By सुखी भारती | Jan 07, 2021
विगत अंकों की लड़ियों में हम श्री हनुमान जी के परहितकारी व सौम्य हृदय की सुंदर वार्ता से निकल नहीं पा रहे हैं। मानो प्रत्येक अंक के साथ हमें उनके दिव्य चरित्र में नित नया हृदय स्पर्शी व आविष्कारिक बिंदु हाथ लगता है। और उस बिंदु में झांकने भर से हमें असंख्य सिंधु समाये प्रतीत होते हैं। अभी भी जब उन्हें लगा कि प्रभु श्रीराम जी को अब सुग्रीव से मिलने में विलंब नहीं करना चाहिए तो श्री हनुमान जी दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर सवार होने की विनती करते हैं। कारण कि सुग्रीव तक पहुंचने के लिए प्रभु को पहाड़ी के शिखर पर ले जाना था। जिसे देख प्रभु असमंजस की स्थिति में पड़ गए कि अरे वाह! एक तो भक्त आप हुए जो स्वयं पहाड़ी से नीचे उतर कर हमारे पास आ पहुंचे। ठीक वैसे ही अगर सुग्रीव भी हमारे दास हैं तो वे भी स्वयं नीचे उतर कर हमारे पास क्यों नहीं आये? आपने कहा कि वे दीन भी हैं तो दीन तो अपने दुःख के उपचार हेतु कहीं न कहीं जाता ही है न। तो क्यों न वह हमारे पास ही आ जाता? श्री हनुमान जी ने सुना तो हाथ जोड़ कर बोले− 'प्रभु! आप का कहना श्रेयस्कर है किसी दीन दुखी को निश्चित ही ऐसा करना चाहिए। सो अपने प्रसंग में मैंने वही किया। आप के पास दौड़ा चला आया। लेकिन प्रभु मुझे मेरे अपराध के लिए क्षमा करें। कृपया यह बतायें जो जीव दर्द व कलह से इस हद तक संतप्त हो कि टांगें संपूर्ण शरीर का भार तो छोड़िए स्वयं अपना भार भी न उठा पाएं और हिलने−डुलने में भी विवश हो जाएं। तो क्या उक्त व्यक्ति से यह कामना करनी व्यर्थ नहीं होगी कि वह स्वयं आप तक चलकर आए? दुःख हर्ता को तो स्वयं उसके पास अविलंब जाना चाहिए। तभी तो दुखहर्ता की महानता है। और प्रभु आप तो निश्चित ही बहुत समय पहले से यह करना चाह रहे थे। बस मैंने ही व्यर्थ की बातों में समय नष्ट कर दिया। तो क्या प्रभु हमें चलना चाहिए न? क्योंकि आपको विलंब जो हो रहा है।'
श्रीराम जी भक्त हनुमान जी का यह पावन चातुर्य देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे कि वाह हनुमान! आप अपनी वाक सिद्धि से पहले ही हमारे समक्ष ऐसी स्थिति बयां कर देते हो कि हमें ठीक वैसे ही करना पड़ता है। जैसे आप हमसे करवाना चाहते हैं। और अब एक और नई बात कह रहे हो कि हम दोनों आपकी पीठ पर सवार हो जाएं। हमें तो इसका अभ्यास ही नहीं है। हाँ अगर आप कहते हैं कि हम दोनों भाई आपके कंधे पर बैठें तो यह हमारे लिए भी उपयुक्त होता। क्योंकि पिता दशरथ जी के कंधे पर हम अनेकों बार बैठे हैं। फिर पीठ पर तो बोझ उठाया जाता है। तो क्या हम आपको बोझ प्रतीत होते हैं। श्री हनुमान जी समझ गए कि प्रभु विनोद की भाषा में अपने भक्त की महिमा का विस्तार करना चाह रहे हैं। श्री हनुमान जी बोले− प्रभु! पहले तो मैं आपकी प्रथम आपत्ति का समाधान कर दूँ कि मैं आपको पीठ पर क्यों बिठा रहा हूँ। निश्चित ही पिता जी की पीठ पर चढ़ने का अनुभव आपको याद ही होगा। कंधे पर बैठो तो पिता टांगों से पकड़ कर रखता है कि कहीं मेरा बेटा नीचे न गिर जाए। बच्चा तो बस कंधे पर बैठा आनंद लेता है। और मैं आपको अपने कंधे पर अगर बिठा लूंगा तो आपके गिर जाने का मुझे भय होगा और आपके रक्षण हेतु मुझे आपको कस कर पकड़ना पड़ेगा। तो प्रभु यह तो नीतियुक्त ही नहीं हुआ न। क्योंकि मैं आपके गिरने का व्यर्थ ही भय क्यों पालूं। कारण कि आपने तो कभी गिरना ही नहीं होता। और फिर मेरा आपको पकड़े रहने का तो कारण ही अर्थहीन है। क्योंकि प्रभु हम तो वानर हैं। हमारे हाथ कहाँ एक स्थान पर टिके रहते हैं। वृत्ति ऐसी कि एक वस्तु पकड़ी तो दूसरी पर लपक लिए। दूसरी छोड़ी तो तीसरी पर पकड़ बनाने बैठ गए। सोचिए आप को पकड़े−पकड़े किसी अन्य को पकड़ने पड़ गई तो! मानो किसी अन्य को नहीं पकड़ा ऐसे ही अपना पेट खुजलाने के लिए आपको छोड़ दिया तो? हम तो फिर वनों में अकेले के अकेले ही रह जाएंगे न प्रभु! हमको तो बस यही चाहिए कि आपको, हम नहीं अपितु आप, हमें पकड़िए और वह भी कस कर। और जब आप हमारी पीठ पर बैठेंगे तो यह होना निश्चित ही है। क्योंकि जब आप हमारी पीठ पर बैठेंगे तो हमें आप निश्चित ही बाजू लपेट कर पकड़े रखेंगे। और उसमें भी आपको केवल अपने गिरने की ही चिंता नहीं होगी अपितु मेरे गिरने की भी चिंता बराबर लगी रहेगी कि पगला यह गिरा तो साथ में से हम दोनों भी पहाड़ी से पलटते हुए नीचे आ गिरेंगे। तो प्रभु आप अपने भक्त को पकड़े भी रखें साथ में निरंतर चिंतित भी रहें कि भक्त कभी गिरने न पाए। तो भला भक्त को अपने प्रभु से इससे अधिक और भला क्या चाहिए?
प्रभु! आपको पीठ पर सवार करने का एक और लाभ भी है। वह यह कि रावण से आपकी शत्रुता तो अब शुरू हो ही गई है। आज श्री सीता माता जी के सम्मान को क्षति पहुँचाने की कुचेष्टा की तो निश्चित ही वह मेरी भी पीठ में छुरा घोंपने की कोशिश करे। लेकिन जब वह देखेगा कि मेरी पीठ पर तो आप सवार हैं तो स्वतः ही उसका हौसला भी टूट जाऐगा। और अगर वह सामने से भी वार करेगा तो उसके आक्रमण को भले ही मेरी दो आँखें न भांप पाएं लेकिन आपके पावन नयन भी तो सामने ही होंगे न। वहाँ से भला वह कहाँ बच पाएगा। इसलिए प्रभु आपको पीठ पर बिठाने से मुझे व्यक्तिगत लाभ ही लाभ है।
हाँ सच! याद आया, आपने यह बात कैसे कह दी कि पीठ पर तो भार ढोया जाता है। प्रभु बड़े−बड़े चक्रवर्ती सम्राट जब अपने घोड़े अथवा हाथी की पीठ पर सवार होते हैं तो क्या वह घोड़ा अथवा हाथी राजा को बोझ समझ कर उठाता है? नहीं कदापि नहीं! अपितु वह तो खुशकिस्मत होता है कि यह सौभाग्य उसे प्राप्त हुआ। इससे उसे थकान नहीं अपितु सम्मान प्राप्त होता है।
चलो आपकी भी अगर मान लें कि आप बोझ हैं, भार हैं तो वह भी आप हमारे ही सम्मान के लिए कह रहे हैं। पूछो क्यों? वह इसलिए क्योंकि पूरी सृष्टि का बोझ आप उठाए हुए हैं कोई आपको पूछ ले कि आपका बोझ फिर किसने उठाया है तो आप तपाक से बोल सकते हैं कि भई हमारा बोझ उठाने का सामर्थ्य तो केवल हमारे भक्त में ही है। और किसमें हिम्मत भला जो हमारा बोझ उठा सके। अर्थात् भक्तों को सम्मान दिलाने का आपका मनोरथ भी पूरा और अपनी पीठ पर सवारी कराने का हमारा चाव भी पूरा।
और इस प्रकार सब कथा समझा कर श्री हनुमान जी श्री राम व श्री लक्षमण जी को पीठ पर चढ़ाकर पहाड़ी पर चढ़ने लगते हैं−
एहि बिधि सकल कथा समुझाई।
लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥
सज्जनों सुग्रीव की श्रीराम जी से मित्रता करवाने में श्री हनुमान और क्या भूमिका निभाते हैं। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...
-सुखी भारती