गलवान घाटी में झड़प के दौरान शहीद गुरुतेज की बहादुरी कुछ संदेश भी दे गयी है

By डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र | Jul 03, 2020

15 जून की रात को चीनी और भारतीय सैनिकों के मध्य हुई हिंसक झड़प के संदर्भ में 23 वर्षीय भारतीय सैनिक गुरुतेज सिंह की शौर्य-गाथा का लोमहर्षक विवरण भारतीय मीडिया ने प्रस्तुत किया। थर्ड पंजाब की घातक प्लाटून के सैनिक गुरुतेज सिंह ग्राम मानसा पंजाब के निवासी थे। जब चार चीनी सैनिकों ने एक साथ उन पर घातक आक्रमण किया तब वे 'वाहे गुरु दा खालसा, वाहे गुरुजी की फतह‘ का नारा लगाते हुए कृपाण खींच कर शत्रु सैनिकों पर टूट पड़े। वे घायल भी हुए किन्तु वीरगति को प्राप्त होने से पूर्व बारह चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार गए।

 

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शहीद गुरुतेज सिंह की यह शौर्य-गाथा विमर्श की अनेक दिशाएं प्रशस्त करती हैं। इस युवा शहीद के शौर्य की पृष्ठभूमि गुरु गोविंदसिंह की दूरदृष्टि-समृद्ध सुविचारित राजनीति से आलोकित है। लगभग 500 वर्ष पूर्व उन्होंने कच्छा, कृपाण, केश, कड़ा और कंघा (पंच ककार) देकर अपने शिष्यों को सैनिक वेश में रणभूमि में उतारा था। ये पाँच चिन्ह धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण नहीं लगते। सभी धर्मों के अपने सांकेतिक चिन्ह नियत हैं। हिंदुओं में शिखा-सूत्र तिलक आदि; मुस्लिमों में विशेष प्रकार की दाढ़ी और गोल टोपी; ईसाइयों में क्रॉस का धातु चिन्ह आदि मान्य हैं। सबका पृथक वेश-विन्यास भी उनके धार्मिक विश्वास का परिचय देता है किंतु हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्मों के उपर्युक्त चिन्ह सामरिक महत्व के नहीं हैं जबकि सिख धर्म के चिन्हों का युद्ध की दृष्टि से विशिष्ट महत्व समझ में आता है।


पंजाब की साधारण वेशभूषा में कमर से नीचे लुंगी और ऊपर की ओर कुर्ता धारण किया जाता है। युद्ध करते हुए पैंतरे बदलते समय योद्धा की लुंगी का खुल जाना, उसका नग्न दिख जाना अशोभनीय है। योद्धा का ध्यान इस ओर भी बने रहने से वह पूर्ण मनोयोग के साथ प्रतिद्वंदी शत्रु पर कितना प्रबल प्रहार कर सकेगा यह कहना कठिन है किंतु कच्छाधारी योद्धा इस संदर्भ में निश्चिन्त होकर शत्रु पर प्रहार और आत्मरक्षार्थ उसके वार का निवारण करने में अधिक दत्तचित्त होकर युद्ध कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता। सिर की रक्षा के लिए पहले लंबे-लंबे केशों का नैसर्गिक कवच, फिर उनकी साज-संवार के लिए कंघे की अनिवार्यता युद्ध में सिर की सुरक्षा का प्रयत्न हैं। केशों की सुव्यवस्था के लिए पगड़ी सिर की सुरक्षा का अतिरिक्त साधन है। हाथ का कड़ा और कृपाण आत्मरक्षा के लिए हर समय उपलब्ध अनिवार्य उपादान है। आज गुरु गोविंद सिंह के महाप्रस्थान के 312 वर्षों के अनंतर मिसाइलों से लड़े जाने वाले महायुद्धों में इन चिन्हों की प्रासंगिकता प्रश्नांकित की जा सकती है किंतु संघर्ष के क्षणों में जहां आधुनिक आग्नेयास्त्र अनुपलब्ध-अनुपस्थित हों, वहां आज भी इनकी उपादेयता पूर्ववत प्रमाणित है। शहीद गुरुतेज सिंह की शौर्यगाथा इस तथ्य की साक्षी है।


इस प्रसंग में धार्मिक उत्तेजना की सक्रियता भी रेखांकनीय है। गुरुतेज सिंह ने जब अपना धार्मिक नारा ‘जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल’ बोलकर शत्रु पर प्रबल आक्रमण किया होगा तब निश्चय ही उनके मनोराज्य पर अंकित मध्यकालीन संघर्ष के बलिदानी शौर्य चित्र अवश्य प्रेरक बने होंगे। ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं’ की उत्तेजक उक्ति ने अधिक नहीं तो एक अनुपात बारह की व्यवहारिकता तो पुनः प्रमाणित कर ही दी। गुरु गोविंदसिंह की वीरता, निर्भीकता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की भावना भी इस शहीद की प्रेरणा बनी होगी। ‘हर-हर महादेव‘ और ‘अल्लाह- हू अकबर’ जैसे मध्यकालीन नारे आज भी विजय का पथ प्रशस्त करने में सैनिकों को अपूर्व उत्साह और उत्तेजना देते हैं। आत्मरक्षार्थ उपस्थित युद्धों-संघर्षों में धर्म की यह सार्थक भूमिका भी रेखांकनीय है। धर्मनिरपेक्षता और नास्तिकता ऐसी प्रेरणाओं और उत्तेजनाओं का पथ बाधित कर पराजय की ओर धकेलती हैं। इस ओर ध्यान देकर इनसे बचने की आवश्यकता है।

 

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अहिंसा के अतिशय प्रचार और हमारी तथाकथित आदर्शोन्मुखी आत्ममुग्धता ने हमें शस्त्र-शिक्षा विहीन कर असहाय बना कर रख दिया है। हम आत्मरक्षा के लिए भी परमुखोपेक्षी होकर रह गए हैं। किसी गुंडे-बदमाश से अपनी रक्षा के लिए भी हम पुलिस प्रशासन का मुख ताकते हैं। शस्त्र-शिक्षा का सामान्य ज्ञान और उनके संधारण की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले भारतवर्ष में जन सामान्य को कभी इस प्रकार निशस्त्रीकृत नहीं किया गया था। लोग अपनी वीरता, साहस और शस्त्र-संचालन कौशल के बल पर अपनी रक्षा स्वयं करने में समर्थ थे किंतु 1857 की क्रांति के उपरांत अंग्रेजों ने अपनी रक्षा के लिए कूटनीति पूर्वक कानून बनाकर भारतीय समाज का निशस्त्रीकरण कर दिया। स्वतंत्रता के बाद भी यही विधान मान्य होने से देश का सीधा-साधा नागरिक असामाजिक तत्वों और अपराधियों से उत्तरोत्तर असुरक्षित हुआ है। शस्त्रधारी पुलिस-प्रशासन की अपनी सीमाएं हैं। हर घर और हर मनुष्य की पहरेदारी कर पाना किसी भी शासन-प्रशासन के लिए कभी संभव नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक नागरिक को आवश्यक शस्त्र-शिक्षा और शस्त्र-संधारण की अनुमति प्रदान किया जाना विचारणीय है। शहीद गुरुतेज सिंह अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप कृपाण संधारण की संवैधानिक सुविधा पाने के कारण अपने अन्य साथी शहीदों से कहीं अधिक पराक्रम प्रकट करने में सफल रहे। अतः दूसरों पर अत्याचार करने और उन्हें पीड़ित करने के लिए नहीं किंतु अपने जान-माल की रक्षा के लिए, शत्रु-शक्तियों और असामाजिक तत्वों से अपनी सुरक्षा करने के लिए शस्त्र-ज्ञान और शस्त्र-संधारण की ओर वर्तमान वैधानिक प्रावधानों पर पुनर्विचार किया जाना भी अपेक्षित है।


-डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र   

विभागाध्यक्ष-हिन्दी

शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय

होशंगाबाद म.प्र. 


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