संक्रमण की इच्छाएं (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Jun 09, 2022

इच्छाओं का बढ़ते जाना संक्रमण है। छोटी इच्छा पूरी होती है तो बड़ी को सिर उठाने को प्रेरित कर देती है। हम सभी होश संभालने से होश चले जाने तक, इच्छाओं को साथ लेकर ज़िंदगी के संघर्ष से जूझते रहते हैं। यहां तक कि व्यक्ति के दुनिया से जाने के बाद भी परिवार वाले कहते सुने जाते हैं कि पिछले दिनों कह रहे थे कि एक बार फिर वहां जाना चाहता हूं। दुनिया का भौतिक विकास इच्छाओं के कारण ही हुआ।  इतना अधिक विकास हो गया कि विकास करने वाले भी मानने लगे, अरे यह तो विनाश होना शुरू हो गया। विकास के लिए उगाई इंसानी इच्छाओं की अति ने ही विकास की कंटीली घास उगाई।  


अब इच्छाओं के रंगरूप में बदलाव लाया जा रहा है, प्रवचन हो रहा कि मानवीय इच्छाओं का पालन पोषण इस तरह से हो कि पर्यावरण, नैतिकता, मानवता का विनाश कम हो। ज़िंदगी की कमज़ोर वित्तीय परिस्थितियों ने इंसानी दिमाग में हमेशा ऐसी इच्छाओं के बीज बोए कि उसकी जेब में आने वाली राशी बढ़े, सेहत संबंधी परेशानियां कम हों और व्यवहारिक प्रतिभा विकसित हो सके। अपने साथ परिवार वालों की दशा भी सुधरे। ऐसी इच्छाओं को लेकर जो व्यक्ति जीवन की कठिनाइयों से जूझता रहा, मेहनत करता रहा, हार न मानते हुए जुटा रहा तो ऊपर वाले ने भी साथ दिया और उसका वक़्त बेहतर होता गया। धीरे धीरे उसकी इच्छाएं पूरी होती गई, अगर उसने संयम भी रखा तो दोबारा न मिलने वाली ज़िन्दगी उसने वाकई जी ली। 

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इच्छाओं का संघर्ष यह प्रकट करता है कि अब जीवन व्यवस्थित होना चाहता है। किसी भी व्यक्ति का कामयाब संघर्ष ही जीवन को सुव्यवस्थित करता है। इस व्यवस्थित आंगन की उपजाऊ क्यारियों में ही नई, बड़ी इच्छाओं के बीज बो दिए जाते हैं। यह बीज व्यक्ति के ख़्वाबों, बातों और इरादों में जीवित रहते हैं। जो समृद्ध होती जाती ज़िंदगी के आधार कार्ड के माध्यम से, सफलता के आसमान पर दूसरों की चमकती इच्छाओं से प्रेरित होते हैं। यहीं संक्रमण का प्रवेश होता है। बढ़ती ईर्ष्या के कारण संक्रमण की प्रतियोगिता होने लगती है। इस प्रतियोगिता में कितनी ही बार भावनाएं आहत, आस्थाएं जख्मी होती रहती हैं। कितनी ही इच्छाएं जुगाड़ को पकड़कर अपनी टीम में शामिल कर लेती हैं। परस्पर विरोधी इच्छाएं कठिनाईयाँ, रंज और दुःख लाती हैं।


आदम और ईव को सेब मिल गया था लेकिन जब उसे खाने की इच्छा ने उनके मन में घर कर लिया तभी से भौतिकता की उत्त्पति हो गई। फिर क्या हुआ पूरी दुनिया जानती है। आज हर व्यक्ति निजी इच्छा जीवी हो गया है। व्यक्ति पर उसकी  निजी, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक इच्छाएं इतनी हावी हैं कि इच्छा शक्ति की हालत खस्ता हो रही है। इच्छा एक वस्तु मात्र होकर रह गई है।  विश्वस्तर पर यह हालत है कि बड़ा देश छोटे देश को समाप्त करने की इच्छा पर आमादा है। वह अलग बात है कि दुनिया में न्युनतमवाद (मिनिमिलिज्म) की धारणा भी बढ़ रही है। यह कहा गया किसे याद है कि अपनी आवश्यकताएं कम करके हम वास्तविक शांति प्राप्त कर सकते हैं। समझ नहीं आ रहा कि वास्तविक शान्ति इच्छाओं को  पूरा करने में है या छोड़ देने में है।  


- संतोष उत्सुक

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