आभास के पापा का फिर तबादला हुआ। नई जगह जाकर, स्कूल में दाखिला लिया। नए दोस्त बनने लगे। मोहन आभास का सहपाठी था। वे दोनों पड़ोसी बने तो उसकी और आभास की मित्रता होते देर नहीं लगी। पढ़ाई में दोनों अच्छे थे। दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे, आपस में खूब पटने लगी थी। कुछ ही महीनों में उनके परिवार भी आपस में मिलने जुलने लगे। उनके सहपाठियों में उनकी मित्रता ने पहचान बना ली। अध्यापक किसी काम को कहते तो वे दोनों लपक कर उसे करने को तैयार रहते।
स्कूल में सहज प्रतिस्पर्धा का माहौल होता ही है। कुछ दिन बाद स्कूल में वार्षिक खेल प्रतियोगिता का आयोजन होना था। उसके बाद स्कूल के खिलाडियों का एक समूह तैयार किया जाना था जिसे कुछ महीने बाद शिमला में आयोजित होने वाली अंतर्विद्यालयी खेल प्रतियोगिता में हिस्सा लेना था। अध्यापकों के कहने पर सभी कक्षाओं के इच्छुक विद्यार्थियों ने अपने नाम लिखवाए। सामान्य ट्रायल के बाद चुने हुए विद्यार्थियों को, खेल अध्यापक ने अभ्यास करवाना था ताकि अंतर्विद्यालयी खेल प्रतियोगिता में ज़्यादा से ज्यादा पुरस्कार जीत सकें।
खेल या शौक के सन्दर्भ में सभी की रुचियां समान नहीं होती। आभास की दिलचस्पी खेलों में कम डांस, पेंटिंग और डिबेट में ज़्यादा थी। मोहन के कहने पर वह ट्रायल में चला तो गया लेकिन क्वालिफाइ नहीं कर पाया। मोहन पहले से खेलता था, सफल रहा और अन्य विद्यार्थियों के साथ अभ्यास के लिए जाने लगा। अब सहपाठी आभास को यह कहकर चिढाने लगे कि तुम्हारा मित्र आगे निकल गया। तुम्हें खेलना नहीं आता, अब तो तुम्हारी दोस्ती खत्म। आभास ने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप सुनता रहा।
शाम को घर पहुंचकर उसने अपनी मम्मी से बात की। स्कूल की बातें वह रोजाना मम्मी से शेयर करता था। मम्मी उसे उचित सुझाव देती थी। इस बार भी पूरी बात सुनकर मम्मी ने कहा, “देखो बेटा, संसार में सब एक जैसे नहीं होते। यह ज़रूरी नहीं कि हर विद्यार्थी, हर काम करे या सभी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेकर पुरस्कार जीते। एक बच्चा एक काम में बेहतर होता है, दूसरा दूसरे में। किसी की दिलचस्पी फुटबाल या टेबल टेनिस में होती है, दूसरे की मिमिक्री या चित्रकारी में, हां अगर हम कोशिश करें तो....”
“मैं किसी खेल में भी कोशिश करना चाहता हूं” आभास ने कहा।
“हां ज़रूर, क्यूं नहीं, कुछ सीखने या करने की अगर ठान लो तो क्या मुश्किल है। तुम्हारे दादा कहा करते थे “मेहनत का रास्ता मुश्किल है, मगर यह हर मुश्किल का हल है।”
मोहन, खेल प्रतियोगिता से लौटकर आया तो कक्षा और स्कूल में उसकी चर्चा होती रही क्यूंकि वह तीन इनाम जीत कर लाया था। आभास ने जाकर उसे बधाई दी, लेकिन पता नहीं क्यूं उसने अच्छे से बात नहीं की। संभवत उसे सफलता का अभिमान हो गया था। आभास को यह अच्छा नहीं लगा। उसने फिर मम्मी से बात की, उस दिन पापा भी वहीँ बैठे हुए थे। उन्होंने कहा, ''अच्छे मित्रों को ऐसा नहीं करना चाहिए । सफलता का अभिमान नहीं करना चाहिए। भविष्य में कोई और कोशिश करेगा तो वह भी जीत सकता है।''
आभास ने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह खेलों में भी हिस्सा लेगा। इस बारे उसने पापा से कहा तो उन्होंने समझाया, “खेलना भी ज़रूरी है बेटा, ताकि हमारा शरीर स्वस्थ रहे, स्वस्थ शरीर से ही सब कुछ संभव है। लेकिन यह ज़रूर समझना चाहिए कि जीवन में जो कुछ भी हमें मिलना है वह पढ़ाई के दम पर ही मिलना है। पहले पढ़ाई बाक़ी सब बाद में। हां, अगर आप खेल में दिलचस्पी रखते हो तो ज़रूर खेलना चाहिए।”
आभास को बैडमिंटन देखना अच्छा लगता था, उसने पापा से कहा, “मुझे तो बैडमिंटन पसंद है, आप भी तो यही खेलते हो । क्या मैं कल से, आप के साथ बैडमिंटन सीखने क्लब चल सकता हूं।”
पापा उसको सहयोग देने को तैयार थे, बोले, “कल से क्यूं बेटा, आज से ही क्यूं नहीं। मेरे पास एक एक्स्ट्रा रैकेट है, उसे ले लो, थोड़ी देर बाद चलते हैं।” कुछ देर बाद आभास और उसके पापा, दोनों खेलने जा रहे थे और मम्मी खुश होकर, आल द बेस्ट कह रही थी। वह जानती थी कोशिश, सफलता की पहली सीढ़ी होती है।
- संतोष उत्सुक