By अनन्या मिश्रा | Nov 15, 2023
बिरसा मुंडा ने लोगों के जीवन में ऐसी छाप छोड़ी कि लोग उन्हें भगवान का दर्जा दे बैठे। बता दें कि आज यानी की 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की बर्थ एनिवर्सरी है। एक दिन उन्होंने घोषणा की थी कि वह धरती के पिता यानी की 'धरती आबा' हैं। उन्होंने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण कार्य किए थे। आइए जानते हैं उनकी बर्थ एनिवर्सिरी के मौके पर बिरसा मुंडा के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में...
जन्म और शिक्षा
धरती आबा बिरसा मुंडा का का जन्म खूंटी के उलिहातू में 15 नवंबर 1875 को हुआ था। वहीं उन्होंने अपनी शुरूआती शिक्षा चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल से पूरी की। हांलाकि पढ़ाई के दौरान ही बिरसा मुंडा के क्रांतिकारी तेवरों के बारे में पता चलने लगा था। इधर सरदार आंदोलन भी चल रहा था, बता दें कि सरदार आंदोलन सरकार और मिशनरियों के खिलाफ था। मिशन स्कूल से बिरसा मुंडा को सरदारों के कहने पर ही हटा दिया गया। वहीं बिरसा और उसके परिवार ने भी साल 1980 में चाईबासा छोड़ दिया था। इसके बाद उन्होंने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता ले ली।
हांलाकि कुछ समय बाद उन्होंने जर्मन मिशन त्यागकर रोमन कैथोलिक धर्म स्वीकार किया। लेकिन कुछ समय बाद बिरसा मुंडा की इस धर्म में भी अरुचि हो गई। साल 1891 में वह बंदगांव के आनंद पांड़ के संपर्क में आए। आनंद स्वांसी जाति के थे, आनंद स्वांसी रमुंडा जमींदार जगमोहन सिंह के यहां मुंशी का काम किया करते थे। आनंद स्वांसी को रामायण-महाभारत की अच्छी खासी जानकारी थी। वहीं आनंद पांड़ या उनके भाई सुखनाथ पांड़ के साथ बिरसा का अधिकतर समय व्यतीत होता था।
बिरसा मुंडा कैसे बना 'धरती आबा'
उसी दौरान सरकार ने पोड़ाहाट में सुरक्षित वन घोषित कर दिया था। जिसको लेकर आदिवासियों में काफी ज्यादा क्रोध था। आदिवासियों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। हांलाकि तब आंदोलन की गति काफी ज्यादा धीमी थी। जिसके बाद बिरसा मुंडा भी इस आंदोलन में भाग लेने के लिए तैयार हो गए। लेकिन इससे पहले बिरसा को आनंद पांड़ ने समझाया लेकिन बिरसा ने आंनद की बात नहीं सुनी और बिरसा इस आंदोलन का हिस्सा बन गए। जिसके बाद बिरसा ने यह घोषणा की कि वह धरती के पिता यानी की 'पृथ्वी आबा' हैं। वहीं उनके अनुयायियों ने भी बिरसा को उसी रूप में माना।
एक बार जब बिरसा मुंडा की मां उनके प्रवचन सुन रही थी। तब उनकी मां ने उन्हें बेटा कहकर पुकारा था। बिरसा ने कहा, कि 'धरती आबा' है। अब उनको इसी नाम से संबोधित किया जाना चाहिए। साल 1895 में जब पहली बार बिरसा मुंडा को ब्रिटिश सत्ता ने गिरफ्तार किया, तब तक वह धार्मिक गुरु के रुप में काफी ज्यादा ख्याति प्राप्त कर चुके थे। वहीं 2 साल बाद जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने धर्म को मुंडाओं के समक्ष रखना शुरू कर दिया।
इसके बाद आगे चलकर यह धार्मिक सुधार आंदोलन भूमि संबंधी राजनीतिक आंदोलन में बदलता चला गया। वहीं चौकीदारों ने 6 अगस्त 1895 को तमाड़ थाने में यह जानकारी दी कि बिरसा मुंडा द्वारा इस बात की घोषणा की है कि सरकार के राज्य का अंत हो चुका है। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार बिरसा मुंडा को लेकर अधिक गंभीर हो गई।
जल, जंगल, जमीन के लिए अहम बलिदान
बता दें कि उन्होंने जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए मुंडाओं को बलिदान देने के लिए प्रेरित किया। साल 1895 से लेकर 1900 तक बिरसा मुंडा का पूरा आंदोलन चला। वहीं साल 1899 में दिसंबर के आखिरी सप्ताह से लेकर जनवरी के आखिरी तक आंदोलन काफी तीव्र रहा। जिसमें साल 1895 में पहली गिरफ्तारी हुई। हांलाकि इस गिरफ्तारी के पीछे कोई आंदोलन नहीं थी। बल्कि यह गिरफ्तारी इसलिए की गई, क्योंकि बिरसा मुंडा के प्रवचन के दौरान काफी ज्यादा भीड़ उमड़ी थी।
वहीं अंग्रेज यह नहीं चाहते थे कि किसी प्रकार की भीड़ इलाके में एकत्रित हो। फिर वह प्रवचन के लिए क्यों ना हो। इस कारण ब्रिटिश सरकार ने चालाकी दिखाते हुए बिरसा मुंडा को रात में गिरफ्तार किया और उनको जेल भेज दिया। फिर बाद में उन्हें रांची जेल से हजारीबाग जेल में शिफ्ट कर दिया गया। वहीं 30 नवंबर 1897 को उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन रिहाई से पहले पुलिस ने उन्हें हिदायत दी की वह अब किसी तरह का आंदोलन नहीं करेंगे। जिसके बाद बिरसा ने भी वादा किया कि अब वह किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेंगे।
अंग्रेजी सरकार ने बहुत चालाकी से बिरसा को रात में पकड़ लिया, जब वह सोए थे। बिरसा जेल भेज दिए गए। बिरसा और उनके साथियों को दो साल की सजा हुई। बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 30 नवंबर 1897 को उसे जेल से रिहा कर दिया गया। उसे पुलिस चलकद लेकर आई और चेतावनी दी कि वह पुरानी हरकत नहीं करेगा। बिरसा ने भी वादा किया कि वह किसी तरह का आंदोलन नहीं करेगा, लेकिन अनुयायियों और मुंडाओं की स्थिति देखकर बिरसा अपने वचन पर कायम नहीं रह सके।
आदिवासियों ने दिया भगवान का दर्जा
हैजा बीमारी से ग्रसित होने के कारण 9 जून 1900 में बिरसा मुंडा ने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कर दिया। वहीं जेल में मृत्यु होने के कारण शासन ने आनन-फानन में कोकर पास डिस्टिलरी पुल के के पास उनका अंतिम संस्कार कर दिया। इस तरह से एक युग का हमेशा के लिए अंत हो गया। बता दें कि आदिवासियों के लिए बिरसा मुंडा भगवान के समान रहे।