By संतोष पाठक | Jun 17, 2021
अब तक लोक जनशक्ति पार्टी के चेहरे के रूप में जाने जाने वाले चिराग पासवान अपने राजनीतिक जीवन के अब तक के सबसे बड़े संकट के दौर में फंसे हुए हैं। जिस पार्टी की स्थापना उनके पिता रामविलास पासवान ने की थी, आज उसी पार्टी से उन्हें बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति पारस ने पार्टी के अन्य 4 सांसदों को अपने साथ मिलाकर पहले चिराग को लोकसभा में संसदीय दल के नेता पद से हटाया और बाद में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से भी हटा दिया।
यह बात बिल्कुल सही है कि पार्टी का एकमात्र चेहरा लंबे समय तक सिर्फ और सिर्फ रामविलास पासवान ही रहे हैं। रामविलास के जीवित और सक्रिय रहने के दौरान पार्टी के अन्य नेताओं की बात तो छोड़िए खुद उनके दोनों भाई रामचन्द्र पासवान और यही पशुपति पारस उनके सामने बोलने की हिम्मत तक नहीं कर पाते थे। लेकिन यह डर से ज्यादा दोनों भाईयों का समर्पण था। दोनों भाई यह बखूबी जानते थे कि रामविलास की राजनीति की वजह से ही वो चुनाव जीतते रहे हैं और उन्हीं की वजह से सत्ता में भागीदारी भी मिलती रही है। रामविलास पासवान की वजह से ही उनके छोटे भाई स्वर्गीय रामचन्द्र पासवान लगातार सांसद बनते रहे तो वहीं उनके दूसरे छोटे भाई पशुपति पारस बिहार की कई सरकारों में मंत्री पद का आनंद लेते रहे हैं।
अपने परिवार के प्रति रामविलास पासवान का समर्पण किसी से छुपा नहीं रहा है। इसलिए हमेशा से ही लोक जनशक्ति पार्टी को पासवान परिवार की ही पार्टी माना जाता रहा है। परिवार के प्रति रामविलास पासवान का यह प्रेम 2019 के लोकसभा चुनाव में भी नजर आया। 2019 के लोकसभा चुनाव में लोजपा ने जिन छह सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से तीन सीटों पर पासवान के परिवार के सदस्यों (बेटा चिराग पासवान और दो भाई पशुपति पारस और रामचंद्र पासवान) ने ही चुनाव लड़ा था। तीनों ही लोकसभा का चुनाव जीते। आगे चलकर भाजपा के साथ हुए समझौते के मुताबिक रामविलास पासवान राज्यसभा सदस्य बने और इस तरह संसद में सबसे बड़ा कोई परिवार था तो वह रामविलास पासवान का ही परिवार था।
सत्ता के प्रति इस परिवार की दिवानगी का आलम इतना ज्यादा हो गया है कि जैसे ही रामविलास पासवान के भाईयों और परिवार के अन्य सदस्यों को यह लगा कि चिराग पासवान उन्हें सत्ता नहीं दिलवा सकते तो उन्होंने अंदर ही अंदर रणनीति बनानी शुरू कर दी। अभी रामविलास पासवान की मृत्यु हुए एक साल भी नहीं हुआ है, अभी तक उनकी पहली बरसी भी नहीं आई है लेकिन उन्हीं के छोटे भाई ने उनके आदेशों को धत्ता बताते हुए उनके द्वारा घोषित उत्तराधिकारी चिराग पासवान को राजनीतिक रूप से खत्म करने के अभियान को अंजाम दे दिया।
रामविलास पासवान से प्रेरणा लें चिराग
रामविलास पासवान भले ही पार्टी का चेहरा रहे हों लेकिन यह बात भी बिल्कुल सही है कि पार्टी संगठन के मामले में उन्होंने हमेशा अपने भाई पशुपति पारस पर पूरा भरोसा किया। पासवान ने स्वयं कई बार बिहार से बाहर निकल कर उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर भी लड़ने का प्रयास किया लेकिन वो कभी भी कांशीराम-मायावती की तरह अपने आपको दलितों का राष्ट्रीय नेता नहीं बनाए। उन्होंने देश के कई राज्यों में पार्टी संगठन का गठन किया लेकिन पार्टी को हमेशा ही ताकत बिहार से ही मिली और बिहार संगठन को बनाने में पशुपति पारस ही हमेशा निर्णायक भूमिका में रहे। इसलिए आज पार्टी के सारे सांसद (जो बिहार से ही हैं) पशुपति पारस के साथ हैं। पार्टी के पटना कार्यालय पर पशुपति गुट का कब्जा है।
इस हालत में चिराग के लिए यह जरूरी है कि वो अपने पिता के संघर्ष के दौर को याद करें। अपने राजनीतिक जीवन में कभी भी पासवान ने किसी पार्टी या विचारधारा से ज्यादा प्रेम नहीं किया। पासवान ने अपने जीवन का पहला चुनाव 1969 में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट (बिहार की अलौली विधानसभा) से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में जीता। पासवान ने रिकॉर्ड बनाने वाला अपना लोकसभा चुनाव 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर जीता। इसके बाद पासवान लोकदल, जनता दल, जनता दल यूनाइडेट के टिकट पर चुनाव जीतते रहे। सन् 2000 में नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइडेट से नाता तोड़ कर पासवान ने लोक जनशक्ति पार्टी के नाम से अपनी पार्टी का गठन किया। वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री बने। गोधरा कांड के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र की भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए पासवान ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए का दामन थाम लिया। राजनीतिक माहौल बदला तो 2014 में उन्होंने इन्हीं नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एनडीए का दामन थाम लिया। बिहार में वो कभी नीतीश कुमार के साथ रहे तो कभी लालू यादव के साथ। केंद्र में वो कभी यूपीए के साथ रहे तो कभी एनडीए के साथ।
रामविलास पासवान देश के इकलौते राजनेता रहे हैं, जिन्होंने देश के छह प्रधानमंत्रियों की सरकारों में मंत्री का पद संभाला। विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर, एचडी देवगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री पद संभालने वाले रामविलास पासवान को यूं ही राजनीति का मौसम वैज्ञानिक नहीं कहा जाता था।
चिराग के राजनीतिक कौशल की परीक्षा का समय
जाहिर-सी बात है कि अब चिराग पासवान को अपने पिता रामविलास पासवान की तरह का राजनीतिक कौशल दिखाना होगा। अपने चाचा और चचेरे भाई समेत बगावत करने वाले पांचों सांसदों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर और लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को लेटर लिखकर चिराग ने इसकी शुरुआत तो कर ही दी है लेकिन चाचा के साथ शुरू हुई यह लड़ाई जीतने के लिए चिराग को एक ताकतवर साथी की जरूरत पड़ेगी। अगर भाजपा आलाकमान उनका साथ देता है तो उनका पलड़ा बिहार से लेकर दिल्ली तक भारी रहेगा (हालांकि इसकी उम्मीद अभी कम ही है।) दूसरा रास्ता यह है कि बिहार में चाचा को पटखनी देने के लिए राजद का साथ लिया जाए। वैसे भी जेल से बाहर आने के बाद लालू यादव आजकल दिल्ली में ही हैं और राजद ने उनका साथ देने का ऐलान कर ही दिया है। लेकिन इन दोनों से अलग हटकर चिराग के पास एक तीसरा रास्ता भी है और वो है संघर्ष का। वह पार्टी के नाम, चुनाव चिन्ह, पार्टी कार्यालय और पार्टी के संसाधनों पर कब्जा करने की कोशिश करें और अगर इस लड़ाई में वो जमीन के साथ-साथ अदालत में भी हार जाते हैं तो लोजपा (रामविलास) का गठन कर अकेले ही बिहार के चुनावी मैदान में उतर जाएं। बिहार की जनता के आशीर्वाद से अपने आपको रामविलास पासवान का असली उत्तराधिकारी साबित करें। 2024 के लोकसभा और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी जोर-शोर से करें और तब तक बिहार को ही अपना स्थायी घर बना लें।
-संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)