बेहतर शर्तों व बेहतर कीमतों पर की थी राफेल डील, कांग्रेस को यह नहीं भाया

By अरुण जेटली | Dec 17, 2018

राफेल सौदे पर बोले गए सभी झूठों का पर्दाफ़ाश हो गया है। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्पष्ट है। सरकार के खिलाफ बोली गई हरेक बात झूठी साबित हुई है। कुछ निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा राफेल डील के खिलाफ हर “तथ्य” को गढ़ने की बात साबित हो गई है। सत्य ने एक बार फिर से अपनी सर्वोच्चता स्थापित की है। झूठ को गढ़ने वाले अभी भी अपने स्वयं के साख की कीमत पर उसी झूठ को जारी रखे हुए हैं। 

 

बाधाएं उत्पन्न करने वालों का तथ्य

 

राफेल एक लड़ाकू विमान है जो अपनी विशेषताओं और असलहों से भारतीय वायु सेना की मारक क्षमता में इजाफा करेगा। भारत भौगोलिक दृष्टि से एक संवेदनशील क्षेत्र में स्थित है। इसे खुद को सुरक्षित करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में ऐसे मारक हथियार की आवश्यकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जब ऐसे रक्षा उपकरणों की खरीद की जाती है तो जाहिर है कि कुछ आपूर्तिकर्ता इससे चूकते ही हैं। आपूर्तिकर्ता चतुर लोग हैं। वे समझते हैं कि भारत में किसे आसानी से अपने चपेटे में लिया जा सकता है।

 

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एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के तौर पर राहुल गांधी द्वारा राफेल डील का विरोध एक बौखलाहट भरा कदम है। यह यूपीए सरकार थी जिसने राफेल को शॉर्टलिस्ट किया था क्योंकि यह तकनीकी रूप से सबसे अच्छा था और बाकियों से सस्ता था। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक गवर्नमेंट-टू-गवर्नमेंट डील के तहत फ्रांस सरकार से यूपीए सरकार की तुलना में बेहतर शर्तों और बेहतर कीमतों पर करार किया।

 

राहुल का विरोध मुख्यतः तीन कारणों से था:- 

 

पहला, वह इस तथ्य को बर्दाश्त नहीं कर सके कि प्रधानमंत्री मोदी ने हाल के भारतीय इतिहास में सबसे स्वच्छ और पारदर्शी सरकार चलाई है। यह एक भ्रष्टाचार और घोटाला-मुक्त सरकार है जहां बिचौलियों और घोटालेबाजों को देश के बाहर शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है। 

 

दूसरा, राहुल गांधी के पास एक बदनाम विरासत का बोझ है जो बोफोर्स द्वारा कलंकित है। वह बौखलाहट में राफेल और बोफोर्स के बीच एक 'अनैतिक समतुल्यता' स्थापित करने की कोशिश में लगे थे। लेकिन, राफेल डील में न तो बिचौलियों की कोई भूमिका थी, न रिश्वत का कोई सवाल था और न इसमें कोई ओटावियो क्वात्रोच्चि ही था। 

 

तीसरा, अंतर्राष्ट्रीय और सरकारी सहयोग के कारण यूपीए सरकार के घोटालेबाज अब भारत प्रत्यर्पित किए जा रहे हैं। स्पष्ट रूप से ऐसे लोगों में एक डर है। 

 

राहुल गांधी को लुटियंस दिल्ली के "पेशेवर राष्ट्रवादी" से तत्काल समर्थन मिला। स्थायी पीआईएल याचिकाकर्ताओं ने हमेशा की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं को दरकिनार करते हुए इसमें रोड़े अटकाने का ही काम किया। वे भारत को चोट पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ सहयोग करने को सदैव तैयार रहते हैं। दिल्ली में "किराये पर जोर से बोलने" और कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट के बावजूद "विषय विशेषज्ञों" का नया रोजगार दिल्ली में सृजित हुआ है। विध्वंसकों का गठबंधन इसलिए काफी व्यापक है। 

 

बोले गए झूठ 

 

मौलिक सत्य यह है कि दोनों मानकों मूल्य और क्वालिटी पर राफेल यूपीए की पसंद थी जिसे भुला दिया गया। 

 

पहला झूठ यह था कि केवल प्रधानमंत्री ने खरीद प्रक्रिया का निर्णय लिया और इस बाबत एयर फ़ोर्स, रक्षा मंत्रालय या डिफेन्स एक्विजेशन कौंसिल से कोई चर्चा नहीं की गई। यह आरोप भी लगाया गया कि प्राइस निगोशिएशन कमिटी, कॉन्ट्रैक्ट निगोशिएशन कमिटी और रक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी से किसी प्रकार का कोई अप्रूवल नहीं लिया गया। ये सारी बातें गलत सिद्ध हुईं। कॉन्ट्रैक्ट निगोशिएशन कमिटी और प्राइस निगोशिएशन कमिटी की दर्जनों बैठकें हुईं। अधिकतर मोल भाव एयर फोर्स के विशेषज्ञों ने किये और समझौते को रक्षा अधिग्रहण परिषद और सुरक्षा पर कैबिनेट समिति दोनों ने मंजूरी दी थी।  

 

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में प्रक्रियागत अनुपालन में किसी भी प्रकार की कोई विसंगति न पाते हुए अपनी संतुष्टि जाहिर की है, साथ ही सभी आरोपों को सिरे से ख़ारिज कर दिया है।

 

                

दूसरा बड़ा झूठ था कि यूपीए सरकार द्वारा तय किये गए प्रति एयरक्राफ्ट 500 मिलियन यूरो की कीमत के बदले एनडीए सरकार ने प्रति एयरक्राफ्ट 1600 मिलियन यूरो की कीमत चुकाई है। यह आरोप महज एक बेकार काल्पनिक लेखन के सिवा कुछ भी नहीं था। सरकार ने यूपीए के समय मूल्य निर्धारण और वर्तमान मूल्य निर्धारण का तुलनात्मक विवरण एक सीलबंद कवर में सर्वोच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया। इससे पता चलता है कि यूपीए सरकार की तुलना में एनडीए सरकार ने एक खाली विमान के लिए 9% सस्ता और एक हथियारयुक्त विमान के लिए 20% सस्ता सौदा किया। चूंकि यूपीए ने 18 एयरक्राफ्टों की आपूर्ति पर बातचीत की थी, इसलिए 9% और 20% का लाभ पहले के बाद एयरक्राफ्ट की आपूर्ति के साथ विस्तारित हो गया था क्योंकि एनडीए सरकार द्वारा तय किये गए एक अधिक अनुकूल मूल्य वृद्धि क्लॉज ने मूल्य अंतर को और बढ़ा दिया। अदालत ने कीमतों का अध्ययन किया और इसके ऊपर कभी प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की। 

 

तीसरा प्रमुख झूठ जिसे अदालत ने उजागर किया, यह था कि भारत सरकार ने एक विशेष व्यापारिक घराने को फायदा पहुंचाया है। न्यायालय ने पाया कि सरकार का ऑफसेट पार्टनर के चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है और ऑफसेट पार्टनर का चुनाव पूरी तरह से डेसॉल्ट द्वारा किया गया था। 

 

अदालत के फैसले के बाद, यह बहस खत्म हो जानी चाहिए थी लेकिन न तो लॉबीस्ट और न ही राजनीतिक विरोधी ही कभी अपनी सोच को छोड़ेंगे।                        

 

संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की गलत मांग 

 

राफेल के विरोधियों के पास अपने तथ्यों को रखने के लिए मंच के चुनाव का विकल्प था और उन्होंने इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को चुना। 

 

न्यायालय न्यायिक समीक्षा करता है, यह एक गैर-पक्षपातपूर्ण, स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक प्राधिकरण है। अदालत का फैसला अंतिम है। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के सिवा किसी के भी द्वारा इसकी समीक्षा नहीं की जा सकती है। एक संसदीय समिति कैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा कर सकती है? कानूनी और मानव संसाधन, दोनों तौर पर क्या राजनीतिज्ञों की एक समिति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्णय लिए गए मुद्दों की समीक्षा करने में सक्षम है? प्रक्रिया, ऑफसेट सप्लायर्स और मूल्य निर्धारण जैसे विषयों पर क्या संसदीय समिति अदालत से अलग रुख इख्तियार कर सकती है? क्या अनुबंध का उल्लंघन किया जा सकता है, देश की सुरक्षा से समझौता किया जा सकता है और देश की सुरक्षा से समझौता करते हुए मूल्य निर्धारण डेटा को संसद या इसकी समिति को उपलब्ध कराया जा सकता है? इससे मारक क्षमता और हथियारों की जानकारी सार्वजनिक हो जायेगी। संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की जांच का सार क्या था जब उन्होंने एकमात्र अवसर पर रक्षा लेन-देन की जांच की थी? 

 

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1987-88 में बी. शंकरानंद समिति ने बोफोर्स लेन-देन की जांच की। चूंकि संसद सदस्य हमेशा पार्टी लाइनों पर विभाजित होते हैं, इसलिए जांच में यह सामने लाया गया कि इस डील में कोई रिश्वत नहीं दी गई और बिचौलियों को भुगतान किए गए पैसे ‘वाइंडिंग अप’ चार्जेज थे। उस समय केवल विन चड्ढा एक बिचौलिये के रूप में दिखाई दिए। लेकिन फिर ओटावियो क्वात्रोच्चि सहित कई और बिचौलिए सामने आने लगे जिनके बैंक खातों का पता चला और जो किसी ‘वाइंडिंग अप चार्ज’ के हकदार नहीं थे। “द हिंदू” में चित्रा सुब्रमण्यम और एन राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों/दस्तावेजों और बाद में सामने आये तथ्यों से यह बात साबित हुई की जेपीसी में उल्लेख किए गए सभी तथ्य वास्तव में गलत हैं। यह तथ्यों को छुपाने का अभ्यास बन गया। उच्चतम न्यायालय ने इस पर अंतिम शब्द कह दिया है और उससे इसकी वैधता सिद्ध हो चुकी है। कोई राजनीतिक निकाय उच्चतम न्यायालय के निष्कर्ष के उलट निष्कर्ष नहीं निकाल सकता।


सीएजी अस्पष्टता 

 

रक्षा सौदों का लेन-देन समीक्षा के लिए सीएजी (CAG) में जाते हैं। सीएजी की संस्तुति संसद में जाती हैं और उन्हें पब्लिक अकाउंट्स कमिटी (पीएसी) को संदर्भित किया जाता है जिसकी रिपोर्ट संसद के समक्ष रखी जाती है। इस बात को सरकार ने तथ्यात्मक रूप से और पूरी तरह सही ढंग से सर्वोच्च अदालत के समक्ष रखा था। राफेल की आडिट जांच कैग के समक्ष लंबित है। उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं। जब कैग की रिपोर्ट आएगी तो उसे पीएसी को भेजा जाएगा। इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है, तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है। यह किया जा चुका है। अब यह अदालत के विवेक पर निर्भर है कि वह बताए कि कैग की समीक्षा किस चरण में लंबित है। प्रक्रिया, कीमत और आफसेट आपूर्तिकर्ता पर (न्यायालय के) अंतिम निष्कर्षों के संबंध में कैग की राय का कोई मायने नहीं है। लेकिन हार से बिदके लोग सच्चाई को कभी स्वीकार नहीं करते। तमाम तरह के झूठ में विफल होने के बाद अब उन्होंने न्यायालय के फैसले पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। कांग्रेस अपने शुरुआती झूठ में विफल होने के बाद फैसले को लेकर कई और झूठ गढ़ रही है।

 

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मुझे यकीन है कि कांग्रेस पार्टी संसद के मौजूदा सत्र के दौरान राफेल पर चर्चा के बजाय हंगामा करना चाहेगी। तथ्यों पर कांग्रेस ने झूठ बोला। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय निश्चित रूप से रक्षा लेनदेन पर चर्चा में कांग्रेस पार्टी की कमजोरियों को रेखांकित करता है। यह कांग्रेस पार्टी की विरासत और उसके रक्षा अधिग्रहण के बारे में देश को याद दिलाने का एक शानदार अवसर होगा- हम में से कुछ लोगों के लिए तथ्यों को रखने का तो तो वास्तव में यह एक महान अवसर होगा।

 

-अरुण जेटली

(लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं।)

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