By योगेंद्र योगी | Aug 22, 2022
राजस्थान के जालोर जिले के सुराणा गांव में मटके से पानी पीने पर दलित छात्र की पिटाई से हुई कथित मौत को लेकर कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार की खूब किरकिरी हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा गहलोत सरकार के गले की फांस बन गया है। गहलोत सरकार की हालत यह है कि उसके लिए इस मुद्दे पर न उगलते बन पा रहा है और ना ही निगलते। विपक्षी दल और दलित संगठन छात्र की शिक्षक के मटके से पानी पीने पर पिटाई से हुई मौत को लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। मृतक छात्र इंद्र कुमार के गांव सुराणा में देशभर से दलित नेताओं और राजनीतिक दलों के नेताओं के दौरों ने गहलोत सरकार की मुसीबत बढ़ा दी है। हालांकि पुलिस ने इस मामले में आरोपी शिक्षक और अन्य लोगों को गिरफ्तार किया है। गहलोत सरकार ने भी मृतक के परिजनों को मुआवजा दिया है। इसके बावजूद मुख्यमंत्री गहलोत इस मामले से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं।
यह पहला मौका नहीं है कि जब राजस्थान में किसी दलित के साथ लोमहर्षक आपराधिक वारदात हुई है। राजस्थान पूर्व में भी ऐसे मामलों को लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है। दलित दूल्हों को घोड़ी से उतार देना। दलितों को गांवों में सार्वजनिक कुंओं से पानी नहीं भरने देना। दलित महिलाओं से छेड़छाड़ और बलात्कार, स्कूलों में दलित छात्रों से भेदभाव की घटनाओं को लेकर कई बार राजस्थान बदनामी का कलंक झेल चुका है। इनमें सबसे चर्चित जयपुर जिले का भंवरी देवी कांड रहा। सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी को गांव के लठैतों ने सबक सिखाने के लिए बलात्कार किया। यह मामला अतंरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में रहा।
दरअसल राजस्थान राजा-रजवाड़ों का राज्य रहा है। उस दौरान दलितों से अत्याचार की घटनाओं को सामान्य माना जाता था। आजादी के बाद कानून बनने से दलितों के हालात ज्यादा नहीं बदले, इसके बावजूद कि इस मरू प्रदेश में ज्यादातर समय कांग्रेस का शासन रहा। कांग्रेस प्रारंभ से ही अपने को दलितों की हितैषी घोषित करती रही है। जबकि दलितों से सर्वाधिक ज्यादती और अत्याचार भी कांग्रेस के शासन में ही हुए हैं। मौजूदा वक्त में भी राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। इसके बावजूद दलितों से अत्याचारों के मामले राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाए रहते हैं। दलितों के लिए कानून बेशक बन गया हो किन्तु मानसिकता में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है। प्रदेश में दलितों के साथ मारपीट और उनके घरों में आग लगाने, गांवों में उनका हुक्का-पानी बंद करने की घटनाएं भी होती रही हैं। ऐसे मामलों में पुलिस और प्रशासन की भूमिका भी हमेशा बटेर की तरह आंखें फेरे रहने जैसी रही है। मामला चूंकि वोटों और राजनीति से जुड़ा होता है, अत: अफसर भी तब तक कार्रवाई का इंतजार करते हैं, जब तक या तो सरकार से कोई इशारा ना मिले या जोरदार हंगामा ना हो।
दलित छात्र की मौत के मामले में भी कमोबेश यही हो रहा है। पहले छात्र की मौत को सामान्य बताने का प्रयास किया गया। प्रकरण के तूल पकड़ने के बाद शासन-प्रशासन हरकत में आया। तब कहीं जाकर आरोपियों पर कार्रवाई की गई। इस मुद्दे पर अब जमकर राजनीति हो रही है। कांग्रेस और विपक्षी दल खुद को दलितों का खैरख्वाह और दूसरे को विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं। दलित संगठन और दलित नेता भी वोटों की बहती गंगा में डुबकी लगाने से नहीं चूक रहे हैं। कांग्रेस सरकार की कोशिश यही है कि इस मुद्दों को फैलने से किसी भी तरह से रोका जाए, क्योंकि इससे प्रदेश के दलित वोट बैंक के ध्रुवीकरण का खतरा है। यही वजह रही कि भीम आर्मी के मुखिया चन्द्रशेखर आजाद को पुलिस ने मृतक के गांव नहीं जाने दिया। स्कूल छात्र की मौत की घटना के विरोध में कांग्रेस के एक दलित विधायक ने इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। दलितों को कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक माना जाता रहा है। इस घटना से इसमें सेंध लगाने के आसार बन गए हैं।
ऐसा नहीं है कि दलितों के साथ राजस्थान में हुई ज्यादतियों और अत्याचारों के लिए सिर्फ सरकार और स्थानीय प्रशासन ही जिम्मेदार हों, मानवाधिकार और महिला आयोग जैसे संवैधानिक संगठन की हालत भी कठपुतली जैसी है। ऐसी घटनाओं के बाद ये संगठन तब तक सक्रिय नहीं होते है, जब तक सरकार का इशारा नहीं मिल जाए। दरअसल इन संगठनों में राजनीतिक नियुक्तियां होती हैं। मुख्यमंत्री के कृपा पात्रों को ही संगठनों में स्थान मिलता है। ऐसे में इन संगठनों के पदाधिकारियों में इतना साहस नहीं है कि सरकार का किसी तरह से विरोध कर सकें। ये संगठन अपनी नाक बचाने के लिए तभी सक्रिय होते हैं, जब पानी सिर से गुजर जाता है। ऐसी घटनाएं घटित ना हों इसके लिए इन संगठनों ने कभी धरातल पर उतर कर गंभीरता से प्रयास ही नहीं किए, अन्यथा आए दिन दलितों पर होने वाले अत्यचारों की नौबत ही नहीं आती। सरकार और प्रशासन में इन संगठनों का लेश मात्र भी भय नहीं है। हालांकि इन संगठनों के पास सीधे कार्रवाई करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, किन्तु ये अपनी रिपोर्ट को सार्वजनिक करके ही सरकार की फजीहत करा सकते हैं। इनकी निष्क्रियता से भी दलित विरोधी मानसिकता के लोगों को कोई भय नहीं है।
दलितों को राजस्थान में न सिर्फ अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि आधारभूत सुविधाओं के नाम पर उनकी हालत ऊंट के मुंह में जीरे जैसी है। प्रदेश में ऐसी दलित बस्तियों की कमी नहीं है, जहां पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं। भ्रष्टाचार और नौकरशाही की अकर्मण्यता के कारण उनकी बस्तियों तक योजनाओं का पूरा फायदा नहीं पहुंच पाता। आजादी के बाद से तकरीबन कांग्रेस का शासन होने के बावजूद प्रदेश में दलितों के जीवन स्तर में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। गांवों के हालात अभी तक भी दलितों के लिए दलदल बने हुए हैं। सरकारी योजनाओं के फायदे दलितों तक दिखावे के तौर पर ही पहुंचे हैं। शिक्षक की पिटाई से स्कूल छात्र की मौत प्रदेश में दलितों की हालत की एक बानगी भर है। इसमें सुधार के लिए कांग्रेस सरकार के पास कोई रोडमैप नहीं है। गहलोत सरकार की मौजूदा नीतियों से ऐसा नहीं लगता कि आगे भी इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
- योगेन्द्र योगी