By डॉ. नीलम महेंद्र | Sep 27, 2021
2021 में भारत को स्वराज प्राप्त हुए 74 वर्ष पूर्ण हुए और हम स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। इस अवसर पर देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे समय में प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह राजकीय विश्वविद्यालय की आधारशिला रखते हैं। भारत जैसा देश जो वोटबैंक की राजनीति से चलता है वहाँ प्रधानमंत्री के इस कदम को उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावों से प्रेरित बताया जा रहा है। बहरहाल कारण जो भी हो लेकिन कार्य निर्विवाद रूप से सराहनीय है। क्योंकि हमने यह आज़ादी बहुत त्याग और अनगिनत बलिदानों से हासिल की है। न जाने कितने वीरों ने अपनी जवानी अपनी मातृभूमि के नाम कर दी। न जाने कितनी माताओं ने अपने पुत्रों को अपने ऋण से मुक्त कर के मातृभूमि के ऋण को चुकाने के लिए उनके मस्तक पर तिलक लगाकर फिर कभी न लौटकर आने के लिए भेज दिया। न जाने कितनी सुहागिनों ने क्षत्राणियों का रूप धरकर हंसते हंसते अपने सुहाग को भारत माता को सौंप दिया।
स्वाधीनता के उस यज्ञ को न जाने कितने चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, लाला लाजपत राय ने अपने प्राणों की आहुति से प्रज्ज्वलित किया। लेकिन जब 15 अगस्त 1947 में वो ऐतिहासिक क्षण आया तो ऐसे अनेकों नाम मात्र कुछ एक नामों के आभामंडल में कहीं पीछे छुप गए या छुपा दिए गए। इतिहास रचने वाले ऐसे कितने नाम खुद इतिहास बनने की बजाए मात्र किस्से बनकर रह गए। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ऐसा ही एक नाम है। लेकिन अब राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर एक विश्वविद्यालय बनाने की पहल ने सिर्फ आज़ादी के इन मतवालों के परिवार वालों के दिल में ही नहीं बल्कि देश भर में एक उम्मीद जगाई है कि उन सभी नामों को भारत के इतिहास में वो सम्मानित स्थान दिया जाएगा जिसके वो हकदार हैं।
कहते हैं कि किसी भी देश का इतिहास उसका गौरव होता है। हमारा इतिहास ऐसे अनगिनत लोगों के उल्लेख के बिना अधूरा है जिन्होंने आज़ादी के समर में अपना योगदान दिया। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ऐसा ही एक नाम है जिनके मन में बहुत ही कम आयु में देश को आज़ाद कराने की अलख जल उठी थी। मात्र 27 वर्ष की आयु में वे दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के अभियान में उनके साथ थे। और 29 वर्ष की आयु में अफगानिस्तान में भारत की अंतरिम सरकार बनाकर स्वयं को उसका राष्ट्रपति घोषित कर चुके थे। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उन्हें बड़ा खतरा मानते हुए तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें देश से निर्वासित कर दिया था और वे 31 साल 8 महीनों तक दुनिया के विभिन्न देशों में भटकते रहे। इस दौरान वे विभिन्न देशों की सरकारों से भारत की आज़ादी के लिए समर्थन जुटाने के कूटनीतिक प्रयास करते रहे। राजा महेंद्र प्रताप उन सौभाग्यशालियों में से एक थे जो स्वतंत्र भारत की संसद तक भी पहुंचे थे। 1957 में वे मथुरा से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव में खड़े भी हुए थे और जीते भी थे।
दरअसल राजा महेंद्र प्रताप सिंह के व्यक्तित्व के कई आयाम थे। वे स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद, क्रांतिकारी, समाज सुधारक और दानवीर भी थे। जब भारत आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था तो ये केवल भारत की आज़ादी के बारे में ही नहीं सोच रहे थे बल्कि वे विश्व शांति के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने "संसार संघ" की परिकल्पना करके भारत की संस्कृति का मूल वसुधैव कुटुंबकम को साकार करने की पहल की थी।
इनकी शख्सियत की विशालता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे देश को केवल अंग्रेजों ही नहीं बल्कि समाज में मौजूद कुरीतियों से भी आज़ाद कराने की इच्छा रखते थे। इसके लिए उन्होंने छुआछूत के खिलाफ भी अभियान चलाया था। अनुसूचित जाति के लोगों के साथ भोजन करके उन्होंने स्वयं लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें जातपात से विमुख होने के लिए प्रेरित किया। समाज से इस बुराई को दूर करने के लिए वो कितने संकल्पबद्ध थे इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने सबको एक करने के उद्देश्य से एक नया धर्म ही बना लिया था "प्रेम धर्म"।
वे जानते थे कि समाज में बदलाव तभी आएगा जब लोग शिक्षित होंगे। तो इसके लिए उन्होंने सिर्फ अपनी संपत्ति ही दान में नहीं दी बल्कि वृंदावन में तकनीक महाविद्यालय की भी स्थापना की। इनके कार्यों से देश की वर्तमान पीढ़ी भले ही अनजान है लेकिन वैश्विक परिदृश्य में उनके कार्यों को सराहा गया, यही कारण है कि 1932 में उन्हें नोबल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया था। लेकिन इसे क्या कहा जाए कि देश को पराधीनता की जंजीरों से निकाल कर स्वाधीन बनाने वाले ऐसे मतवालों पर 1971 में देश की एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका "द टेररिस्ट्स" यानी "वो आतंकवादी" नाम की एक श्रृंखला निकलती है। जाहिर है राजा महेंद्र प्रताप जो कि तब जीवित थे उस पत्रिका के संपादक को पत्र लिखकर आपत्ति जताते हैं।
दरअसल हमें यह समझना चाहिए कि भारत को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद कराने के लिए किसी ने बंदूक उठाई तो किसी ने कलम। किसी ने अहिंसा की बात की तो किसी ने सशस्त्र सेना बनाई। स्वतंत्रता प्राप्ति का यह संघर्ष विभिन्न विचारधाराओं वाले व्यक्तियों का एक सामूहिक प्रयास था। उनके विचार अलग थे जिसके कारण उनके मार्ग भिन्न थे लेकिन मंजिल तो सभी की एक ही थी "देश की आज़ादी"। अलग-अलग रास्तों पर चलकर भारत को आज़ादी दिलाने में अपना योगदान देने वाले ऐसे कितने ही वीरों के बलिदानों की दास्तान से देश अनजान है। राजा महेंद्र प्रताप के नाम पर विश्वविद्यालय बनाने के कदम से ऐसे ही एक गुमनाम नाम को पहचान दी है। उम्मीद है कि इस दिशा में यह सरकार का पहला कदम होगा आखरी नहीं क्योंकि अभी ऐसे कई नाम हैं जिनके त्याग और बलिदान की कहानी जब गुमनामी के अंधकार से बाहर निकल कर आएगी तो इस देश की भावी पीढ़ी को देश हित में कार्य करने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करेगी।
-डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)