पश्चिमी यूपी से चली भाजपा की हवा पड़ी थी सपा-बसपा को भारी

By अजय कुमार | Apr 06, 2019

उत्तर प्रदेश में मतदान की बयार पश्चिम से पूरब की ओर चलेगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रथम और कुछ सीटों पर दूसरे चरण में क्रमशः 11 और 18 अप्रैल को मतदान होना है। 2014 के आम चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव का श्री गणेश भी इस क्षेत्र से हुआ था। तब पहले दो चरणों के मतदान के दौरान बीजेपी के पक्ष में ऐसी हवा जिसके बल प बीजेपी ने पूरे प्रदेश में अपनी धाक-धमक कायम कर ली थी। बात इस इलाके के सियासी मिजाज की कि जाए कभी यह कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। कांग्रेस के दिग्गज जाट नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह यहीं से आते थे। चौधरी चरण सिंह ने 1967 में जब कांग्रेस से अलग होकर भारतीय लोकदल (आज राष्ट्रीय लोकदल हो गया है) का गठन किया तो यहां के जाट ही नहीं अन्य तमाम वोटरों ने भी कांग्रेस से दूरी बना ली। पश्चिमी यूपी की नब्ज पर राष्ट्रीय लोकदल की अच्छी खासी पकड़ थी। रालोद जब कमजोर हुआ तो बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी ने यहां अपनी जड़े जमा लीं। 

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मुस्लिम-दलित-जाट-राजपूत और अहीर बाहुल्य वेस्ट यूपी में पूर्व प्रधानमंत्री और जाट नेता चैधरी चरण सिंह ने अजगर (अहीर-जाट-गूजर राजपूत) का नारा देकर अपनी खूब सियासत चमकाई थी, लेकिन मुलायम सिंह द्वारा चौधरी चरण सिंह से अलग होकर समाजवादी पार्टी बनाने के बाद अहीर यानी यादव उनके साथ जुड़ गए। इसी के साथ ‘अजगर’ वाला नारा भी इतिहास के पन्नों में सिमट गया। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में वर्ष 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में छेड़छाड़ की एक छोटी सी घटना के विकराल रूप लेने के बाद फैली हिंसा में यहां के जाट-मुस्लिम वोटर एक दूसरे के धुर विरोधी हो गए। दंगे की आग में दलितों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन तुष्टिकरण की सियासत के चलते समाजवादी पार्टी और बसपा का कोई भी नुमाइंदा यहां जाट और दलितों के आंसू पोंछने नहीं पहुंचा। अखिलेश को लगता था कि जाट का साथ देने पर मुस्लिम वोटर उनसे नाराज हो जाएगा, जिससे उनका वोटों का गणित बिगड़ सकता है। हालात यह थे कि सपा के बड़े नेता आजम खान के इशारे पर यहां जाट और दलितों को इंसाफ मिलना तो दूर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। आजम के कहने पर दंगों के लिए जिम्मेदार मुस्लिमों को खुला छोड़ दिया गया। सपा के पदचिन्हों पर माया भी चलती दिखीं। उनकी भी नजर दलितों के साथ मुस्लिम वोटरों पर लगी हुई थी। दलित वोटरों को अपनी बपौती मानने वाली माया मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहती थीं। सपा-बसपा ने जरूर जाट और दलितों के आंसू नहीं पोंछे, लेकिन भाजपा नेता पूरी हिम्मत के साथ मैदान में जाट और दलितों के पक्ष में डटे रहे। यही वजह थी, दंगों के बाद यहां का सियासी मिजाज काफी तेजी से बदला, जिसका भाजपा ने पूरा फायदा उठाया। भाजपा ने 2014 के अम और 2017 के विधान सभा चुनाव में यहां से सपा-बसपा और कांग्रेस का सफाया कर दिया। यह सिलसिला बीते वर्ष कैराना उप-चुनाव में तब टूटा, जब सपा-बसपा के सहयोग से राष्ट्रीय लोकदल की संयुक्त प्रत्याशी बनी तबस्सुम ने कैराना सीट भाजपा से छीन ली। यह सीट भाजपा सांसद हुकुम सिंह की मौत के बाद खाली हुई थी। उप-चुनाव में यहां से सपा ने स्वयं प्रत्याशी उतारने की बजाए लोकदल प्रत्याशी का समर्थन किया। बसपा तो वैसे भी उप-चुनाव से दूर ही रहती है। सपा-बसपा के मैदान में न होने से टक्कर भाजपा और लोकदल के बीच आमने-सामने की हो गई, तो छोटे चौधरी के नाम से पहचान बनाते जा रहे चौधरी जयंत सिंह ने एक नया प्रयोग किया था। उन्होंने दादा चौधरी चरण सिंह के अजगर वाले नारे को बदल कर मजगर करके खूब सुर्खिंयां बटोरी और अपने प्रत्याशी के सिर जीत का सेहरा भी बांध दिया, लेकिन इससे भाजपा के हौसले पस्त नहीं पड़े। उसने कहना शुरू कर दिया उप-चुनाव में हमारे वोटर वोटिंग करने नहीं निकलते हैं। इस लिए लोकदल प्रत्याशी की जीत हो गई। यह सच भी था क्योंकि वोटिंग का प्रतिशत काफी कम था। इस बार भी भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास में है, जिसके चलते सपा-बसपा के हाथ-पॉव फूले हुए हैं। 

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सपा-बसपा और कांग्रेस भी जानती है कि यहां से जो सियासी हवा चलेगी, उसका प्रभाव पूरे उत्तर प्रदेश में देखने को मिल सकता है। भाजपा ने चुनाव प्रचार में यहां पूरी ताकत झोंक रखी है। एक बात और बीजेपी के पक्ष में जाती है। पश्चिमी यूपी के समीकरण बीजेपी को को काफी भाते हैं। इस इलाके में मुस्लिम वोटरों की बहुलता बीजेपी को हिन्दू एजेंडा और उनके धु्रवीकरण का आसान अवसर प्रदान करती है। 2013 में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बीजेपी ने उग्र हिन्दुत्व की सियासत के जरिए 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़ी कामयाबी हासिल की थी। जाट, गुजर और जाटव जातियों की बहुलता वाले पश्चिमी यूपी में इन जातियों के बड़े हिस्से को हिन्दू पहचान के तहत कमल निशान पर वोट डलवाने में बीजेपी सफल रही थी। न तो जाटों पर राष्ट्रीय लोकदल का असर काम आया था और न ही जाटवों या अन्य पिछड़ी जातियों पर बहुजन समाज पार्टी का। 

 

बात आज के हालात की कि जाए तो यहां प्रथम चरण का चुनाव प्रचार खत्म होने का समय नजदीक आ गया है, लेकिन अभी तक मायावती-अखिलेश की यहां एक भी मीटिंग नहीं हुई है। अजित सिंह और जयंत चौधरी जरूर पूरी ताकत लगाए हुए हैं। मायावती अन्य राज्यों में तो प्रचार के लिए जा रही हैं, लेकिन यहां के बसपा कार्यकर्ता अभी इंतजार ही कर रहे हैं। पश्चिमी यूपी में सपा-बसपा सहित रालोद का भी काफी कुछ दांव पर लगा है। रालोद नेता जयंत चौधरी महागठबंधन को सफल बनाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं। 

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बहरहाल, जब यह सवाल आता है कि सपा-बसपा नेता कब यहां प्रचार करने आएंगे तो पता चलता है कि प्रथम चरण का प्रचार खत्म होने से दो दिन पूर्व इन नेताओं का यहां आना होगा। सात अप्रैल को सपा-बसपा और रालोद के शीर्ष नेताओं की पहली साझा रैली देवबंद में होगी। फिर 13 अप्रैल को बदायूं और 16 अप्रैल को आगरा में माया-अखिलेश और अजित सिंह की रैलियां होंगी। यही स्थिति तब है जबकि गठबंधन के नेताओं का पता है कि यहां कांग्रेस भी एक फैक्टर है। पश्चिमी यूपी के कुछ हिस्सों में कांग्रेस की भी अपनी ताकत है, लिहाजा यह देखना दिलचस्प होगा कि वह मुस्लिम वोटों में कितनी हिस्सेदारी कर पाती है। यदि कांग्रेस को इसमें कामयाबी मिली तो बसपा-सपा गठबंधन के हिस्से के वोटों में सेंध लगेगी और बीजेपी को इसका फायदा हो सकता है। कांग्रेस ऐसा नहीं कर पाई तो पश्चिम की अधिकांश सीटों पर गठबंधन और बीजेपी के प्रत्याशियों के बीच सीधी लड़ाई दिख सकती है। बशर्ते पश्चिम के जाटव, जाट, गुर्जर और अन्य पिछड़ी जातियां कैराना उप-चुनाव की तरह अपनी जातीय पहचान को धार्मिक ध्रुवीकरण पर तवज्जो दें और गठबंधन से जुड़ें, जैसी की मायावती, अखिलेश यादव और चौधरी अजित सिंह को उम्मीद है।

 

उधर, गठबंधन के नेताओं और कांग्रेस ही नहीं राजनैतिक पंडितों को भी यह भी लगता हैं कि पुलवामा की घटना और उसके बाद पाक के आतंकी ठिकानों पर भारतीय वायु सेना के हवाई हमलों से उपजे माहौल में बीजेपी पश्चिमी यूपी के अपने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के नुस्खे का फिर जरूर इस्तेमाल करेगी। यह कितना और किस कदर कारगर होगा, इसी के आधार पर भाजपा आगे के मतदान चरणों वाले इलाकों के लिए अपना राजनैतिक एजेंडा सेट करेंगी। उल्लेखनीय है कि बीते चुनावों में पश्चिम में हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण और पूर्वी यूपी में ओबीसी कार्ड को कामयाबी से खेल कर बीजेपी ने सफलता हासिल की थी।

 

- अजय कुमार

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