केरल में वामपंथियों ने भाजपा को प्रवेश नहीं करने देने के लिए कांग्रेस को जिता दिया

By विजय कुमार | Jun 14, 2019

राजनीति में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं; पर इसमें महत्व नंबर एक या दो होने का ही है। लोग भी तीसरे या चौथे को महत्व नहीं देते। केरल का उदाहरण लें। वहां कांग्रेस को 15 तथा वामपंथियों को एक सीट मिली। दूसरी ओर भा.ज.पा. 15.6 प्रतिशत वोट पाकर भी खाली हाथ रह गयी। असल में सबरीमला मंदिर में हर आयु की महिलाओं के प्रवेश से हिन्दू नाराज थे। इसके विरुद्ध भारी आंदोलन हुआ। हिन्दू इस लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी वामपंथियों को पीटना चाहते थे; पर भा.ज.पा. वहां नंबर दो पर नहीं है। वोटों के विभाजन से अधिकांश सांसद वामपंथियों के बनते। इसलिए हिन्दुओं ने दूसरे पायदान पर खड़ी कांग्रेस को वोट दिया।

 

केरल में वामपंथियों की लड़ाई कांग्रेस से कम और भा.ज.पा. से अधिक है। त्रिपुरा और बंगाल खोने के बाद वामपंथी किसी कीमत पर यहां भा.ज.पा. को घुसने देना नहीं चाहते। इसलिए अंदरखाने वामपंथियों ने अपने लोगों को कहा कि चाहे कांग्रेस जीत जाए, पर भा.ज.पा. नहीं जीतनी चाहिए। उधर भा.ज.पा. समर्थकों ने भी वामपंथियों को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस को वोट दे दिये। यानि भा.ज.पा. के नंबर दो न होने से कांग्रेस की चांदी हो गयी। दक्षिण के अन्य राज्यों में रा.स्व. संघ और समविचारी संस्थाओं का काम ठीकठाक है; पर वह भा.ज.पा. के वोटों में नहीं बदलता, चूंकि वहां क्षेत्रीय दल ही नंबर एक और दो की लड़ाई में हैं। 

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दिल्ली में कांग्रेस यदि अरविंद केजरीवाल से समझौता कर लेती, तो दोनों को लोकसभा में एक-दो सीट मिल जाती; पर पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस शून्य पर रहकर नंबर तीन पर आ गयी थी। शीला दीक्षित की निगाह अपनी खोई हुई जमीन पर है। इसलिए वे अकेले लड़ीं। इससे भा.ज.पा. सातों सीट जीत गयी; लेकिन कांग्रेस नंबर दो पर आ गयी। बड़बोले केजरीवाल नंबर तीन पर पहुंच गये। 

 

बंगाल में भा.ज.पा. का अस्तित्व अब तक कुछ खास नहीं था। वामपंथी गुंडागर्दी से दुखी लोगों ने ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाया; पर मुख्यमंत्री बनते ही वे भी उसी राह पर चल पड़ीं। ऐसे में विपक्ष की खाली जगह भरने भा.ज.पा. आगे आयी। अतः ममता बनर्जी से चिढ़े वामपंथियों और कांग्रेसियों ने इस बार उसे ही वोट दिये। इससे भा.ज.पा. नंबर दो पर आ गयी और अब विधानसभा में भी उसका दावा मजबूत हो गया है। 

 

उ.प्र. में इस समय भा.ज.पा. नंबर एक पर है। 2014 के लोकसभा चुनाव में स.पा. को पांच सीटें मिलीं; पर मायावती खाली हाथ रह गयीं। 2017 का विधानसभा चुनाव भा.ज.पा. ने जीता। स.पा. दूसरे और ब.स.पा. तीसरे नंबर पर रही। अब मायावती और अखिलेश दोनों नंबर दो बनना चाहते हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव वे मिलकर लड़े। इसमें ब.स.पा. का पलड़ा भारी रहा। अतः मायावती ने गठबंधन तोड़ दिया। चूंकि अब लड़ाई दिल्ली की नहीं, लखनऊ की है। 

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जो दल भा.ज.पा. के साथ गठबंधन में हैं, वहां भी यही समस्या है। बिहार में नीतीश कुमार का कद घट रहा है; पर अब वे लालू के साथ नहीं जा सकते। उधर भा.ज.पा. अब बड़ा भाई बनना चाहती है। यदि लोकसभा की तरह विधानसभा चुनाव में भी दोनों ने आधी-आधी सीटें लड़ीं, तो भा.ज.पा. आगे निकल जाएगी। इसी से नीतीश बाबू घबराये हैं।  

 

महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री पद भा.ज.पा. के पास है, जिस पर शिवसेना की भी निगाह है। शिवसेना वाले पिछला विधानसभा चुनाव अकेले लड़कर हाथ जला चुके हैं। इस लोकसभा में वे यदि अकेले लड़ते, तो एक-दो सीट ही मिलती; पर मोदी लहर में वे भी पार हो गये। अब विधानसभा चुनाव पास है, इसलिए वे फिर आंखें तरेर रहे हैं; लेकिन एक नंबर पर बैठी भा.ज.पा. उन्हें मुख्यमंत्री पद कभी नहीं देगी।

 

पंजाब में भा.ज.पा. अकाली दल के साथ है। भा.ज.पा. का प्रभाव शहरी हिन्दुओं में, जबकि अकालियों का ग्रामीण सिखों में है। भा.ज.पा. ने जब एक सिख (नवजोत सिंह सिद्धू) को आगे बढ़ाया, तो बादल साहब नाराज हो गये। भा.ज.पा. ने टकराव मोल नहीं लिया, अतः सिद्धू कांग्रेस में चले गये। भा.ज.पा. अभी गठबंधन के पक्ष में है। शायद प्रकाश सिंह बादल के रहते तक तो वह चुप रहेगी; पर फिर वहां भी एक नंबर के लिए दोनों में तकरार होगी। राजनीति असंभव को संभव बनाने का नाम है। केन्द्र और राज्यों में नंबर एक और दो की लड़ाई जारी है। भविष्य में कौन कहां होगा, भगवान ही जानता है।

 

-विजय कुमार

 

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