उत्तर प्रदेश में भी जातीय जनगणना के मसले पर सियासत शुरू हो गई है। योगी सरकार पर दबाव बनाने के लिए बीजेपी विरोधी नेता और गठबंधन तो हो-हल्ला मचा ही रहे हैं। भाजपा के सहयोगी दलों के नेता भी इस मुद्दे पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते नजर आ रहे हैं। जातीय जनगणना मसले पर भले ही योगी सरकार और बीजेपी अलग-थलग पड़ गई हो, लेकिन वह विरोधियों के सामने ‘हथियार’ डालने को तैयार नहीं हैं। फिर भी इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी जातीय जनगणना की वकालत करने वालों को भले ही हिन्दू एकता के लिए खतरा बता रही हो, लेकिन बेचैनी उसकी भी बढ़ी हुई है क्योंकि यह वह आग है जिसमें सबका ‘झुलसना’ तय है। इस आग में कौन अपनी सियासी रोटियां सेंकने में सफल होगा, यह समय बतायेगा। परंतु यह भी तय है कि इसका फैसला चंद महीनों के भीतर होने वाले तीन राज्यों के विधान सभा और उसके बाद लोकसभा चुनाव हो जायेगा। लेकिन काट हर चीज की होती है, इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि जातीय जनगणना की मांग को हवा देकर किसी पार्टी का सियासी सफर थम जायेगा या फिर उसका ग्राफ बेतहाशा बढ़ जायेगा। बिहार में इसकी बानगी दिखने भी लगी है, वहां पूछा जा रहा है कि नीतीश कुमार कैसे इतने लम्बे समय से सीएम बने हुए हैं, जबकि बिहार में उनकी कुर्मी जाति की भागेदारी मात्र दो-ढाई प्रतिशत ही है। इसी प्रकार लालू यादव के परिवार को भी कटघरे में खड़ा किया जा रहा है क्योंकि बिहार में यादवों की भागीदारी मात्र 14.27 फीसदी हैं, लेकिन यह परिवार बिहार में लम्बे समय से राज कर रहा है। क्यों नहीं लालू या नीतीश की पार्टी द्वारा 19.65 भागीदारी वाले दलित नेता को सीएम नहीं बनाया जाता है? इसी प्रकार 17.70 फीसदी मुसलमानों में से किसी को अभी तक सीएम की कुर्सी क्यों नहीं नसीब हुई? बीजेपी सवाल खड़ी कर रही है कि क्यों लालू और नीतीश ही हर बार उनकी पार्टी की तरफ से सीएम का चेहरा होते हैं।
बहरहाल, जातीय जनगणना की सियासत में पिछड़ों को सियासी फायदा जरूर हो सकता है क्योंकि एक अनुमान के अनुसार यूपी में कुल जनसंख्या में पिछड़ों की आबादी करीब 60 फीसदी से अधिक बताई जाती है। हालांकि 1931 की जनगणना के बाद ओबीसी आबादी के जातिवार विभाजन का कोई प्रामाणिक डेटा उपलब्ध नहीं था, लेकिन 2001 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन राजनाथ सरकार में संसदीय मामलों के मंत्री हुकुम सिंह की अगुवाई वाली समिति ने राज्य में 79 ओबीसी की आबादी के आधार पर 7.56 करोड़ की गणना की थी। ऐसे में पिछड़ा समाज के वोटरों को लुभाने के लिए कई दल अधिक संख्या में पिछड़ा वर्ग के प्रत्याशियों को मैदान में उतार सकते हैं। मगर यह सब इतना आसान नहीं होगा।
इसी मुद्दे पर बसपा प्रमुख मायावती ने ट्वीट करके केंद्र सरकार से यूपी में भी जातीय जनगणना कराने की मांग की है। कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी पहले से ही ओबीसी को हक दिलाने के लिए मुखर हैं। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव तो हर समय जातीय जनगणना का राग अलापते रहते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि कांग्रेस, बसपा और समाजवादी पार्टी के जो नेता जातीय जनगणना के लिए हायतौबा मचा रहे हैं उनकी यूपी में लम्बे समय तक अपनी सरकारें रह चुकी हैं, परंतु तब इन्हें जातीय जनगणना कराये जाने की जरूरत नहीं लगी। पर अब सबके ऊपर जातीय जनगणना का भूत सवार है। खास बात यह है कि यह नेता हिन्दुओं की कुल आबादी में कितने प्रतिशत दलित, पिछड़े और अगड़े हैं, इसकी तो गणना चाहते हैं, लेकिन मुसलमानों में कितने अगड़े-पिछड़े हैं, इसका पता लगाना यह जरूरी नहीं समझते हैं। जबकि हिन्दुस्तान में मुसलमानों के बीच भी ठीक वैसे ही जातिवाद का जहर फैला हुआ है, जैसे हिन्दुओं में फैला है। लेकिन मुस्लिम वोट बैंक के लालच में कुछ नेताओं को यह दिखाई नहीं देता है। बहुत सारे लोगों को लगता है कि मुसलमानों में जाति के आधार पर कोई भेद ही नहीं है। वहीं कुछ लोगों का मानना है कि मुसलमानों में भी जातियां तो हैं, लेकिन उनमें उतने गंभीर मतभेद हैं नहीं, जितना कि हिंदुओं में हैं। मुसलमानों में जातिवादी भेदभाव की बात की जाए तो भारतीय मुसलमान मुख्यतः तीन जाति समूहों में बंटा हुआ है। इन्हें अशराफ, अजलाफ और अरजाल कहा जाता है। ये जातियों के समूह हैं, जिसके अंदर अलग-अलग जातियां शामिल हैं। हिंदुओं में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण होते हैं, वैसे ही अशराफ, अजलाफ और अरजाल को देखा जाता है। राज्यसभा के पूर्व सांसद और पसमांदा मुस्लिम आंदोलन के नेता अली अनवर अंसारी कहते हैं कि अशराफ में सैयद, शेख, पठान, मिर्जा, मुगल जैसी उच्च जातियां शामिल हैं। मुस्लिम समाज की इन जातियों की तुलना हिंदुओं की उच्च जातियों से की जाती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शामिल हैं।
दूसरा वर्ग है अजलाफ। इसमें कथित बीच की जातियां शामिल हैं। इनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें खास तौर पर अंसारी, मंसूरी, राइन, कुरैशी जैसी कई जातियां शामिल हैं। कुरैशी मीट का व्यापार करने वाले और अंसारी मुख्य रूप से कपड़ा बुनाई के पेशे से जुड़े होते हैं। हिंदुओं में उनकी तुलना यादव, कोइरी, कुर्मी जैसी जातियों से की जा सकती है। तीसरा वर्ग है अरजाल। इसमें हलालखोर, हवारी, रज्जाक जैसी जातियां शामिल हैं। हिंदुओं में मैला ढोने का काम करने वाले लोग मुस्लिम समाज में हलालखोर और कपड़ा धोने का काम करने वाले धोबी कहलाते हैं। इन मुसलमान जातियों का पिछड़ापन आज भी हिंदुओं की समरूप जातियों जैसा ही है। मुसलमानों में भी जाति प्रथा हिंदुओं की तरह ही काम करती है। विवाह और पेशे के अलावा मुसलमानों में अलग-अलग जातियों के रीति रिवाज भी अलग-अलग हैं। मुसलमानों में भी लोग अपनी ही जाति देखकर शादी करना पसंद करते हैं। मुस्लिम इलाकों में भी जाति के आधार पर कॉलोनियां बनी हुई दिखाई देती हैं। कुछ मुसलमान जातियों की कॉलोनी एक तरफ बनी हुई है, तो कुछ मुसलमान जातियों की दूसरी तरफ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संभल में तुर्क, लोधी मुसलमान रहते हैं। उनके बीच काफी तनाव रहता है। उनके अपने-अपने इलाके हैं। राजनीति में भी ये देखा जाता है। इस संबंध में राज्यसभा सांसद रहे अली अनवर अंसारी कहते हैं कि जीने से लेकर मरने तक मुसलमान जातियों में बंटा हुआ है। शादी तो छोड़िए, एक-दो अपवादों को छोड़कर इनके बीच रोटी-बेटी का रिश्ता भी नहीं है। जाति के आधार पर कई मस्जिदें बनाई गई हैं। गांव-गांव में जातियों के हिसाब से कब्रिस्तान बनाए गए हैं। हलालखोर, हवारी, रज्जाक जैसी मुस्लिम जातियों को सैयद, शेख, पठान जातियों के कब्रिस्तान में दफनाने की जगह नहीं दी जाती। उनके अनुसार, कई बार तो पुलिस को बुलाना पड़ता है। अक्सर मुसलमान जातीय आधार पर आरक्षण की मांग भली करते रहते हैं, लेकिन अपनी राजनीति बचाये रखने के लिए तमाम नेताओं को यहां कुछ गलत और जातिवाद नहीं दिखाई देता है। ऐसे ही सवाल यूपी में मायावती, अखिलेश और कांग्रेस के समाने भी खड़े हो सकते हैं क्योंकि यह लोग भले ही सामाजिक न्याय के लिए जातीय जनगणना की बात करते हों, लेकिन चुनाव जीतने पर स्वयं सीएम की कुर्सी पर चिपक कर बैठ जाते हैं और अपने करीबियों को अन्य महत्वपूर्ण पदों पर बैठा देते हैं। यहां तक की नौकरशाही भी इन नेताओं के जातिवादी रंग में रंग जाती है।
बात उत्तर प्रदेश की कि जाए तो यूपी में जनसंख्या में 55 प्रतिशत से अधिक की हिस्सेदारी ओबीसी की होगी। राजनाथ सिंह सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2001 में तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में गठित सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश की पिछड़ी जातियों में सर्वाधिक 19.4 प्रतिशत हिस्सेदारी यादवों की हैं। दूसरे पायदान पर कुर्मी व पटेल हैं, जिनकी ओबीसी में 7.4 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ओबीसी की कुल संख्या में निषाद, मल्लाह और केवट 4.3 प्रतिशत, भर और राजभर 2.4 प्रतिशत, लोध 4.8 प्रतिशत और जाट 3.6 प्रतिशत हैं। हुकुम सिंह की अध्यक्षता में गठित समिति ने प्रदेश की 79 अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 7.56 करोड़ होने का अनुमान लगाया था। यह आकलन ग्रामीण क्षेत्रों में रखे जाने वाले परिवार रजिस्टरों के आधार पर किया गया था। यह मानते हुए कि नगरीय क्षेत्रों की आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का 20.78 प्रतिशत है, वर्ष 2001 में उप्र में ओबीसी की संख्या राज्य की 16.61 करोड़ की कुल आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक रही होगी। हुकुम सिंह समिति ने मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने पर ओबीसी को दिए गए 27 प्रतिशत आरक्षण के भीतर अति पिछड़ी जातियों (एमबीसी) के लिए आरक्षण के मुद्दों पर गौर किया था। बता दें कि इससे पहले मंडल आयोग ने देश की कुल जनसंख्या में ओबीसी की हिस्सेदारी 52.2 प्रतिशत मानी थी।
अति पिछड़ी जातियों को लेकर राजनीति गर्माने तथा ओबीसी कोटे के अंदर अति पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए उठी मांग के परिप्रेक्ष्य में योगी सरकार ने वर्ष 2018 में न्यायमूर्ति राघवेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक और सामाजिक न्याय समिति गठित करने का निर्णय किया। इस समिति ने अक्टूबर 2018 में 400 पन्नों की रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, जिसमें ओबीसी को तीन श्रेणियों में बांटा गया था।
-अजय कुमार