दाख, लक्षद्वीप, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में है।


2002 में टीएमए पई केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा था कि भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए न कि राष्ट्रीय स्तर पर लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आज तक लागू नहीं किया गया। इसका दुष्प्रभाव यह है कि कई राज्यों में जो बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने कहा कि धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक -बहुसंख्यक की अवधारणा देश की एकता-अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है इसलिए जितना जल्दी हो सके अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का विभाजन बंद होना चाहिए।


संविधान में सभी नागरिकों को बराबर अधिकार मिला हुआ है इसलिए अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर समाज का विभाजन बंद किया जाए अन्यथा दूसरा उपाय यह है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा और जिलेवार अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा निर्देश तय हों और यह सुनिश्चित किया जाए कि केवल उसी समुदाय को संविधान के अनुच्छेद 29-30 का संरक्षण मिले जो वास्तव में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावहीन हो और संख्या में नगण्य हों।


-अश्विनी उपाध्याय

(लेखक सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता हैं और भारत के पीआईएल मैन के नाम से जाने जाते हैं)

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