दिवाली का दिवालियापन (व्यंग्य)

By डॉ मुकेश असीमित | Oct 28, 2024

दिवाली आ रही है। वैसे दिवाली का क्रेज़ बच्चों में था। अब उन्हें पहनने के लिए नए कपड़े, फोड़ने के लिए पटाखे, और चलाने के लिए फुलझड़ियां चाहिए। खाने के लिए दूध, मावे और चीनी की मिठाई चाहिए। अब तो दिवाली आते ही ग्रीन ट्रिब्यूनल वालों का रोना शुरू हो जाता है। AQI इंडेक्स एकदम सेंसेक्स की तरह उछलने लगता है। सुप्रीम कोर्ट हरकत में आ जाता है। पटाखे और फुलझड़ियां बेचारे गोदामों में घुटन में जीने को मजबूर हो रहे हैं। उधर आदमी AQI के बढ़ने की सूचना के साथ ही घुटन महसूस करने लगता है। प्रदूषण का धुआँ ठंडे बस्ते में बैठ जाता है। अब दिवाली के एक महीने पहले और बाद तक जो भी प्रदूषण होगा, उसमें दोषारोपण पराली पर नहीं, वह जले या न जले, दोषारोपण तो पटाखों पर ही होगा। आम आदमी को टैक्स स्लैब में छूट नहीं मिलेगी, लेकिन बाजार में छूटों का पूरा पंडाल सजाया गया है। आप बिना टैक्स की छूट के भी इन छूटों का लाभ लेकर दिखाइए। दिवाली पर छूटों की बौछार चारों तरफ गले फाड़-फाड़ कर चिल्ला रही है। कोई आपके घर में फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, मोबाइल, जूसर, मिक्सर सब बदलना चाहता है। दिवाली आएगी, तब आएगी, दिवाली की आड़ में दिवालियापन की दरकार बहुत पहले आ जाती है।

 

ऑफिसों में फाइल दबाए कर्मचारी राहत महसूस करते हैं। अब "दिवाली के बाद" का बहाना सरपट दौड़ेगा - "अब चक्कर लगाइए, साहब छुट्टी पर हैं...यार, आप दिवाली बाद आइए...इतनी सारी पेंडिंग लीव पड़ी है, साहब भी क्या करें...लेप्स हो जाएँगी। एनकैश करने साहब छुट्टियाँ बिताने बाहर गए हैं। छोटे बाबूजी को भी बोनस मिला है, तो वे भी परिवार के साथ निकल गए हैं। अब आप भी दिवाली मनाइए इत्मीनान से। दिवाली बाद आना।

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लेकिन बाबूजी, दिवाली मनाएंगे कैसे अंधेरे में? घर का कनेक्शन कट कर रखा है। बिजली के बिल में गड़बड़ी थी, सुधार करवाने के लिए फाइल लगवा रखी है। आज दो महीने हो गए।"


"लेकिन क्या करें साहब भी, उनकी भी तो दिवाली है, भाई...। सबको अपनी-अपनी दिवाली मनाने की पड़ी है।"


मजदूर को मजदूरी दिवाली के बाद मिलेगी। क्या करें सेठ जी, पाँच दिन फैक्ट्री बंद रहेगी... उसकी भरपाई भी तो करनी है। फिर दिवाली सामने है, भला लक्ष्मी जी को ऐसे ही दूसरों के हाथों में कैसे जाने दें? लक्ष्मी जी को हर किसी ऐरे-गैरे नत्थू के हाथ में कैसे पकड़ा दें, बताइए?"


टीवी वाले और अखबार वाले नकली का रोना रोने शुरू कर देते हैं। नकली मावे की धर पकड़ शुरू हो जाती है। "कहाँ है मावा...मावा कहीं नजर नहीं आता...बस अधिकारी की भी दिवाली अच्छी-खासी मनाने का ध्यान रखते हैं सब मावा बेचने वाले। फूड इंस्पेक्टर की दिवाली तो नकली मावा पकड़ने से मनती है।" अरे, जब देश में नकली नेता चल सकते हैं, नकली वादे चल सकते हैं, तो नकली मावा क्यों नहीं? नकली मावे की धरोहर में कितनों का रोजगार है। देखो, तब न्यूज़ वालों को न्यूज़ मिलती है। रिकॉर्ड ब्रेकिंग न्यूज़, डिबेट होती है। नकली के साथ असली माल रखा जाता है...असली माल की कीमत एकदम बढ़ जाती है। नकली आम जनता के लिए और असली नेता व अधिकारियों के लिए...इस दिवाली सबको कुछ न कुछ देकर जाएगी...गरीब को बीमारी, तो अमीर की जेब भारी।

 

नकली होगा तभी तो असली की पहचान होगी। लोग असली ढूंढ़ने निकलेंगे, दीया-सलाई लेकर। असली के चार गुना दाम देंगे। सोहन पापड़ी भी इतना कुछ झेलने के बावजूद भाव खा रही है। क्यों? क्योंकि उसका मुकाबला नकली मावे की मिठाई से है। क्या करें, गर्ग साहब! लाना तो हम देसी घी की शुद्ध मिठाई ही चाहते थे इस बार, लेकिन क्या करें? आपको तो पता ही है...देसी घी के नाम पर क्या गड़बड़झाला हो रहा है...इसलिए सबसे सुरक्षित है सोहन पापड़ी। वरना सोहन पापड़ी की हालत तो आप जानते ही हैं। सरकारी अस्पतालों से भी बदतर है। घर में एक बार आ जाए तो ऐसे पड़े रहते हैं जैसे सरकारी अस्पताल के पुराने बिस्तर। सोहन पापड़ी हमें बताती है कि जो आज तुम्हारे पास है, कल किसी और के पास होगा। परसों किसी और के पास हो सकता है। घूम-घूमकर तुम्हारे पास हो आ जाए। यही जीवन चक्र है। दिवाली मुझे भी मनानी है, कैसे मनाऊँ? कई लोगों को उधार दे रखा है। मांगने जाता हूँ तो उनकी शक्ल मुझे घूरने लगती है। कहते हैं, "तुम्हें औकात नहीं है यार, दिवाली सर पर है। देखो, दिवाली के बाद यार, आप तो जानते हैं, लक्ष्मी दीवाली पर बाहर नहीं जाने देती।"

 

मैंने कहा, "भाई, हम भी दिवाली मना लेते, यार अपना ही तो मांग रहे हैं। तुम्हारे भाग्य की लक्ष्मी थोड़े ही मांग रहे हैं।"

 

दिवाली का असली मजा तो दिवाली के बाद ही है। डंप माल सस्ते में मिल जाता है। दिवाली की बची-खुची मिठाई सस्ते में मिल जाती है। जले हुए पटाखे और फूलझड़ियाँ भी अगर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी हो, तो दिवाली के बाद ही फोड़ोगे ना? अब रोज-रोज दिवाली नहीं होती। फिर एक दिन आँसुओं का रोना - जब जेब में पैसा हो तब मना लो दिवाली, जेब खाली तो काहे की दिवाली?


- डॉ मुकेश असीमित

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