By तरुण विजय | Jun 13, 2017
विवेकानंद और वीर सावरकर के जो भक्त गाय पर इतना उद्वेलित हो रहे हैं उन्हें समझाना होगा कि केवल उत्तर भारत और वहां एक बड़े सामाजिक वर्ग को ही समूचा भारत नहीं माना जा सकता। जैसे हिंदी सारा हिंदुस्तान नहीं है और शेष भारतीय भाषाओं के प्रति सम्मान एवं आत्मीयता दिखाये बिना भारत की एकता संभव नहीं है, वैसे ही खान-पान और पहनावे के बारे में उत्तर भारत के नियम कानून सारे देश पर कैसे लागू हो सकते हैं?
केरल और बंगलौर में सार्वजनिक रूप से जिन वहशी दरिंदों ने गाय काटी निश्चित रूप से वह अक्षम्य अपराध है और यह भी सत्य है कि उनके द्वारा गाय काटना केवल भारतीय संविधान ही नहीं बल्कि भारत की काया और मन पर वैसा ही आघात है जैसा मोहम्मद गोरी ने सोमनाथ तोड़ कर और बाबर ने राम जन्म भूमि तुड़वा कर किया था। कोई मनुष्य इतनी पाश्विकता के साथ किसी भी पशु का मार सकता है और फिर उसका सार्वजनिक प्रदर्शन कर एक राजनीतिक बयान दे सकता है यह पिशाचों के बारे में सुना होगा लेकिन मनुष्यों के बारे में यह कांग्रेस तथा कम्युनिस्टों ने ऐसा उदाहरण दे दिया। इस पर आने वाली पीढि़यां शर्म करेंगी और यह इतिहास में एक उदाहरण बनेगा कि एक समय भारत में ऐसा भी आया था जब कांग्रेस नाम की पार्टी के कुछ हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई कार्यकर्ताओं ने मिल कर प्रखर राष्ट्रीयता वाली सत्तासीन पार्टी के खिलाफ एक अमानुषिक राजनीतिक कृत्य किया था।
पर यह बात सही समाप्त कर अगर बहुत गुस्सा और दम है और राजनीतिक क्षमता का परिचय देने की इच्छा है जो जिन लोगों ने ऐसा कृत्य किया है उनके विरुद्ध कार्यवाही करवाइये। आपको रोकता कौन है? खामख्वाह की बयानबाजी आपकी अपनी प्रचार की भूख को शांत भले ही कर दे लेकिन आहत हिन्दू मन पर मलहम नहीं लगा सकती। गाय को मारने वालों में उन तमाम लोगों का भी अपराध शामिल है जो ना केवल गाय को आरक्षित छोड़ते हैं बल्कि गौ रक्षा के लिए सरकार की ओर ताकते हैं। उगलियां पर गिनी जा सकने वाली कुछ गौशालाओं की बात छोड़ दीजिये। वे जीवनदानी महापुरुष हैं जिनके तप और देवतुल्य गौ भक्ति के कारण उनकी गौशालाएं बड़े से बड़े मंदिर से भी बढ़कर तीर्थ स्थान बनी हैं। लेकिन बाकी जगहों का क्या हाल है? हमारे तीर्थ गंदनी से भरे, मंदिरों में पंडों और संस्कृत से प्रायः अनभिज्ञ पंडितों की मनमानी, गाय के बछड़ों को भूखा तड़पा-तड़पा कर गाय का अधिकतम दूध निकालना और वह भी गाय को अत्यंत कष्टकारी इंजेक्शन लगाकर। यह सब कौन कर रहा है? इसके खिलाफ कौन बोलता है, बूढ़ी और बिना दूध वाली गायों को कसाई के हाथ बेचने के लिए किसान को मजबूर कौन करता है? उसका कोई समाधान निकालने का ऐसा प्रयास हुआ कि जिससके इस व्याधि का अंत हो? असली गौ भक्ति वह है जो सार्वजनिक जीवन में गाय की सर्व स्वीकार्य प्रतिष्ठा करवाए ना कि कानून हाथ में ले अथवा कानून के सहारे एक विद्रूप एवं हारे हुए विपक्ष में जान फूंकने वाली प्रतिक्रियाएं पैदा करवाए।
अब आप बहुत ही जिद करेंगे तो किरन रिजीजू तथा बीरेन सिंह के बयानों के क्या जवाब तलाशेगें? परमपूज्य गुरुजी (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक) ने उत्तर पूर्वांचल के संबंध में जो लिखा है वह बार-बार, बार-बार हमें पढ़ना चाहिए। वनवासी कल्याण आश्रम में काम करते हुए मेरी यह अधिक निष्ठा बनी कि उनकी कृति 'विचार नवनीत' हमारे वर्तमान युग के लिए कार्यकर्ताओं और राष्ट्रभक्तों का उपनिषद है। उन्होंने उत्तर पूर्वांचल में कार्य, वहां की परिस्थिति की समझ तथा वहां की गायों के संबंध में जो कहा था वो हमें याद है?
गरीबी, बेकारी, पिछड़ापन हमारे समाने कितने गंभीर प्रश्न हैं या इन समस्याओं को कोई अर्थ ही नहीं है? एक ओर प्रधानमंत्री मोदी हर घर में बिजली, सौर ऊर्जा, अच्छी रेलगाडि़यां, राजमार्गों का निर्माण, अरूणाचल और कश्मीर में सुरक्षा की मजबूत तैयारी, महिलाओं का सशक्तीकरण और युवाओं के कौशल विकास में जुटे हैं। दूसरी ओर हम सारे हिन्दुस्तान को अपनी व्यक्तिगत पसंद और ना पसंद के खाने से चलने की कवायद कर रहे हैं। देश अब ऐसे चलेगा कि किसकी थाली में क्या परोसा जाये अथवा आर्थिक और शिक्षा की नयी उड़ानों से नया भविष्य गढ़ने पर ध्यान देना जरूरी समझा जाये?
ऐसी परिस्थिति में बड़े प्रश्नों के समाधान तथा स्थायी भाव के लंबी लड़ाई के लिए जन मन तैयार करने वाले प्रतिरोधक केंद्रों की स्थापना पर ध्याना देना जरूरी है। लेकिन हिंदू का स्वभाव ही है कि वह आपसी विद्वेष, घरेलू कलेष, अहंकार, तीव्र व्यक्तिगत पसंद ना पसंद के कारण संगठन के बड़े उद्देश्यों से समझौता करते हुए बड़ी छलांग को छोटे कदमों में रूपांतरित कर देता है।
यह समय है विवेकानंद को दोबारा पढ़ने का और खानपान के संबंध में उनकी प्रहारक वाणी को ध्यान में रखने का। स्वामी दयानंद और वीर सावरकर को भी कभी-कभी पढ़ लिया करिये। हिन्दुत्व के दर्पण पर जमी प्रपंचों तथा पाखंडों की धूल साफ होती रहेगी। लम्बी दूरी के यात्री छोटे स्टेशनों पर झगड़ा कर रेलगाड़ी छोड़ने का जोखिम नहीं उठाते। रज्जू भैया बार-बार इस बात को दोहराते थे।
- तरुण विजय