कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व के प्रति चापलूसी की पुरानी परंपरा रही है, इस परंपरा को कांग्रेसी नेता पार्टी की संस्कृति की तरह से अपनाते रहे हैं। ऐसे अनेक नेता हुए हैं, जिन्होनें उस परंपरा को परवान चढ़ाने की मिसाल कायम करके सुर्खियां बटोरीं हैं, लेकिन इससे सबसे सशक्त एवं पुरानी राजनीतिक पार्टी का क्या हश्र हो रहा है, इस बात को देखने का साहस पार्टी के भीतर किसी नेता में नहीं है। यही कारण है कि राष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी के बाद सर्वाधिक वोट बैंक वाली पार्टी होने के बावजूद वह कोई सार्थक परिणाम एवं प्रदर्शन नहीं दिखा पा रही हैं। हाल ही में सम्पन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसने करारी हार का सामना किया है। इन राज्यों में हुए चुनावों में या तो कांग्रेस की सरकार जाती रही या विपक्ष में होने का बावजूद भी वो वहां कुछ ख़ास कमाल नहीं कर सकी। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई ख़ास कमाल नहीं कर सकी। पूर्व में सम्पन्न हुई राहुल की भारत जोड़ो यात्रा की भांति आगामी न्याय यात्रा कोरा चापसूसों का जमावड़ा होकर रह जाये तो कोई आश्चर्य नहीं है।
भारतीय राजनीति के अमृतकाल तक पहुंचे शासन में से लगभग पचास साल कांग्रेस का राज रहा है। प्रश्न है कि ऐसे क्या कारण है कि अब कांग्रेस सत्ता से दूर होती जा रही है। कद्दावर एवं राजनीतिक खिलाड़ियों की पार्टी होकर भी वह अपना धरातल खोती जा रही है। इसका कारण परिवारवाद एवं चापलूसी राजनीतिक संस्कृति ही है। इसी कारण अनेक पार्टी-स्तंभ नेता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं। बावजूद इसके पार्टी कोई सबक लेने को तैयार नहीं है। कांग्रेस अगर इस गलतफहमी में जीना चाहती है कि वंशवादी नेतृत्व ही उसका उद्धार करेगा तो उसे ऐसी गलतफहमी पालने का पूरा अधिकार है, लेकिन उसके परिणाम भी उसे झेलने ही होंगे। ऐसा नहीं कि पार्टी से जुड़े हर ऊपर से नीचे तक के कार्यकर्ता एवं नेता को उचित अनुचित का बोध नहीं है। वे सब कुछ जानते हुए भी मक्खी निगलते हैं? आखिर क्यों? इसीलिए कि जिंदगी भर चापलूसी करते-करते जी-हूजुरी या चमचागिरी करना ही उनका बोध रह गया है।
नेता को सारे अधिकार समर्पित करके हमारे देश के पार्टी कार्यकर्ता अपनी बुद्धि एवं विवेक को स्थायी तौर पर निस्तेज एवं गूंगा बना देते हैं। इसी के चलते लोकतंत्र की ओट में नेतातंत्र पनपने लगता है। उसका आखरी अंजाम होता है, राजनीति का पतन। अपनी कुर्सी बचाने के लिए नेता अपनी पार्टी, सरकार, संसद और यहां तक कि देश को भी दांव पर लगा देता है। चापलूसी खुद को तो आगे बढ़ा देती है, लेकिन बाकी सबको पीछे ढकेल देती है। चापलूसी का मक्खन राजनीति की राह को इतनी रपटीली बना देता है कि उस पर नेता, पार्टी और देश, सभी चारों खाने चित हो जाते हैं। चापलूसी का दरवाजा खुलते ही प्रश्नों की खिड़कियां अपने आप बंद हो जाती हैं। लगातार रसातल ही ओर जा रही कांग्रेस की इस स्थिति का कारण भी यही है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कब समझेगा कि चापलूसी एक नकली सिक्का है और नकली सिक्कों की बदौलत उन्नति नहीं, अवनति ही झेलनी पड़ती है।
कांग्रेस को चापलूसी का घुन खोखला कर रहा है। यूं तो प्रारंभ से ही कांग्रेस चापलूसियों का गिरोह रही है। राजनीति की द्वंद्वात्मकता को समाप्त करने में चापलूसी मुख्य भूमिका निभाती है। चापलूसी ने भारतीय राजनीति को वंशवादी, सम्प्रदायवादी, जातिवादी बना दिया है। नेता का हित ही पार्टी का हित है, देश का हित है। इस संकीर्ण चरित्र ने पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र को मरणासन्न कर दिया है। अगर पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है तो वह देश में कैसे रह सकता है? संकट की घड़ी में वह धराशायी हो जाता है। हमारे आज के नेता कोई महात्मा गांधी की तरह नहीं हैं कि उनके सद्गुणों को उनके अनुयायी लोग अपने जीवन में उतारे। नेता वैसा आग्रह करते भी नहीं और अनुयायी वैसा करना जरूरी भी नहीं समझते। इसीलिए हमारी राजनीति ऊपर से चमकदार और अंदर से खोखली होती जा रही है। जो अपने इर्द-गिर्द चापलूस लोगों की भीड़ देखने के आदी होते हैं, उन्हें हर जगह यही अपेक्षित होता है। आज इंडिया गठबंधन में बिखराव का भी बड़ा कारण यही चापलूसी संस्कृति है।
कांग्रेस में चापलूसी का इतिहास पुराना रहा है। अपने नेता का महिमामंडन करने के लिये कार्यकर्ता क्या-क्या नहीं करते एवं कहते हैं। कभी तत्कालीन कपड़ा मामलों के मंत्री रहे शंकरसिंह वाघेला ने महात्मा गांधी के बाद भारतीय इतिहास में त्याग करने वाले लोगों में सोनिया गांधी को माना। वहीं सलमान खुर्शीद ने कहा था कि सोनिया गांधी सिर्फ राहुल गांधी की मां नहीं हैं। हम सब की मां हैं। वे सारे देश की मां हैं!’ संवेदनशील भारतीय इससे चौंके ही नहीं, बुरी तरह क्रोधित भी हुए हैं। यह भारत का अपमान था, यह ‘मां’ जैसे सर्वोच्च रिश्ते का अपमान था। लेकिन अपमान करने में कांग्रेस के कार्यकर्ता ही नहीं, खुद सोनिया, राहुल एवं अन्य नेताओं ने कोई कमी नहीं रखी। राहुल गांधी जैसे नेता ने प्रधानमंत्री को पनौती करार दे दिया। वनडे विश्व कप फाइनल में भारत की हार के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने प्रधानमंत्री को जेबकतरा भी करार दिया। इसके अलावा उन्होंने यह भी समझाने की कोशिश की कि आप जो कुछ खरीदते हैं उसका पैसा सीधे अदाणी की जेब में जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण है जिसमें कांग्रेस के नेताओं ने मर्यादा, शालीनता एवं शिष्टता का चीरहरण ही कर दिया। पार्टी के किसी भी कार्यकर्ता में यह दम नहीं कि वह अपने नेताओं से पूछे कि आप देश के प्रधानमंत्री के लिये विषवमन करके किस तरह पार्टी का हित कर रहे हैं?
बात केवल कांग्रेस की ही नहीं, सभी दलों की है। दलों में चापलूसी गहरी पैठ गयी है। लगातार पांव पसार रही इस विसंगति के कारण अनेक दल आज अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं। जिन दलों ने इस विसंगति से दूरी बनायी, वे लगातार अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत बना रहे हैं। राजनीति के इस चापलूसीकरण के कारण ही देश के श्रेष्ठ और स्वाभिमानी लोग राजनीति से परे रहते हैं। राजनीति में घुसने और आगे बढ़ने के लिए सिद्धान्त एवं मर्यादाहीन नेताओं के आगे इतनी नाक रगड़नी पड़ती है कि जिन लोगों में देश-सेवा एवं शुद्ध- राजनीति की ललक है, वे भी घर बैठना ज्यादा सही समझते हैं। नेतागण केवल उन्हीं लोगों को अंदर घुसने देते हैं और आगे बढ़ाते हैं, जो उनके निजी स्वार्थों की पूर्ति करें। अनेक नामी-गिरामी उद्योगपति, पत्रकार, फिल्म अभिनेता और विद्वान भी राजनीति में गए हैं, लेकिन उन्हें इसीलिए स्वीकार किया गया है कि वे साफ-साफ या चोरी छिपे किसी नेता की चमचागिरी करते रहे हैं। उनसे अधिक प्रसिद्ध और उनसे अधिक योग्य लोग अपने घर बैठे हैं।
चापलूसी के घेराबंदी का ही परिणाम है कि कांग्रेस में सही को सही एवं गलत को गलत ठहराने का निर्णय लेने वाला कोई साहसी नेता नहीं है। यही कारण है कि राहुल गांधी मोदी विरोध के नाम पर देश के विरोध पर उतर जाते हैं। वे इस तरह का आचरण इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें पार्टी संचालन एवं राजनीतिक परिपक्वता के तौर-तरीकों का कोई अनुभव नहीं। उनकी तरह सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी भी कोई जिम्मेदारी लिए बिना पर्दे के पीछे से सब कुछ करने में ही यकीन रखती हैं। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह गांधी परिवार के बिना चल नहीं सकती। कांग्रेस नेताओं की भी यह विवशता है कि अपने नेता के बयानों को सही एवं जायज ठहराने में सारी हदें लांघ जाते हैं। लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या दुश्मन राष्ट्र से जुड़ी स्थितियों पर बोलते हुए वह मात्र भारत के विपक्षी दल के नेता होते हैं? क्या उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भारत का भी प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? यह समस्या मात्र राहुल गांधी की नहीं है। पूरा विपक्ष यह नहीं समझ पा रहा है कि सत्ताधारी दल के विरोध और देश के विरोध के बीच फर्क है। सत्ताधारी दल का विरोध करना स्वाभाविक है, लेकिन उस लकीर को नहीं पार करना चाहिए, जिससे वह देश का विरोध बन जाए। ऐसे बयानों से किस पर और कैसे प्रभाव पड़ता है। सरकार और राष्ट्र के विरोध के बीच अंतर समझना भी आवश्यक है।
- ललित गर्ग