उदारवादी वामपंथी के रूप में याद किए जाएंगे बुद्धदेव भट्टाचार्य...

By उमेश चतुर्वेदी | Aug 08, 2024

साल 2000...नई सदी करवट बदल रही थी..इक्कीसवीं सदी के स्वागत के साथ ही भारतीय राजनीतिक आसमान में एक सवाल रह-रहकर उछल उठता...बंगाल के लालगढ़ का उत्तराधिकारी कौन होगा..धान, केला और ताड़ की भूमि बंगाल की माटी को लाल सलाम की आदत डालने वाले ज्योति बसु के रिटायरमेंट की चर्चाएं जारी थीं...महज चार साल पहले गैर बीजेपी विपक्ष की नजर में प्रधानमंत्री पद की पहली पसंद रहे वामपंथी दिग्गज इस चर्चा के सिर्फ चार साल बाद ही रिटायर होने जा रहा था..सोशल मीडिया के दौर में राजनीतिक रूप से चेतन हो रही और अक्सर कांग्रेस की बलैया लेने वाली नई पीढ़ी को जानना चाहिए..तब सिर्फ बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस को भी समूचा विपक्ष अछूत बनाने के लिए उतावला रहता था..ऐसा अछूत, जिसके कंधे की सवारी में उसे छूत नहीं लगती थी..लेकिन सत्ता में उसे दूर रखने की भरपूर कोशिश होती थी..


उन दिनों वामपंथ के देश में तीन गढ़ थे..तीनों गढ़ तीनों कोनों पर..पहला सुदूर दक्षिण स्थित भगवान के अपने घर में..कितना बड़ा विरोधाभास है कि भगवान के अपने घर में वामपंथ का किला आज भी गड़ा हुआ है, उस वामपंथ का, जो भगवान को नहीं मानता, जो धर्म को अफीम मानता है..खैर..दूसरा गढ़ पश्चिम बंगाल था तो तीसरा त्रिपुरा..तब बंगाल को सबसे बड़ा गढ़ माना जाता था..माना भी क्यों न जाए, वहां लगातार 23 सालों से लगातार लाल सरकार चल रही थी..


ज्योति बसु के उत्तराधिकारी का नाम हवा में उछलता तो था, लेकिन उसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हो पाती थी..इसी बीच इन पंक्तियों के लेखक को फ्रीलांस के तौर पर दैनिक हिंदुस्तान के लिए सीपीएम के तत्कालीन महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत का साक्षात्कार का मौका मिला..साल था 2000, मार्च का महीना और तारीख थी 23 मार्च...भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की शहादत का दिन, भारतीय राजनीति के चिर विद्रोही राममनोहर लोहिया की जयंती...दिन भी याद है..वह दिन था गुरूवार...तो उस गुरूवार की ठंडाती शाम को राजधानी दिल्ली के तीनमूर्ति लेन स्थित सुरजीत के बंगले के सन्नाटे के बीच इंटरव्यू हुआ..इंटरव्यू इतना दमदार रहा कि बुखार में तपता शरीर जैसे उत्साह से भर उठा..

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पत्रकारों को पता है कि उनकी जिंदगी में स्कूप का क्या महत्व था..इंटरव्यू से इन पंक्तियों के लेखक को स्कूप हाथ लग गया था..सुरजीत रौ में बोल गए थे..बुद्धदेव भट्टाचार्य होंगे ज्योति बसु के उत्तराधिकारी..यानी बंगाली लालगढ़ के अगले सेनापति..तब कोलकाता से लेकर दिल्ली तक की फिजाओं में अनिल विस्वास और विमान बसु के भी नाम तैरते रहते थे..लेकिन उसकी पुष्टि नहीं हो पाती थी..सुरजीत के सामने बसु के उत्तराधिकारियों के तौर पर इन दोनों के नाम रखे गए..इससे वे झल्ला गए और बुद्धदेव भट्टाचार्य का नाम उन्होंने ले लिया..


हिंदुस्तान ने इस इंटरव्यू को तो रविवार 26 मार्च 2000 के अंक में छापा, लेकिन खबर दो दिन पहले ही स्कूप के रूप में छाप दी..तब सीपीएम की रिपोर्टिंग पर केरल के मलयालम और पश्चिम बंगाल के बंगला अखबारों के साथ ही कुछ राष्ट्रीय अंग्रेजी अखबारों का दबदबा था..वामपंथ से जुड़ी ब्रेकिंग कहानियां उन्हें ही मिलती थीं और वे ही उसे छापते भी थे..लेकिन हिंदी वाले को वामपंथ से जुड़ी बड़ी कहानी मिल गई तो वे चौंक उठे..


खैर...इतना वितान रचने की जरूरत इसलिए पड़ रही है कि 11 साल तक पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के कमान संभालने वाले बुद्धदेव भट्टाचार्य अब नहीं रहे। भट्टाचार्य ज्योति बसु सरकार में वित्त मंत्री रह चुके थे..वे चेन स्मोकर थे...उनका सिगरेट का खर्च इतना था कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें सीपीएम से जो छह हजार का भत्ता मिलता था, वह भत्ता उनके सिगरेट के लिए कम पड़ता था। यहां नई पीढ़ी के लिए यह बताना जरूरी है कि वामपंथी दलों में विधायक,सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री को पार्टी की ओर से तय भत्ते मिलते हैं। उन्हें अपनी पूरी तनख्वाह पार्टी को देनी होती है। यहां तक कि अगर वे बंगले के अधिकारी हैं तो उन्हें अपने बंगले में पार्टी द्वारा तय किए लोगों को भी रहने देना होता है। 


ऐसे में सवाल यह है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य का बाकी खर्च कैसे चलता था, उनकी पत्नी मीरा भट्टाचार्य कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थीं। मुख्यमंत्री का घर उनकी पत्नी के पैसे से चलता था। बुद्धदेव भट्टाचार्य का जन्म एक मार्च 1944 को उत्तरी कोलकाता में हुआ था। उनका पुश्तैनी घर बांग्लादेश में है। बुद्धदेव ने कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेंसी कॉलेज से बांग्ला साहित्य से बांग्ला में बीए (ऑनर्स) की डिग्री प्राप्त की थी। 1966 में वे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) से जुड़ गए। पार्टी ने उन्हें जून, 1968 में युवा शाखा डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन का राज्य सचिव बनाया, जिसका बाद में डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया में विलय हो गया था। बुद्धदेव ने अपनी जिंदगी की शुरूआत अध्यापक के रूप में की। लेकिन बाद में वे पूरी तरह राजनीति में समाहित हो गए। 


वामपंथी दलों को उदारीकरण का विरोधी माना जाता है। साल 2000 से 2011 तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहते बुद्धदेव भट्टाचार्य ने आर्थिक उदारीकरण की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने राज्य के औद्योगीकरण की ओर भी कदम बढ़ाया। सिंगूर में टाटा का कारखाना लगाने के लिए उन्होंने जमीन का अधिग्रहण किया, जिसके खिलाफ बंगाल व्यापी आंदोलन छिड़ा और उसकी आंच में ही साल 2011 में हुए विधानसभा चुनावों में वाम मोर्चे की हार हुई। उनकी एक बेटी थीं सुचेतना भट्टाचार्य। थीं इसलिए कि उन्होंने अपना लिंग बदलवाकर अब वे लड़का हो गई हैं और अब सुचेतन भट्टाचार्य के नाम से जानी जाती हैं। उन्होंने ही बुद्धदेव के निधन की जानकारी लोगों को दी।


वामपंथ में उदारीकरण के पैरोकार और ताजिंदगी सादगी के प्रतीक रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य को राजनीति और देश किस रूप में याद करेगा, यह तो बाद की बात है। लेकिन इतना जरूर है कि एक ऐसे उदार वामपंथी के रूप में याद किया जाएगा, जो शिष्ट था,शालीन था, वामपंथी वैचारिकी की उत्तेजनाओं से दूर था और उससे भी कहीं ज्यादा उदारीकरण का पैरोकार था। और अपने इन्हीं मानवीय गुणों की वजह से वह अपना लालगढ़ बचा नहीं पाया..


-उमेश चतुर्वेदी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

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