By Anoop Prajapati | Jul 23, 2024
भारत में अखाड़ों की पेशवाई यूं ही लोगों का मन नहीं मोह लेती। सनातन संस्कृति के रक्षक कहे जाने वाले नागा संन्यासी अखाड़ों की शान हैं और उनकी पेशवाई के चर्चे ब्रिटिश संसद तक पहुंच चुके हैं। 18 वीं सदी के अंत में ईसाई संगठनों ने पेशवाई की परंपरा पर सवाल उठाते हुए इसे रोकने तक की मांग की थी। इसके जवाब में तत्कालीन भारत सचिव सर आरए क्रॉस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट को जो जवाब दिया उसमें भारतीय संस्कृति का मजबूत प्रभाव दिखता है। क्रॉस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट को बताया था कि पेशवाई केवल साधु-संतों के संगम क्षेत्र में प्रवेश की रस्म ही नहीं बल्कि यह अखंड भारतीय संस्कृति के प्रदर्शन और दर्शन का दुर्लभ अवसर है।
कुंभ मेला क्षेत्र में पेशवाई के पहुंचने के समय अधिकारियों द्वारा स्वागत करने की परंपरा भी पुरानी है। ब्रिटिश सरकार के समय भी यह व्यवस्था लागू थी। तब पेशवाई की अगवानी अंग्रेज अफसर किया करते थे। क्षेत्रीय अभिलेखागार के दस्तावेज बताते हैं कि 1888 में हुए अर्ध कुंभ के दौरान पेशवाई की अगुआई यूरोपीय अधिकारी ने की थी। कई ईसाई संगठनों को यह नागवार गुजरा था और उन्होंने इसका विरोध भी किया था।
संगठनों ने ब्रिटिश उच्चाधिकारियों को इस संबंध में शिकायती पत्र भी भेजे। क्रिश्चियन ब्रदरहुड व कई अन्य ईसाई संगठनों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य सैमुअल स्मिथ को पत्र लिखकर मामले की जांच करवाने की मांग की थी। सैमुअल ने पेशवाई की यूरोपीय अधिकारी द्वारा अगवानी किए जाने को ब्रिटिश पार्लियामेंट में मुद्दा बनाया।
इसके बाद पार्लियामेंट में भारत सचिव से जवाब मांगा। इलाहाबाद के तत्कालीन मैजिस्ट्रेट द्वारा भारत सचिव को भेजे जवाब में न केवल ब्रिटिश संसद को पेशवाई की ऐतिहासिकता से परिचित करवाया बल्कि कई ऐसी संस्थाओं को भी मुंह तोड़ जवाब मिला जिन्होंने यूरोपीय अधिकारी द्वारा पेशवाई की अगवानी को हिंदू तुष्टीकरण कहा था। दस्तावेज बताते हैं कि ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेजे गए जवाब में इलाहाबाद के मैजिस्ट्रेट ने लिखा था कि नागाओं का जुलूस अश्लीलता नहीं पूरी तरह धर्म को समर्पित जुलूस है। इसमें अखाड़ों की परंपरा का पूरा पालन किया जाता है। जुलूस के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कार्य कुशल अधिकारियों में यूरोपीय अधिकारी भी नियुक्त होते रहे हैं। इसलिए इसमें कोई नई बात नहीं है।