अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर के निर्माण के लिए किए गए भूमि पूजन के साथ ही देश में कई चीजें बदलने जा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में भगवान श्रीराम भारत की संस्कृति की आत्मा हैं, पहचान हैं। भगवान राम एक आदर्श हैं जिन्होंने जीवन जीने से लेकर पारिवारिक दायित्व और राजकाज को लेकर एक ऐसा आदर्श स्थापित किया है जो आज भी अनुपालन करने योग्य है। यही वजह है कि जब भारत की इस धरती ने भगवान श्रीराम को उनका घर दिया तो अब भगवान श्रीराम भी इस देश की दशा-दिशा बदलने जा रहे हैं।
इस लेख में हम बात करेंगे उस सिद्धांत की, जिसने भारत को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है- धर्मनिरपेक्षता। संविधान में वर्णित पंथनिरपेक्षता के शब्द को हटाकर धर्मनिरपेक्षता के शब्द को जब जोड़ा गया था, वह तारीख तो सबको याद है लेकिन जिस भावना से भारत के पंथनिरपेक्ष या धर्मनिरपेक्ष राज्य बनने की कल्पना की गई थी वो भावना कब विकृत होकर अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण की नीति में बदल कर स्थापित हो गयी, किसी को पता ही नहीं चला।
वैसे तो देश में अंग्रजों के शासनकाल में ही कई बार दंगे हुए थे लेकिन 1947 आते-आते स्थिति भयावह होती चली गई। इसके लिए धार्मिक से ज्यादा राजनीतिक कारण जिम्मेदार थे और इसलिए यह माना गया कि पाकिस्तान के गठन के साथ ही धार्मिक लड़ाई की भावना खत्म हो जाएगी लेकिन हुआ ठीक इसके उलट।
आजादी के साथ ही भारत में वोट बैंक राजनीति की शुरुआत भी हो गई और इसी की वजह से वोट के ठेकेदारों का नया समूह भी पैदा हो गया। थोक में वोट मिलने के लालच में देश का राजनीतिक वर्ग भारत की सनातन परंपरा को भूलता चला गया और नतीजा देश में पहले से भी ज्यादा धार्मिक अलगाव की भावना घर कर गई। देश में सैंकड़ों ऐसे शहर बन गए, जहां की धरती हर साल दंगों की वजह से लाल रहने लगी। इन सबके लिए जिम्मेदार एक ही सिद्धांत था- छद्म धर्मनिरपेक्षता अर्थात नकली धर्मनिरपेक्षता।
इसी का असर था कि देश में मुसलमानों का एक ऐसा समूह बन गया जिसे बाबर के नाम से ज्यादा प्यार और लगाव था। इन मुठ्ठीभर लोगों ने शातिर तरीके से अभियान चलाकर भगवान श्रीराम को हिंदू देवता की धार्मिक छवि दे दी। जबकि वास्तव में श्रीराम धार्मिक भगवान नहीं बल्कि भारत की सनातन परंपरा के प्रतीक हैं, मर्यादा और धर्म पालन के प्रतीक है। श्रीराम सिर्फ हिंदुओं के भगवान नहीं हैं बल्कि भारत की प्राचीन सनातन परंपरा के प्रतीक हैं, भारत की आत्मा में बसते हैं। भारत और श्रीराम एक दूसरे के पर्याय हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जो श्रीराम, भारत की आत्मा के प्रतीक है, उन्हें धर्म विशेष तक सीमित कर दिया गया। वोट बैंक की राजनीति में धंसे नेताओं ने श्रीराम के नाम को ही सांप्रदायिक बना दिया।
भगवान श्रीराम– बदल रही है देश की राजनीति
भगवान श्रीराम के जन्म स्थल को लेकर दशकों तक चले कानूनी विवाद का अंत सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ तो हो ही गया था लेकिन इसके बावजूद छद्म धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले लोग इस पर राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे थे। मंदिर के भूमिपूजन के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अयोध्या जाने के फैसले को लेकर भी राजनीतिक विवाद खड़ा करने का प्रयास किया गया। लेकिन प्रधानमंत्री के अयोध्या की धरती पर उतरने के साथ ही जिस तरह के राजनीतिक बयान सामने आए, उससे यह अहसास भी होने लगा कि भारत की राजनीतिक दशा और दिशा बदलने जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या की धरती पर थे। उसी दिन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी, सपा राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव सहित तमाम विरोधी दलों के नेताओं के बयानों पर अगर गौर किया जाए तो साफ-साफ यह पता लगता है कि देश का राजनीतिक वर्ग यह समझ चुका है कि अब अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का दौर खत्म हो चुका है। नेता अब समझने लगे हैं कि तुष्टिकरण की राजनीति से फायदे की बजाय नुकसान होना तय है।
2014 में नरेंद्र मोदी के पहली बार प्रधानमंत्री बनने के साथ देश में बहुसंख्यकवाद की जिस नई राजनीतिक विचारधारा ने जड़ें जमाना शुरू कर दिया था वो अयोध्या में भूमिपूजन के साथ ही पूरी तरह से स्थापित हो गया है। देश के राजनीतिक दल, देशभर में सक्रिय राजनीतिक समूह और सबसे महत्वपूर्ण देश के करोड़ों मतदाता, अगर सही अर्थों में इस भावना को आत्मसात कर लें तो निश्चित तौर पर देश में एक नया युग शुरू हो जाएगा। एक नया भारत बन जाएगा जो धार्मिक अलगाव, सांप्रदायिक तनाव और दंगों से पूरी तरह से मुक्त होगा। सही मायनों में अनेकता में एकता का प्रतीक होगा।
-संतोष पाठक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)