कांग्रेस आज उस मोड़ पर खड़ी है जहां एक समस्या समाप्त नहीं होती, उससे पहले अनेक समस्याएं एक साथ फन उठा लेती है। कांग्रेस के भीतर की अन्दरूनी कलह एवं विरोधाभास नये-नये चेहरों में सामने आ रही है, कांग्रेस के अनेक कद्दावर नेता पार्टी से पलायन कर रहे हैं। मनमोहन सिंह सरकार में कानून मंत्री रहे अश्विनी कुमार ने भी कांग्रेस छोड़ दी। अभी कुछ समय पहले आरपीएन सिंह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए थे। इसके पहले जितिन प्रसाद भी इसी राह पर चले थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया भी। पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अमरिंदर सिंह को जिस अपमानजनक तरीके से मुख्यमंत्री पद से हटाया गया, उसके बाद उनके सामने कांग्रेस छोड़ने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया था। कांग्रेस की इस दुर्दशा एवं लगातार रसातल की ओर बढ़ने का सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी है। वह पार्टी एवं राजनीतिक नेतृत्व क्या देश की गरीब जनता की चिन्ता एवं राष्ट्रीय समस्याओं को मिटायेंगी जिसे पु़त्र के राजनीतिक अस्तित्व को बनाये रखने की चिन्ताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है।
46 वर्षों से कांग्रेस से जुड़े रहे अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ने की घोषणा करने के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा कि पार्टी में नेतृत्व की कमी है। कांग्रेस खुद को फिर से स्थापित करने में असमर्थ रही है और लगातार रसातल की ओर बढ़ रही है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा और गुलाम नबी आजाद को पद्म भूषण से जुड़े हालिया विवादों ने उनको पद छोड़ने का फैसले करने के लिए मजबूर किया। अश्विनीकुमार की दो पीढ़ियां कांग्रेस से जुड़ी रही हैं, उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष को लिखे अपने पत्र में कहा, ‘इस मामले पर विचार करने के बाद, मैंने ये निष्कर्ष निकाला है कि मौजूदा हालात और अपनी गरिमा को ध्यान में रखते हुए मैं पार्टी के बाहर बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं की सबसे अच्छी तरह से सेवा कर सकता हूं।’
अश्विनी कुमार कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे थे, पार्टी के आधार थे। उनके भीतर पनप रहा असंतोष, विद्रोह एवं पार्टी छोड़ने का निर्णय अकारण नहीं है। इन्होंने रह-रहकर राहुल की नाकामियों एवं पार्टी की लगातार होती दुर्दशा को देखा है। उन्होंने देखा कि किस तरह अमरिंदर सिंह को बुरी तरह अपमानित किया गया। वे कांग्रेस में अन्य वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा भी देखते रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि अश्विनी कुमार जी-23 कहे जाने उस समूह का हिस्सा नहीं थे, जिसके नेता कांग्रेस नेतृत्व के तौर-तरीकों पर सवाल उठाते रहे हैं। वह तो गांधी परिवार के करीबी थे और जी-23 के नेताओं की ओर से उठाए जाने वाले कई मुद्दों से असहमत भी थे। उनके पार्टी छोड़कर जाने के बाद कांग्रेसजन यह कह सकते हैं कि वह व्यापक जनाधार वाले कोई बड़े नेता नहीं थे, लेकिन सवाल यह है कि आखिर पार्टी में ऐसे कितने नेता बचे हैं, जो बड़ा जनाधार रखते हैं? उन कुछेक जनाधार वाले नेताओं की भी पार्टी में क्या स्थिति है? कांग्रेस की राजनीति की सोच एवं संस्कृति सिद्धान्तों, आदर्शों और निस्वार्थ को ताक पर रखकर सिर्फ सत्ता, पु़त्र-मोह, राजनीतिक स्वार्थ, परिवारवाद एवं सम्पदा के पीछे दौड़ रही है, इसलिये आज वह हर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ती जा रही है।
बड़ा प्रश्न है कि क्या एक के बाद एक नेताओं के पार्टी छोड़कर जाने से गांधी परिवार की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला है? कायदे से तो उसे उन कारणों की तह तक जाना चाहिए, जिनके चलते उसके नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि वह ऐसा कुछ सोचेगी एवं उन कारणों पर मंथन करेंगी। इनदिनों कांग्रेस राष्ट्र को जोड़ने की बजाय तोड़ने की राजनीति करती है। उसके सामने बड़ी चुनौतियां हैं, उनका मुकाबला नरेन्द्र मोदी जैसे दिग्गज नेता, विकास पुरुष एवं भाजपा जैसी अनुशासित पार्टी से हैं, उसे राष्ट्रीयता के ईमान को, कर्त्तव्य की ऊंचाई को, संकल्प की दृढ़ता को, निस्वार्थ के पैगाम को एवं राजनीकि मूल्यों को जीने के लिये आदर्शो की पूजा ही नहीं, उसके लिये कसौटी करनी होगी। आदर्श केवल भाषणों तक सीमित न हो, बल्कि उसकी राजनीतिक जीवनशैली का अनिवार्य हिस्सा बने। आदर्शों को वह केवल कपड़ों की तरह न ओढ़े, अन्यथा फट जाने पर आदर्श भी चिथड़े कहलायेंगे और ऐसा ही दुर्भाग्य कांग्रेस के भाल पर उभरता जा रहा है।
कांग्रेस की लगातार गिरती साख एवं जनाधार के साथ-साथ पार्टी के भीतर पनप रहे असंतोष के उन कारणों की तह तक जाना चाहिए, जिनके चलते उसके नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। इसका एक कारण तो यह है कि आज कांग्रेस में उन्हीं का बोलबाला है, जो गांधी परिवार की चाटुकारिता करने में माहिर हैं और दूसरा यह कि खुद यह परिवार किसी राजघराने जैसा व्यवहार कर रहा है। वह बार-बार यह अहसास कराती रही है कि इस देश पर शासन करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है और पिछले दो लोकसभा चुनावों में देश की जनता ने कांग्रेस को नकार कर कोई बड़ी गलती कर दी है। पार्टी नेतृत्व का यह अहंकार बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। इसी से असंतुष्ट नेताओं का हौसला बढ़ रहा है, उनके विरोध की धार को तेज कर रहा है, उन्हें पार्टी छोड़ने को विवश कर रहा है। राहुल गांधी को लेकर खड़े किये जा रहे मुद्दों पर गांधी परिवार की चुप्पी का इरादा केवल मुद्दे को टालना है, कुछ करने का इरादा न पहले था और न अब दिख रहा है। यह स्थिति पार्टी के लिये भारी नुकसानदायी साबित हो रही है। शायद यही कारण है कि कांग्रेस नेतृत्व अपनी खामियों पर गौर करने के लिए तैयार नहीं। वह अश्विनी कुमार की बातों पर शायद ही ध्यान दे, लेकिन उनका यह कथन महत्वपूर्ण है कि यदि देश की जनता कांग्रेस के साथ नहीं खड़ी हो रही है तो इसी कारण कि वह जो विकल्प उपलब्ध करा रही है, वह उसे स्वीकार नहीं।
आजाद भारत में सर्वाधिक लम्बे समय शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी की इस स्थिति का कारण पु़त्र-मोह है। इतिहास गवाह है पुत्र मोह ने बड़ी-बड़ी तबाहियां की हैं। सत्ता और पुत्र के मोह में इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई। आज सोनिया गांधी भी ऐसे ही पदचिन्हों पर चलते हुए पार्टी के अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधला रही है। ऐसे क्या कारण बन रहे हैं कि कांग्रेस की राजनीति के प्रति लोगों के मन श्रद्धा से झुक नहीं रहे हैं। क्योंकि वहां किसी भी मौलिक मुद्दों पर स्थिरता नहीं, जहां स्थिरता नहीं वहां विश्वास कैसे संभव है?
प्रश्न एक परिवार का नहीं, बल्कि देश की 130 करोड़ आबादी का है। पुत्र-मोह, बदलती नीतियां, बदलते वायदे, बदलते बयान कैसे थाम पाएगी करोड़ों की संख्या वाले देश का आशाभरा विश्वास जबकि वह पार्टी के बुनियादी नेताओं के विश्वास को भी कायम रखने में नाकाम साबित हो रही है। इसलिये वक्त की नजाकत हो देखते हुए कांग्रेस के सभी जिम्मेदार तत्व अपनी पार्टी के लिये समय को संघर्ष में न बिताये, पार्टी-हित में सृजन करें। भारत जैसे सशक्त लोकतंत्र के सशक्त विपक्ष का होना जरूरी है और अभी तक कांग्रेस के अलावा अन्य विपक्षी दलों में यह पात्रता सामने नहीं आ रही है।
आज कर्त्तव्य एवं राजनीतिक हितों से ऊंचा कद पुत्र-मोह का हो गया है। जनता के हितों से ज्यादा वजनी निजी स्वार्थ एवं परिवारवाद हो गया है। असंतुष्ट नेता इस नतीजे पर भी पहुंच चुके हैं कि राहुल के रहते कांग्रेस में कोई सूरज उग नहीं पाएगा। जो लोग प्रिंयका गांधी से बड़ी उम्मीद लगाए थे, वे और ज्यादा निराश हुए हैं। प्रियंका का सूरज तो उगने से पहले ही अस्त हो गया। कांग्रेस को परिवारवाद की संकीर्णता एवं स्वार्थ को छोड़ना होगा, उसे राष्ट्रीय धर्म एवं कर्त्तव्य के अलावा कुछ न दिखे, ऐसा होने पर ही पार्टी को नवजीवन मिल सकता है, अन्यथा अंधेरा ही अंधेरा है।
- ललित गर्ग