Matrubhoomi: भारत के अनमोल स्वतंत्रता सेनानी हैं बिरसा मुंडा, इन्हें आज भी भगवान की तरह पूजा जाता है

By अंकित सिंह | Mar 15, 2022

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई नायक पैदा हुए जिन्होंने अपना सर्वस्व इस देश के लिए न्योछावर कर दिया। सभी स्वतंत्रता सेनानियों के नाम देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे बिरसा मुंडा। कहते हैं कि एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस उस आवाज को बुलंद करने वाला होना चाहिए और कुछ ऐसा ही बिरसा मुंडा ने किया था। बिरसा मुंडा ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अहम किरदार निभाया था। बिरसा मुंडा के बेहतरीन कार्यों की ही वजह से उन्हें बिहार और झारखंड के लोग भगवान की तरह पूजते हैं। माना जाता है कि बिरसा मुंडा एक युगांतरकारी शख्सियत थे, जिन्होंने आदिवासी जनजीवन के कल्याण एवं उत्थान के लिये बिहार, झारखंड और ओडिशा में जननायक के तौर पर अपनी अलग पहचान बनाई। हम ये कह सकते हैं कि बिरसा मुंडा महान् धर्मनायक थे, तो प्रभावी समाज-सुधारक थे। वे राष्ट्रनायक थे तो जन-जन की आस्था के केन्द्र भी थे।


बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के एक जनजाति गरीब परिवार में हुआ था। बिरसा मुंडा का बचपन अपने घर की बकरियों को चराने में बिता। बाद में उन्होंने अपनी शिक्षा चाईबासा के एक जर्मन मिशन स्कूल में ग्रहण की। वहां पर आदिवासी संस्कृति का उपहास उड़ाया जाता था जो कि बिरसा मुंडा को सहन नहीं होता। इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। फिर क्या था। ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया। बिरसा मुंडा बचपन में अपने खेतों में घूमा करते थे और बांसुरी भी बजाया करते थे। बिरसा मुंडा बचपन से ही बेहद चंचल और होशियार बालक थे। अंग्रेजों के बीच रहते हुए वे बड़े जरूर हुए परंतु उन्हें अंग्रेजों की संस्कृति बिल्कुल भी नहीं भाती थी। गरीबी की वजह से उन्हें समय-समय पर अपने घर भी बदलने पड़े। बिरसा मुंडा अपने मामा के यहां रहकर भी 2 साल तक पढ़ाई लिखाई की।

 

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बिरसा मुंडा के जीवन में बड़ा परिवर्तन तब आया जब उनका संपर्क स्वामी आनंद पांडे से हुआ। उन्हें हिंदू धर्म तथा महाभारत का ज्ञान हुआ। कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी घटना घटी जिसकी वजह से लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में इस बात का भी विश्वास होने लगा कि बिरसा को छूते ही उनके सभी रोग दूर हो जाएंगे। बिरसा मुंडा ने अपने जीवन के 4 साल चाईबासा में बिताएं। इसके बाद से बिरसा मुंडा लगातार समाज के लोगों की आवाज उठाने लगे और जागरूकता भी फैलाने लगे। 1894 में एक भीषण अकाल आया था। बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय के लोगों को एकत्रित किया और अंग्रेजों से लगान माफी की मांग करने लगे। इसको लेकर बिरसा मुंडा ने एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। 1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी। भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे आदिवासी नायक हैं जिन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया।


1895 में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केंद्रीय कारागार में उन्हें 2 साल की कारावास की सजा दे दी गई। इस दौरान बिरसा मुंडा ने इस बात को ठान लिया कि वह जनता की सहायता करने के लिए लगातार प्रयास करते रहेंगे। 1897 में बिरसा मुंडा और उनके शिष्यों को हजारीबाग जेल से छोड़ दिया गया। इसके बाद से बिरसा मुंडा ने अंग्रेजो के खिलाफ आक्रामक नीति अपनाने शुरू कर दी। 1898 में मुंडा जनजाति की एक बड़ी सभा हुई जहां पर विद्रोह की रूपरेखा तैयार की गई। बिरसा मुंडा ने तीर धनुष एवं तलवारों से लैस एक नई सेना बनाई। बिरसा मुंडा और उनके संगठन के लोगों ने तीर कमान के ही बल पर अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों के समक्ष अपना लोहा मनवाया था। बिरसा मुंडा के आह्वान के बाद से ही मुंडाओं में संगठित होने की एक अलग चेतना जागी जिसके बाद से अंग्रेज भी घबराने लगे थे। बताया जाता है कि 1897 से लेकर 1900 के बीच मुंडाओ- अंग्रेज सिपाहियों के बीच जबरदस्त युद्ध होती रही और बिरसा मुंडा के संगठन ने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था। बिरसा मुंडा लगातार गुप्त जगहों पर सभाएं करने लगे और अपने अनुयायियों को प्रभावित करने लगे। बिरसा मुंडा अपनी सेना को अजय रहने का भी विश्वास दिलाते रहे। यही कारण रहा कि उन्हें महापुरुष का दर्जा मिल गया लोग उन्हें धरती बाबा के नाम से पुकारने लगे और पूजा करने लगे

 

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कुल मिलाकर कहे तो बिरसा मुंडा ने न केवल अपनी प्रकृति, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटिश शासन के दौरान उन्होंने 19वीं शताब्दी में आदिवासी बेल्ट में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे। बिरसा मुंडा ने किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा भी लोगों को दी। जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ्तारियां भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। वहां अंग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गई। लेकिन लोक गीतों और जातीय साहित्य में बिरसा मुंडा आज भी जीवित हैं। बिरसा मुंडा को आज भी आदिवासी समाज भगवान की तरह पूजता है। आजादी में बिरसा मुंडा के योगदान को देखते हुए 15 नवंबर को आजादी के 75 साल पूरे होने के अवसर पर मोदी सरकार ने उनके जन्म दिवस के अवसर पर जनजातीय गौरव दिवस मनाने का फैसला लिया। 


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