Gyan Ganga: कौए से कोयल बनने की चर्चा मानव वृति में बदलाव के संदर्भ में है

By सुखी भारती | Nov 14, 2023

गोस्वामी तुलसीदास जी संतों की महिमा में एक से एक बढ़कर अलंकृत चौपाईयां रचते जा रहे हैं। वे कहते हैं-


‘मुद मंगलमयसंत समाजू।

जो जग जंगम तीरथराजू।।

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।

सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।।’


संत कोई ऐसे ही निआसरे थोड़े न होते हैं, जो हम कहें, कि वे तो आज यहाँ हैं, और कल वहाँ। वास्तविक कहें तो संत साक्षात चलते फिरते तीर्थराज प्रयाग होते हैं। वे संसार को केवल सुख नहीं देते, अपितु आनंद प्रदान करते हैं। आप ने गंगा जी के दर्शन तो किए ही होंगे। अगर नहीं किए, तो निराश होने की आवश्यकता बिल्कुल भी नहीं है। क्योंकि संत समाज जहाँ भी विद्यमान है, वहाँ गंगा जी एवं ब्रह्मविचार का विचार सरस्वती जी तो स्वाभाविक रूप से ही हैं।

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यह सत्य प्रकट करके, साधारण जन मानस पर गोस्वामी जी ने कितना उपकार किया है। क्योंकि आज भी गृहस्थी की उलझनों में आम जन प्रयाग राज इत्यादि तीर्थों से वंचित है। क्योंकि वह अपनी सांसारिक लाचारियों के चलते, स्वयं तो ऐसे महान तीर्थों पर दर्शन हेतु जा नहीं सकता और साथ में यह भी विवशता है कि तीर्थ भी तो उसके पास चलकर नहीं आ सकते। लेकिन जब गोस्वामी जी ने संतों रूपी तीर्थराज प्रगाग का रहस्योद्घाटन किया है, तब से तो आनंद ही आनंद है। कारण कि हमारे संत समाज रूपी प्रयाग राज तीर्थ स्वयं ही चलकर भगवत पीपासुओं के पास पहुँच जाता है।


संतों रूपी तीर्थराज की एक विशेषता तो हमें शायद पता ही नहीं थी। वह यह कि बाहर के प्रयाग राज में तो हमें फिर भी संभावना है, कि शायद उस स्नान का फल थोड़ी देरी में मिले। लेकिन संतों रूपी प्रयाग राज का फल तो हमें तत्काल फल देने वाला है-


‘मज्जन फल पेखिअ ततकाला।

काक होहिं पिक बकउ मराला।

सुनि आचरज करै जनि कोई।

सतसंगति महिमा नहिं गोई।।’


फल भी ऐसा कि उस पर साधारण व्यक्ति को विश्वास करना ही कठिन हो। जी हाँ! हम सत्य भाषण कर रहे हैं। एक बात बताइये। क्या आपने कभी कौए को कोयल बनते देखा है? अथवा किसी बगले को हंस बनते देखा है? आप कहेंगे ऐसा भी कहीं होता है? कारण कि परमात्मा ने जिसे जिस योनि में रखा है, वह जीव उसी योनि में तो रहेगा। बाहरी रूप से तो आपका तर्क निश्चित ही ठीक है, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से यह तर्क उचित नहीं है।


कारण यह है, कि गोस्वामी जी किसी जीव के दैहिक परिवर्तन की तो बात भी नहीं कर रहे। वे तो उस जीव में प्रगट हुए चमत्कारिक दैविक बदलावों की बात कर रहे हैं।


जैसे अगर आप बगुले और हंस में तुलना करेंगे, तो क्या अंतर पाते हैं? दिखने में दोनों ही उजले हैं, यह तो ठीक है, लेकिन दोनों के आचार विहार में कितना अंतर है, यह तो आप जानते ही हैं। बगुला मछलियाँ व अभक्ष भोजन खाता है, जबकि हंस केवल मोती खाता है। बगुला पानी के मैले स्रोत पर, व कहीं भी मिल जाता है। लेकिन हंस केवल मान सरोवर पर ही मिलता है। गोस्वामी जी ने जो बगुले का हंस में परिवर्तित होने की बात कही है, वह वास्तव में मानव वृतियों में बदलाव के संदर्भ में ही कही गई है। जो भी मानव अभक्ष भोजन ग्रहण करते हैं। वह बगुले की भाँति कपटी हैं, ऐसे मानव हंस की भाँति निष्कपट व सतोगुणी भोजन के ग्रहणकर्ता बन जाते हैं।


ठीक ऐसे ही गोस्वामी जी द्वारा कौए से कोयल बनने की जो चर्चा की है, वह भी मानव वृति में बदलाव के संदर्भ में है। आप देखेंगे कि कौवे की भाषा बड़ी कर्कश व कानों को पीड़ा देने वाली होती है। जिसे किसी का भी मन प्रसन्न नहीं होता। कौवे का आहार भी बड़ा निंदनीय माना जाता है। वह सदा मरे व सड़े जीवों पर ही मोहित रहता है। ऐसे में तो वह और भी तिरस्कृत व निंदा का पात्र है।


लेकिन इसके विपरीत कोयल वैसी नहीं है। आप सबने कोयल की वाणी तो सुनी ही होगी। कोयल का स्वर अतिअंत मधुर होता है। वह बोलती है, तो लगता है, कि उसे बस सुनते ही जायें। वह बोलती है, तो उसे हमारी दृष्टि चारों और ढूंढ़ती रहती है। जबिक कौवा बोले, तो उसे हम पत्थर मार कर उड़ा देते हैं। हम मानवों में भी यही अंतर आ जाता है, जब हमें संतों रूपी प्रयाग राज मिलता है। हम कितने भी कौवे की भाँति तिरस्कृत भाषा के स्वामी क्यों न हों, लेकिन हम क्षण भर में कोयल सी शहद सी वाणी को धारण करने वाले हो जाते हैं।


समाज में ऐसा परिवर्तन अगर संतों के पावन संग से हो रहा है, तो समाज को और क्या चाहिए? आज बड़े-बड़े देश, अनेक प्रयास करके भी समाज में परिवर्तन नहीं ला पा रहे हैं, तो निश्चित ही उन्हें अपने प्रयासों की सार्थकता पर, चिंतन करने की आवश्यक्ता है। साथ में हमारे सनातन धर्म में वर्णित संतों के प्रयाग राज रूपी साधन को अपना कर, वे भी निश्चित ही पूरी धरा धाम को स्वर्ग-सा सुंदर बना सकते हैं। (क्रमशः)---जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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