चुनाव करीब आते ही जातिगत और धार्मिक मुद्दे हावी होते जा रहे हैं

By ललित गर्ग | Dec 21, 2018

आगामी लोकसभा चुनाव की हलचल उग्र होती जा रही है। जैसे-जैसे चुनाव का समय नजदीक आता जा रहा है, राजनीतिक जोड़तोड़ के नये समीकरण बनने लगे हैं। भारतीय जनता पार्टी बनाम सशक्त विपक्षी महागठबंधन का परिदृश्य एक नयी शक्ल ले रहा है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए गठबन्धन करके साफ कर दिया है कि उनकी मंशा विपक्षी महागठबंधन का साथ देने की नहीं है। ऐसा लग रहा है कि इन तीनों दलों का ध्येय देश की राजनीति को नयी दिशा देने की बजाय निजी लाभ उठाने की है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में उथल-पुथल ज्यादा है। उसके घटक दलों के भी सुर बदलने लगे हैं। मंगलवार को उसकी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के नेता चिराग पासवान ने एक तरह से सीट बंटवारे पर चेतावनी ही दे दी है। भाजपा और कांग्रेस किस हद तक अपने सहयोगियों को एकजुट कर पाती हैं, यह एक बड़ी चुनौती है, जिसकी दशा एवं दिशा भविष्य के गर्भ में है।

 

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों ने अनेक किलों को ध्वस्त कर दिया है। इन परिणामों से जहां भाजपा को गहरा झटका लगा है वहीं कांग्रेस ताकतवर बनी है। भाजपा की परेशानियां बढ़ गयी हैं। एनडीए में बिखराव के स्वर तेज हुए हैं। उसकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) गठबंधन से पहले ही निकल चुकी है और उसके नेता उपेंद्र कुशवाहा यूपीए में शामिल हो चुके हैं। शिवसेना तो सालों से अलग राग अलापती आ रही है। मंगलवार को मुंबई में प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का बहिष्कार कर उसने एक बार फिर अपनी नाराजगी दिखाई। बिहार में सीट बंटवारे को लेकर असल पेंच फंसा हुआ है। बीजेपी अपनी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी जेडीयू को नाराज नहीं करना चाहती लेकिन इस चक्कर में छोटे पार्टनर परेशान हो गए हैं और वे दूरियां बना रहे हैं। विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद वे मुखर हुए हैं और कड़ी सौदेबाजी करना चाहते हैं।

 

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जहां तक बात विपक्षी महागठबंधन की है तो कांग्रेस के तीन राज्यों में सरकार बना लेने एवं उसकी स्थिति मजबूत होने के बावजूद सभी विपक्षी दल उसका नेतृत्व स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इससे मोदी करिश्मे के खिलाफ एक मजबूत विपक्षी गठजोड़ उभरने की संभावना कमजोर पड़ी है। सपा एवं बसपा कांग्रेस से दूरी बनाकर चलेंगे और भाजपा के खिलाफ सभी विपक्षी दलों के एक महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगे। कहा जा रहा है कि इन दोनों ने कांग्रेस को किनारे रखकर यूपी के लिए आपस में गठबंधन भी कर लिया है। बीएसपी 39 और एसपी 37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। अजित सिंह की आरएलडी को 2 सीटें दी जा सकती हैं। 

 

सपा और बसपा- इन दोनों दलों ने लोकसभा चुनावों में वैचारिक विकल्प पेश करने की बजाय जातिगत गठजोड़ का विकल्प आम जनता के सामने रखा है जिससे यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में मतदाता राष्ट्रीय विकल्प की वृहद परिकल्पना की बजाय जाति व साम्प्रदायिक युद्ध में ही उलझा रहे। लेकिन उनकी यह सोच राजनीतिक परिपक्वता को नहीं दर्शाती, क्योंकि राजनीति में किसी एक भी सम्प्रदाय या जाति के लोगों को अपना गुलाम समझना राजनीतिक अपरिपक्वता का ही परिचायक है। तीन राज्यों में हुए चुनावों से जो संकेत मिले हैं वे इस बात का पक्का सबूत हैं कि सपा व बसपा सरीखी जातिगत पार्टियों की राजनीति तभी तक जिन्दा रह सकती है जब तक कि भाजपा मजबूत रहे। भाजपा का मजबूत रहना इन पार्टियों के वजूद की शर्त है। लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिये धर्म, जाति एवं सम्प्रदाय आधारित राजनीति का होना दुर्भाग्यपूर्ण है, इस तरह की राजनीति करने वाले एवं मतदाताओं की पहचान हिन्दू और मुस्लिम के तौर पर करके ज्वलन्त मुद्दों से आम जनता का ध्यान हटाने वाले मुद्दों की नहीं बल्कि मतों की राजनीति करते हैं। लेकिन यह राजनीति भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति नहीं है।

 

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सशक्त विपक्ष के गठबंधन की सबसे बड़ी बाधा प्रधानमंत्री पद को लेकर है, कोई भी दल राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इस महागठबंधन की एक बाधा विभिन्न दलों के बीच समझ एवं समन्वय के सूत्र को विकसित करने की भी है। इसी से विपक्षी एकता के प्रयास सफल होंगे, जो एक जीवंत लोकतंत्र की प्राथमिक आवश्यकता है। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है और सत्ता की कमान संभालने वाले दलों की भूमिकाएं भी बदलती रहती हैं। आज सीबीआई, आरबीआई या राफेल जैसे मुद्दे लोगों को झकझोर रहे हैं, महंगाई, व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां, बेरोजगारी, आदि समस्याओं से आम आदमी परेशान हो चुका है, वह नये विकल्प को खोजने की मानसिकता बना चुका है, जो विपक्षी एकता के उद्देश्य को नया आयाम दे सकता है। बात केवल विपक्षी एकता की ही न हो, बात केवल मोदी को परास्त करने की भी न हो, बल्कि देश की भी हो। कुछ नयी संभावनाओं के द्वार भी खुलने चाहिए, देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता भी दिखाई देना चाहिए, सुरसा की तरह मुंह फैलाती गरीबी, अशिक्षा, अस्वास्थ्य, बेरोजगारी और अपराधों पर अंकुश का रोडमैप भी बनना चाहिए।

 

2019 का लोकसभा का चुनाव इस बार रोमांचक होने वाला है। राष्ट्र इस बार लोकतंत्र के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव की गवाही देगा। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपना निर्णय देगा। चुनाव लोकतंत्र का प्राण है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा अधिकार है- मताधिकार। और यह अधिकार सबको बराबर है। पर अब तक देख रहे हैं कि अधिकार का झण्डा सब उठा लेते हैं, दायित्व का कोई नहीं। अधिकार का सदुपयोग ही दायित्व का निर्वाह है। इसके लिये न केवल उम्मीदवारों को बल्कि आम मतदाता को जागना होगा। इन चुनावों के लिये मतों से अधिक महत्व मुद्दों को देने की जरूरत है। अब तक प्रत्याशियों के चयन में घोषित आदर्श कुछ भी रहे हों, पर जाति और धर्म का आधार कभी मिटा नहीं। इसे बदलना होगा। आधार योग्यता और आचरण होना चाहिए। मतदाता जब जाति और धर्म से पूर्वाग्रहित हो जाते हैं तब राजनीति दूषित हो जाती है। एक तनाव का रूप ले लेती है। अगर हिंसा एवं अपराध से राज प्राप्त करना है तो फिर एकतंत्र और लोकतंत्र में क्या फर्क रह जाएगा। चुनाव मात्र राजनीतकि प्रशासक ही नहीं चुनता बल्कि इसका निर्णय पूरे अर्थतंत्र, समाजतंत्र आदि सभी तंत्रों को प्रभावित करता है। लोकतंत्र में चुनाव संकल्प और विकल्प दोनों देता है। चुनाव में मुद्दे कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी हों, पर किसी भी पक्ष या पार्टी को मतदाता को भ्रमित नहीं करना चाहिए। जिस तरह के राजनीतिक परिदृश्य बन एवं बिगड़ रहे हैं, वे मतदाता को गुमराह करने एवं भ्रमित करने वाले ही हैं।

 

 

साल 2019 के लोकसभा चुनाव में सशक्त राष्ट्र निर्माण के एजेंडे की नीतियों को पक्ष एवं विपक्षी ने यदि प्रभावी ढंग से प्रस्तुति नहीं दी तो एक और चुनाव निरर्थक हो जायेगा। दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं है, देश को बनाने का संकल्प नहीं है, उनके बीच आपस में ही स्वीकार्य नेतृत्व का अभाव है जो राजनीतिक संस्कृति की विडम्बना एवं विसंगतियों को ही उजागर करता है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हमारी राजनीतिक संस्कृति नेतृत्व के नैसर्गिक विकास में सहायक नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सपा, बसपा या रालोद जैसे दलों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है ? इनकी प्रमुख भूमिका अभी तक केवल सत्ता की सौदेबाजी तक सीमित रही है। लेकिन विचारणाीय बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व की बजाय नीतियां प्रमुख मुद्दा बननी चाहिए, ऐसा होने से ही 2019 के चुनावों की सार्थकता है तभी ये चुनाव निश्चित तौर पर मतदाताओं को प्रभावित करेगा, असली चुनौती राजनीतिक दलों के सामने यही है। 

 

-ललित गर्ग

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