By अंकित सिंह | Jul 19, 2023
2024 को अपने पक्ष में करने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से मंथन जारी है। मंगलवार का दिन राजनीतिक इतिहास में काफी महत्वपूर्ण रहा क्योंकि बेंगलुरु में जहां विपक्षी एकता के बड़ी बैठक हुई और कई बड़े निर्णय लिए गए तो वहीं दिल्ली में भी एनडीए की बैठक हुई जिसका नेतृत्व भाजपा करती है। विपक्षी एकता की पहली बैठक 23 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मेजबानी में पटना में हुई थी। मंगलवार को विपक्षी एकता और एनडीए की बैठक में बिहार पूरी चर्चा में रहा। एक ओर जहां नीतीश कुमार की नाराजगी को लेकर खूब खबरें चल रही हैं तो वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरीके से चिराग पासवान को गले लगाया उसकी भी चर्चा खूब हो रही है।
बेंगलुरु में विपक्षी दलों की बैठक के बाद एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुआ। लेकिन उस प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले ही नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव पटना के लिए रवाना हो गए। इसी के बाद से ही नीतीश कुमार के नाराज होने की खबर खूब चर्चा में है। हालांकि, जदयू और राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं की ओर से नीतीश की नाराजगी से इनकार किया जा रहा है। सूत्रों ने बताया है कि अचानक ही राहुल गांधी ने विपक्षी गठबंधन का नाम इंडिया रखने का प्रस्ताव रखा। इसका ममता बनर्जी ने भी समर्थन कर दिया। लेकिन नीतीश को इसकी खबर तक नहीं थी। इसके अलावा नीतीश ने खुले तौर पर अंग्रेजी नाम पर आपत्ति जताई। लेकिन कांग्रेस सहित अन्य सहयोगियों ने उनकी आपत्ति को अनसुना कर दिया। नीतीश को इसे लेकर एक और दिक्कत यह थी कि इसमें एनडीए के अक्षर आ रहे थे।
कहा यह भी जा रहा था कि इससे पहले नीतीश को बेंगलुरु की बैठक विपक्षी एकता का संयोजक बनाने की चर्चा हुई थी। लेकिन उसको टाल दिया गया। इस बात से भी बिहार के मुख्यमंत्री नाराज है। अब मुंबई की बैठक में नीतीश कुमार की मुहिम और उनके राजनीतिक कद का लिटमस टेस्ट होगा। कहा तो यह भी जा रहा है कि नीतीश कुमार को कांग्रेस का रवैया पसंद नहीं आया। नीतीश ही वह व्यक्ति है जिन्होंने विपक्षी एकता के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष किया। उन्होंने सभी पार्टियों से एक साथ आने की अपील की थी। लेकिन कांग्रेस अपने तरीके से इसे बढ़ाने में लगी हुई है जो नीतीश को कतई पसंद नहीं आ रहा। कांग्रेस ने विपक्षी एकता को पूरी तरीके से हाईजैक कर लिया है।
नीतीश की नाराजगी को लेकर जैसे ही खबर मीडिया में आई उसके बाद से इस को लेकर खूब चर्चा हुई। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने नीतीश की नाराजगी की खबर को तौर पर खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार गठबंधन के सूत्रधार हैं और वह कभी नाराज नहीं हो सकते। दूसरी ओर भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने अपने बयान में कहा कि नीतीश को लगा था कि उन्हें संजोयक या विपक्ष का चेहरा घोषित किया जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं इसलिए वे चले गए। वे चार्टर प्लेन से आए थे अगर 2 घंटे बाद भी निकलते तो कुछ नहीं होता। उन्हें वहां शायद वह सम्मान नहीं मिला जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे जिसके चलते वे और लालू यादव वहां से निकल गए। केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने विपक्षी गठबंधन पर तंज सकते हुए कहा कि सुने हैं बिहार के महाठगबंधन के बड़े बड़े भूपति बेंगलुरु से पहले ही निकल आए! दूल्हा तय नहीं हुआ, फूफा लोग पहिले नाराज हो रहे!
दूसरी ओर दिल्ली में एनडीए की बैठक से जो तस्वीरें सामने निकल कर आई, उनमें से एक पर चर्चा हो रही है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एनडीए के नेताओं से मुलाकात कर रहे थे। इसी दौरान उन्होंने भीड़ से चिराग पासवान को अपने पास बुलाया और उन्हें दुलार करते हुए गले भी लगा लिया। इस दौरान चिराग पासवान बेहद खुश नजर आ रहे थे। इसके बाद से राजनीतिक विश्लेषक इस तस्वीर की अलग-अलग तरह से विश्लेषण कर रहे हैं। चिराग पासवान की 3 साल बाद एनडीए में वापसी हो रही है। चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति पारस के बीच लड़ाई के बाद पार्टी दो भागों में बांट गई थी। ज्यादा सांसदों की संख्या पशुपति पारस के साथ थी, इसलिए वह मोदी कैबिनेट में शामिल रहे। इस प्रकरण के लिए भाजपा पर भी सवाल उठते रहे। भाजपा ने भी उस वक्त चिराग की मदद नहीं की थी। हालांकि, चिराग ने कभी भी प्रधानमंत्री या भाजपा के खिलाफ आरोप नहीं लगाया। बिहार चुनाव के दौरान चिराग पासवान ने खुद को प्रधानमंत्री मोदी का हनुमान बताया था। एनडीए की बैठक में ऐसा लगा कि हनुमान को राम मिल गए हैं। भाजपा के लिए बिहार में पशुपति पारस से ज्यादा चिराग पासवान इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि वह अपने पिता के विरासत को अपने दम पर आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं। उनके साथ उनकी बिरादरी के वोटर्स भी हैं। चिराग के सामने तमाम चुनौतियां आई लेकिन उन्होंने धैर्य रखा। राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए हड़बड़ाहट में कोई फैसला नहीं लिया और शायद अब उसी का उन्हें इनाम मिलने जा रहा है। माना जा रहा है कि चिराग पासवान को मोदी कैबिनेट में कोई बड़ा पद दिया जा सकता है।
राजनीति में सभी नेता अपने समीकरणों को मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। इसके लिए वे कभी-कभी चुप्पी साधना ही बेहतर समझते हैं। जनता के बीच अपनी साख को बनाए रखने के लिए धैर्यता से निर्णय लेना ही नेताओं के पक्ष में जाता है। जनता हर चीज को देखती है, समझती है और उसी के आधार पर अपने फैसले भी लेती है। यही तो प्रजातंत्र है।