किसानों की यह कैसी लड़ाई है जिसे अन्नदाता का समर्थन ही नहीं है ?

By डॉ. नीलम महेंद्र | Oct 01, 2020

ऐसा पहली बार नहीं है कि सरकार द्वारा लाए गए किसी कानून का विरोध कांग्रेस देश की सड़कों पर कर रही है। विपक्ष का ताजा विरोध वर्तमान सरकार द्वारा किसानों से संबंधित दशकों पुराने कानूनों में संशोधन करके बनाए गए तीन नए कानूनों को लेकर है। देखा जाए तो ब्रिटिश शासन काल से लेकर आज़ादी के बाद आज तक हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर होने के बावजूद हमारे देश में किसानों की हालत दयनीय है। कर्ज़ में डूबे किसानों की आत्महत्या के आंकड़े खुद इस तथ्य की सच्चाई बयाँ करते हैं। किसानों की इस दयनीय हालात से देश पर सबसे अधिक समय तक सत्ता में रहने का गौरव प्राप्त करने वाली कांग्रेस अनजान हो ऐसा भी नहीं है। यही कारण है कि वो कांग्रेस जब 70 सालों बाद देश से अपने लिए वोट मांगती है तो सरकार बनने के 100 दिनों के भीतर किसानों की कर्जमाफी का वादा करती है।

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यह अलग खोज का विषय है कि जिन राज्यों में वो कर्जमाफी के नाम पर सत्ता में आई वहाँ उसकी सरकार द्वारा कितने किसानों का ऋण माफ किया गया। लेकिन सच्चाई तो यह है कि अपने इस वादे से आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी किसानों की बदहाली को कांग्रेस स्वीकार कर रही है। तो प्रश्न यह उठता है कि इतने सालों तक उसने सत्ता में रहते हुए किसानों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाए। उससे भी बड़ा प्रश्न यह कि आज जब कोई सरकार किसानों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कोई कदम उठा रही है तो वो उसका साथ देने के बजाए विरोध क्यों कर रही है? अगर उसे इन नए कानूनों में कोई खामियां दिख रही थीं तो जब संसद के दोनों सदनों में उसके पास मौका था उसने इन कानूनों की कमियां देश के सामने क्यों नहीं रखीं? आखिर देश की जनता ने उन्हें किसी विश्वास से चुन कर संसद में पहुंचाया था। वो वहाँ देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे तो वहाँ क्यों उन्होंने किसानों का पक्ष रख कर उनके हितों के हिसाब से कानून में बदलाव करवाने के प्रयास करने की बजाए संसद की कार्यवाही को बाधित करने का कार्य किया? जो विपक्ष सड़को पर संविधान को बचाने की लड़ाई लड़ता है वो संसद में बिल और रूल बुक की प्रति फाड़ कर या सभापति के माइक को तोड़कर कौन-से संविधान की रक्षा करता है? वो विपक्ष जो लगातार देश में लोकतंत्र पर खतरा बताता है वो विपक्ष संसद में अपने अलोकतांत्रिक आचरण के कारण संसद से निलंबित होकर कौन-से लोकतंत्र की रक्षा करता है?


यही कारण है कि उचित तर्कों के अभाव में जो लड़ाई विपक्ष संसद में हार गया उसे वो भोले भाले लोगों को गुमराह करके सड़कों पर जीतने का प्रयास कर रहा है।


अगर इन कानूनों की बात की जाए तो ये तीनों ही कानून निःसंदेह किसानों को मजबूत करने वाले हैं। जहां पहले किसान अपनी फसल को मंडी में ही बेचने के लिए विवश था अब अपनी फसल को मंडी के अलावा कहीं और बेचना चाहता है तो यह नए कानून उसे यह अधिकार प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं बल्कि वह आधुनिक तकनीक का उपयोग करके अपनी फसल को ऑनलाइन भी बेच सकता है। जहां पहले मंडी में होने वाले फसल के व्यापार पर टैक्स देना होता था जिसे बिचौलिए अक्सर किसान से ही वसूलते थे, वहीं अब मंडी के बाहर होने वाली बिक्री पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इसके अलावा नए कानून में आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 को बदलते हुए सरकार ने खाद्य तेल, दाल, तिल, आलू, प्याज जैसे कृषि उत्पादों के संग्रहण पर लगी रोक को हटा लिया है। इससे जहां एक तरफ अतिरिक्त उपज के निजी भंडारण को प्रोत्साहन मिलेगा तो दूसरी तरफ इसके दूरगामी परिणाम के रूप में भंडारण की सुविधा के अभाव में अब तक जो फसलों की बर्बादी होती थी उसमें भी कमी आएगी। लेकिन इन कानूनों से बढ़कर किसानों के हित का जो सबसे महत्वपूर्ण कानून सरकार लेकर आई है वो है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर। इस कानून के अंतर्गत किसान किसी भी व्यक्ति अथवा कंपनी से अपनी फसल का कॉन्ट्रैक्ट कर सकता है जिसमें किसान फसल बोने के पहले ही अपनी फसल को बेचने के दाम तय कर सकता है।

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फसल उसके खेत से ही उठाई जाएगी। इस कानून में यह भी स्पष्ट किया गया है कि कॉन्ट्रैक्ट में केवल फसल का करार होगा खेत का नहीं। कॉन्ट्रैक्ट को खत्म करने का अधिकार केवल किसान को रहेगा कंपनी को नहीं। अगर कंपनी करार से बाहर आना चाहती है तो उसे किसान को हर्जाना देना होगा।


मजेदार बात यह है कि इन कानूनों के कई प्रावधानों को लाने की बात कांग्रेस भी लगातार अपने चुनावी घोषणा पत्रों में करती रही है। इतना ही नहीं कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल का लोकसभा में दिया गया एक बयान भी इन दिनों काफी चर्चा में है जिसमें वो इन कानूनों में लागू होने वाले प्रावधानों की वकालत करते नज़र आ रहे हैं। लेकिन इन तथ्यों के बावजूद जब आज कांग्रेस समेत विपक्षी दल इन कानूनों का हिंसक विरोध सड़कों पर करते हैं तो सवाल उठने लाजमी हैं।


लेकिन अगर आप सोच रहे हैं कि सवालों के घेरे में केवल कांग्रेस या अन्य विपक्षी दल हैं तो आप गलत हैं क्योंकि सवाल तो सरकार पर भी उठ रहे हैं। क्योंकि अगर सरकार विपक्ष के विरोध प्रदर्शन पर यह कह रही है कि यह उनकी राजनीति का हिस्सा है तो इसे मौजूदा सरकार की विफलता कहना गलत नहीं होगा। क्योंकि ना तो विपक्ष द्वारा ऐसी राजनीति पहली बार की गई है और ना ही सरकार विपक्ष की इस कार्यशैली से अनभिज्ञ है। लोगों को गुमराह करके हिंसक विरोध प्रदर्शन करके विपक्ष द्वारा देश को दंगों की आग में पहले भी धकेला जा चुका है। सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर देश भर में किस प्रकार के और कितने झूठ फैलाए गए, यह सबने देखा।


लेकिन लगता है कि या तो सरकार ने अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं लिया या फिर वो विपक्ष को देश के सामने बेनकाब करने के लिए उसे जानबूझकर ऐसे मौके देती है। क्योंकि जिस सरकार ने धारा 370 और राम मंदिर जैसे संवेदनशील मुद्दों पर देश में शांति और सौहार्दपूर्ण माहौल बनाकर रखा हो उस सरकार से सीएए, एनआरसी के बाद एक बार फिर किसानों के नाम पर विपक्ष को देश के शांतिपूर्ण वातावरण से खिलवाड़ करने का मौका देना उसकी विफलता ही कही जाएगी। विपक्ष के रवैये को देखते हुए सरकार को चाहिए कि देश में कोई भी बदलाव लाने से पहले वो उसके हक में माहौल बनाए, देश की जनता को उसके लिए मानसिक और सामाजिक रूप से तैयार करे, खासतौर पर उन लोगों को जो उस बदलाव से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हों। उन्हें उस बदलाव के प्रति जागरूक करे ताकि वो किसी के बहकावे में ना आएं, कोई उन्हें गुमराह ना कर सके। क्योंकि सरकार को यह समझना चाहिए कि देश का भविष्य बदलने के लिए कानूनों में बदलाव जितना जरूरी है उन कानूनों की आड़ में देश में अराजकता नहीं फैले इस बात के प्रति सरकार की जवाबदेही भी उतनी ही जरूरी है। केवल विपक्ष को दोष देने से सरकार की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती।


-डॉ. नीलम महेंद्र

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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