राष्ट्रपति पद पर श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के पदासीन होने से देश के उस वर्ग में व्यक्तिगत हर्ष व्याप्त हुआ है जो अभी तक उपेक्षित, असंरक्षित और विदेशी आक्रमणों का शिकार होता आया है। हम सबको जो जीवन में जनजातीय क्षेत्रों में काम करते रहे, उनके मध्य एकरस राष्ट्र के भाव को फैलते हुए उनके आर्थिक सामाजिक उन्नयन में जुटे रहे वे जानते हैं जनजातीय समाज को किन खतरों, घृणा युक्त एकाकीपन और विदेशी धन से धर्मान्तरण के हमले झेलने पड़े। द्रौपद मुर्मू उस दर्द और विषाद पर सत्य और धर्म की विजय का प्रतीक और हर्ष का कारण बनी हैं।
ग्यारह प्रतिशत के लगभग हमारा जनजातीय समाज है- और देश में 98 प्रतिशत आतंकवाद, विद्रोह और विदेशी धन का खेल इसी क्षेत्र में होता है। देश के स्कूलों में कभी भी जनजातीय वीरों की महँ गाथाओं को पढ़ाया नहीं गया, जाननजातीय वीर विशेषांक 1981 में सम्पादित किया गया था और देश के विभिन्न भागों में जाकर उनकी कथाएं एकत्र की थीं, चक्र बिश्रोई से लेकर बिरसा मुंडा और केरल के परसी राजा से लेकर अल्लुरी सीताराम राजू, नागा रानी गाईदिन्लयू, खासी योद्धा यू तीरथ सिंग, सिद्धो कान्हो चाँद और भैरो, मानगढ़ की पहाड़ी के वीर भील योद्धा जिन्होंने गोविन्द गुरु के नेतृत्व में अपनी जीवनाहुति दी (17 नवम्बर 1913) जैसी सहस्त्रों कथाएं हमारे देश में बिखरी पड़ीं हैं। लेकिन सेकुलर वामपंथी इतिहासकारों ने उनको कभी देश के सामने देशभक्त प्रतापी पराक्रमी मेधावी समाज के नाते प्रस्तुत नहीं होने दिया। प्रथम बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य गुरुजी (माधव सदाशिव गोलवलकर) ने 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की कल्पना की और संगठन खड़ा कर जनजातीय समाज के मध्य देश का सबसे बड़ा अर्थी सामाजिक सांस्कृतिक विकास का उद्यम प्रारम्भ किया। उन्होंने देश के अन्य भागों में रह रहे नागरिकों को अपना सर्वस्व जनजातीय समाज के लिए अर्पित करने का आह्वान किया और आज हज़ारों एम् ए, एम् टेक, एम् बीबीएस, एम् डी, इंजीनियर प्रचारक अंडमान से लेकर तवांग और ओखा से लद्दाख तक जनजातीय समाज में आर्थिक शैक्षिक विकास का कार्य कर रहे हैं।
आज गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार जिन 42 संगठनों को आतंकवाद और विद्रोही गतिविधियों के लिए प्रतिबंधित किया गया हैं उनमें से 35 केवल जनजातीय क्षेत्रों में सक्रिय हैं। नागालैंड से अरुणाचल, मणिपुर से असम और छत्तीसगढ़, आंध्र से बिहार और बंगाल, राजस्थान से केरल के नीलगिरि क्षेत्रों में जो माओवादी, नक्सल-अति-कम्युनिस्ट संगठन, मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (नाम से कुछ ध्यान आया ?) जमात और इस्लामिक उग्रवादी संगठन- यह सब जनजातीय क्षेत्रों को अपना शिकार बनाना अधिक सरल और सुविधाजनक मानते हैं। विदेशी धन और चर्च के असीम निवेश से अधिकांश जनजातीय क्षेत्रों में धर्मान्तरण तीव्र गति से हुआ है। अंग्रेजों के समय यह कार्य शुरू हुआ होगा लेकिन सेक्युलर गणतंत्र में जनजातीय संस्कृति और धरम का अधिकतम ह्रास हुआ है। एक उदहारण अरुणाचल प्रदेश का ही है। श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कभी मदर टेरेसा को अरुणाचल आने की अनुमति नहीं दी। लेकिन बाद में ईसाइयत का कांग्रेस पर इतना असर हुआ कि पूरा अरुणाचल ईसाई धर्मांतरण का शिकार हो गया। अनेक गाँव ईसाई हो गए, अनेक मंत्री और गाँवों के प्रमुख धर्मान्तरित हो गए, सीमा तक चर्च पहुँच गए। अगला मुख्यमंत्री ईसाई होगा यह स्पष्ट घोषणा की गयी। अरुणाचल प्रदेश में कुछ वर्ष पहले स्थानीय मूल जनजातीय आस्था की रक्षा के लिए ''इंडीजीनियस फेथ" विभाग खोला गया, ईसाई प्रचारकों ने इसका इतना तीव्र विरोध किया कि सरकार को इसका नाम बदलना पड़ा और अब इसे सिर्फ जनजातीय विभाग या इंडीजीनियस डिपार्टमेंट कहते हैं- फेथ शब्द से ईसाई धर्मान्तरित लाभ नहीं ले पाते थे लेकिन फेथ हटाने से ईसाई अल्पसंख्यक होने का और जनजातीय होने से एसटी वर्ग के फायदे भी उनको मिल जाते हैं। हिन्दू होना, जनजातीय होना घाटे का विषय है- अहिन्दु होना दुगुना लाभ देता है- यह कुव्यवस्था स्वतंत्र भारत की सामाजिक समरसता नीतियों पर एक प्रश्नचिन्ह हैं।
जनजातीय समाज का विकास भारत के समक्ष सर्वाधिक बड़ी चुनौती है। कई प्रदेश जनजातीय क्षेत्रों में व्याप्त आतंकवाद के कारण वामपंथी आतंकवाद प्रभावित घोषित किये गए हैं। देश के शहरी नागरिकों को इस बात का अहसास भी शायद काम होगा कि द्रौपदी मुर्मू जी और उनके सहजातीय जनजातीय समाज के करोड़ों लोग भारत की सीमाओं के प्रथम रखवाले हैं। वे केवल जनजातीय वीर नागरिक हैं जो लद्दाख, कश्मीर, जम्मू, हिमाचल, उत्तराखंड, जैसलमेर, सिक्किम, बिहार, नागालैंड, अरुणाचल से लेकर लक्षद्वीप और अंडमान तक, भारत की प्रथम सुरक्षा पंक्ति निर्मित करते हैं। कारगिल की घुसपैठ भी वहां के जनजातीय गडरिये ने बतायी थी, उत्तराखंड हिमाचल के गद्दी, भूतिए, टोलिया, मर्तोलिया से लेकर सिक्किम के बौद्ध, अरुणाचल के इदु मिश्मी, यही हमारे प्रथम रक्षक हैं, सेना बाद में आती है।
भगवन जगन्नाथ की भक्त, सामाजिक समरसता की प्रतीक द्रौपदी मुर्मू जी पर देश के इतने बड़ी समाज की आशाओं, अपेक्षाओं और सपनों का बोझ है। बोझ नहीं बल्कि जिम्मेदारी है। उनका विनम्र जीवन, सामान्य गृहस्थी, अति सामान्य पृष्ठ्भूमि, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा में रचे पगे होना, इन सबकी परीक्षा का काल अब प्रारम्भ होता है। प्रशंसा तो पद की होती है, बड़े पद पर बैठने वाले में सबको सिर्फ गुण ही दिखते हैं। परन्तु आने वाले समय में कौन अब्दुल कलाम और राजेंद्र प्रसाद बनते हैं यह काल के गर्भ में छिपा होता है और पदासीन व्यक्ति की चैतन्य धारा की शक्ति ही बता पाती है। द्रौपदी मुर्मू ने देश में एक असामान्य हर्ष और आशा का संचार किया है। यह नरेंद्र मोदी की आंतरिक आध्यात्मिक गहराई का सुपरिणाम है। नरेंद्र भाई ने बचपन से जिस गरीबी और उपेक्षा का दर्द सहा है उसे वह भूले नहीं हैं, द्रौपदी मुर्मू जी का चयन और उन पर देश के विश्वास को टिकना यह मोदी युग का एक क्रन्तिकारी कदम है। यह सफल हो यही महादेव से प्रार्थना है।
-तरुण विजय
(लेखक पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में एनएमए के चेयरमैन हैं)