आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय दल बनने के बाद 2024 के आम चुनाव में मोदी के मुकाबले आप के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल मजबूत विकल्प हो सकते हैं। विपक्षी दल एकजुटता के काफी समय से प्रयास में लगे हैं। हर दल का नेता अपने को प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने में लगा था, किंतु केजरीवाल ने अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाकर इस दिशा में लंबी छलांग लगा दी। आप के राष्ट्रीय पार्टी बनने के बाद ये भी साफ हो गया कि अब तक विपक्षी एकता से केजरीवाल दूर क्यों थे? वे चुपचाप अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाने में लगे थे। और वे अब इस इरादे में कामयाब हो गए।
पंजाब में सफलता के बाद उनकी पार्टी गुजरात और हिमाचल में चुनाव में उतरी। हिमाचल प्रदेश में पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी (आप) को केवल 1.10 प्रतिशत मत हासिल हुए। वह अपना खाता तक नहीं खोल पाई। 67 सीटों पर खड़े आप के प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। कई सीट पर उसे नोटा से भी कम वोट मिले हैं। कुल मिलाकर नोटा का प्रतिशत करीब 0.60 रहा। डलहौजी, कसुम्पटी, चौपाल, अर्की, चंबा और चुराह जैसे निर्वाचन क्षेत्रों में आप की तुलना में लोगों ने नोटा को अधिक तरजीह दी।
गुजरात में आम आदमी पार्टी पहली बार चुनाव में उतरी। उसने पांच सीटों पर जीत हासिल की। ये उसके लिए बड़ी उपलब्धि है। आप के 182 उम्मीदवारों में से 126 उम्मीदवारों की जमानत भले ही जब्त हो गई। पर 35 सीटों पर आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर रही। आप ने जो पांच सीटें जीतीं, इनमें से दो सीटों पर 2017 में बीजेपी, दो पर कांग्रेस और एक पर बीटीपी का कब्जा था। भाजपा के गढ़ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृहराज्य में जाकर चुनाव लड़कर विजय पाना आसान नहीं है। यहां आप ने पांच सीट पर विजय पाई और 35 पर दूसरे नंबर पर रही। यह उसकी बड़ी उपलब्धि है। इससे पहले वह पंजाब में सरकार बनाकर दिल्ली नगर निगम में बहुमत पाने में कामयाब रही।
अरविंद केजरीवाल ने अपने इरादे अभी तक जाहिर नहीं किए थे। वह कभी विपक्षी गठबधंन की बैठक में शामिल भी नहीं हुए। 2024 के चुनाव को देखते हुए कभी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एकता का प्रयास किया। तो कभी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने, पर कामयाबी नहीं मिली। क्योंकि हर दल का क्षत्रप अपने को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानता रहा है। वह किसी दूसरे दल के नेता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जब भी कहीं चुनाव आते हैं, विपक्षी एकजुट होना शुरू हो जाते हैं।
अब तक पिछले आठ साल में दर्जनों बार कांग्रेस समेत दूसरे विपक्षी दलों ने एकजुटता के प्रयास किए किंतु यह प्रयास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे के आगे फीके ही रहे। कारण भी साफ रहा कि जो भी दल एकता के प्रयासों में भागीदार बनना चाहता है वह अपने नेता को संयुक्त विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में देखना चाहता है। किसी दूसरे को नहीं। सबके अपने स्वार्थ होने के कारण ये एका आगे नहीं बढ़ पाती।
बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा से नाता तोड़ने के बाद बड़े आक्रामक रूप में भाजपा को विरुद्ध दिखाई दिए। अपने प्रदेश से निकल कर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को पटखनी देने की कोशिश में लग गए। एकता के प्रयासों को हरियाणा में पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती पर आयोजित रैली में आगे बढ़ाने की कोशिश हुई। इस रैली में दस राज्यों में विपक्षी दलों के 17 बड़े नेताओं को आमंत्रित किया गया था। लेकिन कई बड़े चेहरों ने इस कथित तीसरे मोर्चे की रैली में शिरकत नहीं की। शिरकत नहीं करने वालों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन जैसे बड़े चेहरे थे। रैली में अपनी मौजूदगी से ये भाजपा को बड़ा संदेश दे सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ये तमाम नेता यहां नहीं पहुंचे। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को बैठे-बिठाए हमला बोलने का मौका दे दिया।
वैसे जब भी एकता के प्रयास हुए, परीक्षा की घड़ी में ये सब तिनके की तरह बिखर गए। राष्ट्रपति के चुनाव से पूर्व ममता बनर्जी बड़े जोश से विपक्ष को एकजुट करने में लगीं थीं। किंतु राष्ट्रपति का चुनाव आते ही झारखंड मुक्ति मोर्चा ने सबसे पहले भाजपा प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के समर्थन का एलान किया। इसके बाद उत्तर प्रदेश में सपा गठबंधन के साथी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने भी राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी का समर्थन किया। ऐसा ही उपराष्ट्रपति के चुनाव में हुआ। यदि सारा विपक्ष एकजुट हो जाता तो भाजपा प्रत्याशी का जीतना संभव नहीं था। पर विपक्ष सदा बंटता रहा है।
अब देश में भाजपा के अलावा दो राष्ट्रीय दल हो गए हैं कांग्रेस और आप। कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी के मुकाबले का कोई चेहरा नहीं हैं। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एवं सांसद राहुल गांधी इस समय देश जोड़ो यात्रा पर निकले हैं। उनका प्रयास अपने को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने का है, किंतु पिछले कुछ सालों में उनकी छवि गैर गंभीर नेता की बन गई है, जो संसद में कभी आंख मारता है, तो कभी भाषण देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गले जा मिलता है। उनसे बड़ा चेहरा तो आज उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा बन गयी हैं।
आप के अरविंद केजरीवाल की पार्टी तेजी से देश में आगे बढ़ रही है। अब वह राष्ट्रीय दल बन गया। ऐसे में अब तक चुप रहने वाले केजरीवाल का प्रयास होगा कि विपक्ष के एकजुट होने की बात पर वे अपने को मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्ततु करें। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद मोदी आज एक ऐसा ब्रांड बन चुके हैं, कि देश में उनके मुकाबले और स्तर का कोई दूसरा नेता नजर नहीं आता। जिसे भी मुकाबले पर लाने की कोशिश होती है, वह बौना ही रह जाता है। दूसरे विपक्ष स्वार्थ के लिए एकत्र होता है, सिद्धांत के लिए नहीं और स्वार्थ का गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चलता।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)