ब्रिटेन की संसद में खोल दी थी अंग्रेजों की पोल, देश को स्वराज का नारा देने वाले दादाभाई नौरोजी

By निधि अविनाश | Sep 04, 2022

‘हम अंग्रेजों से कृपा की याचना नहीं कर रहे हैं, हमें तो केवल न्याय चाहिए’। अखिल भारतीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपने भाषण के दौरान दादाभाई ने अंग्रेजों के लिए यहीं बात कहीं थी। अंग्रेजों के शासन को सबसे पहले स्वराज के जरिए चुनौती देने वाले भारत के सबसे बुजुर्ग नेता थे दिग्गज दादाभाई नौरोजी।


पारसी परिवार में दादाभाई का हुआ था जन्म

4 सितम्बर 1825 को मुंबई के पारसी परिवार में जन्में दादाभाई का बचपन आर्थिक संकटों में गुजरा। महज चार साल की उम्र में ही दादाभाई के सिर से पिता नैरोजी पालनजी डोरडी का साया उठ गया। मां मानेकबाई पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन उसके बावजूद अपने बेटे दादाभाई को अच्छी शिक्षा देने का ठान लिया। मुंबई के एल्फिस्टन कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद दादा ने कुछ सालों तक गणित के अध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दी। दादा जब 11 साल के थे तभी उनकी शादी करा दी गई थी। उनकी शादी सात साल की गुलबाई से हुई। दोनों की तीन संताने हुई जिसमें से एक बेटा और दो बेटियां थी।

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ब्रिटेन के संसद में एक भारतीय चुनकर पहुंचे

कहा जाता है कि महात्मा गांधी से पहले अगर किसी को देश का प्रमुख नेता कहा जाता था तो वो दादाभाई नौरोजी थे। जातिवाद और सम्राज्यवाद के विरोधी के तौर पर उनकी एक पहचान बनी। दादाभाई नौरोजी साल 1892 में ब्रिटिश संसद में पहुंचने वाले पहले भारतीय थे और ये उनके लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। साल 1855 का एक किस्सा जिसका जिक्र हर कोई करता है। जब वह 1855 को लंदन पहुंचे तो वह वहां का नजारा देखकर हैरान हो गए थे। जब उन्होंने ब्रिटेन के लोगों को सुख और समृद्धि के साथ देखा तो वह काफी दंग रह गए थे क्योंकि भारत की स्थिति उसके बिल्कुल विपरीत थी। जब वह ब्रिटिश के संसद में पहुंचे तो उनका मकसद केवल भारत की गरीबी और अंग्रेजो के शासन की क्रूर निति के खिलाफ आवाज उठानी थी। उन्होनें अपना पहला चुनावी अभियान साल 1886 में होलबर्न से शुरू किया लेकिन वह कामयाब नहीं रहे। वह फिर भी हार नहीं माने और ब्रिटेन में रहते हुए उन्होंने पूंजीवादी की आलोचना की और मजदूरों के अधिकारों पर अपनी आवाज उठाई और नतीजा ये निकला कि लोगों को उनपर भरोसा होने लगा। 


एक सांसद के रूप में ब्रिटिश के संसद पहुंचे

साल 1892 में उन्होंने लंदन के सेंट्रल फिंसबरी से 5 वोटों से चुनाव जीता। इस दौरान उन्हें दादाभाई नैरो मेजोरिटी के नाम से जाना जाने लगा। एक लंबे संघर्ष के बाद दादाभाई एक सांसद के रूप में ब्रिटिश के संसद पहुंचे और भारत की आवाज बने। उन्होंने ब्रिटिश के संसद में बताया कि कैसे ब्रिटिश शासन अपनी ताकत से भारतीयों को अपना गुलाम बना रहा है और भारतीयों पर कड़े जुल्म कर रहा है। दादाभाई ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज हमेशा बुलंद रखी।

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लड़कियों की पढ़ाई पर दिया जोर

दादभाई ने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी ऱखी लेकिन साथ ही भारत में कुछ ऐसे बदलाव भी किए जिसकी कारण उन्हें रूढ़िवादी पुरुषों के विरोध का सामना करना पड़ा। दादाभाई ने 1840 के दशक में लड़कियों के लिए स्कूल खोला। महज 5 साल के अंदर ही बॉम्बे में लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा हुआ नजर आया। दादाभाई ने अपने मजबूत इरादे से देश में लैंगिक समानता की मांग की। उनका कहना था कि भारतीय एक दिन ये बात जरूर समझेंगे कि महिलआओं को दुनिया में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने का उतना ही हक है जितना की देश के हर एक पुरुष को”। 


- निधि अविनाश

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