By चेतनादित्य आलोक | Sep 09, 2024
अमेरिकी सरकार अपने देश में होने वाली नस्लवादी हिंसा पर हमेशा ही परदे डालने का कार्य करती है, लेकिन ऐसी ही हिंसक गतिविधियों को लेकर दूसरे देशों, विशेषकर विकासशील, कमजोर और छोटे देशों के पीछे वह हाथ धोकर पड़ी रहती है। गौरतलब है कि इसी वर्ष जून के आखिरी सप्ताह में अमेरिका के विदेश विभाग ने वर्ष 2023 के लिए 'धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट' जारी कर मोदी सरकार और बीजेपी का नाम लिए बिना ही भारत में मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया था, जबकि सच तो यह है कि भारत में अल्पसंख्यक दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक स्वतंत्र, तीव्र जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक समृद्धि वाला वर्ग (समूह) माना जाता है और अब तो यह सिद्ध भी हो चुका है। भारत में निवास करने वाले हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, यहूदी, वोहरा आदि तमाम समुदायों के लोग स्वतंत्रतापूर्वक रहते हुए अपने मन के मुताबिक अपनी जीविका चलाने तथा परिवार का भरण−पोषण करने का कार्य करते हैं। इतना ही नहीं, भारत में रहने वाला किसी भी जाति, समुदाय, धर्म अथवा वर्ग का कोई भी व्यक्ति दूसरे दर्जे का नागरिक नहीं समझा जाता है। भारत के पवित्र और महान संविधान ने यहां पर निवास करने वाले अन्य जातियों, समुदायों, धर्मों और वर्गों के व्यक्तियों को भी उतना ही अधिकार प्रदान किया है, जितना हिंदू समुदाय के लोगों को प्राप्त है।
इतनी स्वतंत्रता... इतनी समानता... इतनी आजाद ख्याली और इतनी निर्भीकता किसी अन्य देश में अल्पसंख्यकों को प्राप्त है क्या... नहीं, लेकिन फिर भी अमेरिका भारत में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार एवं भेदभाव किए जाने का आरोप लगाता रहता है। सर्वाधिक दुःख की बात तो यह है कि यह आरोप सिर्फ अमेरिका ही नहीं, बल्कि कनाडा, जर्मनी, तुर्किए, पाकिस्तान और मालदीव जैसे देश भी अब भारत पर इस प्रकार के घिनौने आरोप लगाने की हिमाकत करने लगे हैं, जिनके देशों में खुद ही अल्पसंख्यकों का जीवन हमेशा संकटों से भरा रहता है। इस मामले में जर्मनी को यदि छोड़ भी दें तो कनाडा, तुर्किए, पाकिस्तान और मालदीव को यह अधिकार नहीं है कि वे अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करने का आरोप भारत पर लगाएं, लेकिन ये ऐसा करने की हिम्मत इसलिए करते हैं, क्योंकि इन देशों में फिलहाल भारत और मोदी विरोधी सरकारें मौजूद हैं। इसलिए येन−केन−प्रकारेण इन्हें भारत और मोदी सरकार का विरोध करना ही है। ऐसे में नकारात्मक राजनीति करने वाले हमारे देश के कुछ विपक्षी दल और राजनेता इनका काम आसान करने का कार्य करते रहते हैं। प्रायरू प्रत्येक बात पर मोदी सरकार का विरोध करते−करते कुछ विपक्षी दल और राजनेता अक्सर मर्यादा की सीमाएं लांघ जाते हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं, जब राहुल गांधी ने देश के भीतर भी और विदेशों में भी विपक्ष की आवाजें दबाने और देश की स्वायत्त संस्थाओं को कमजोर तथा नियंत्रित करने का आरोप मोदी सरकार पर लगाया था।
बाद में तमाम विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं यथा अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, तेजस्वी यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे, कनीमोई आदि ने भी यही आरोप लगाया था। दरअसल, मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलेरेंस की नीति अपनाए जाने की वजह से देश भर से अनेक विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार उजागर होने और फिर ईडी तथा सीबीआई जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों के हत्थे चढ़े इन नेताओं के जेल जाने के मामले को विपक्ष ने मोदी सरकार की दमनकारी नीति करार देकर इसे देश के भीतर और बाहर मुद्दा बनाने का कार्य किया। इतना ही नहीं, मुस्लिमों के विरूद्ध भाजपा मुख्यमंत्रियों और नेताओं द्वारा दिए गए राजनीतिक बयानों और किसी मुस्लिम नागरिक के विरूद्ध घटित सही या गलत कुछेक घटनाओं को लेकर सरकार और भाजपा को मुस्लिम विरोधी बताते हुए मीडिया में मनगढ़ंत इस्लामोफोबिक एजेंडा चलाने का भी कार्य किया गया। देखा जाए तो सरकार और प्रधानमंत्री मोदी के विरूद्ध विपक्ष के द्वारा चलाए जाने वाले ऐसे नकारात्मक नैरेटिव को ही अमेरिका, जर्मनी, कनाडा, तुर्किए, पाकिस्तान और मालदीव जैसे देश आगे बढ़ाने का कार्य करते रहते हैं, ताकि दुनिया भर में भारत विरोधी एजेंडा चलाकर मोदी सरकार को बदनाम और कमजोर किया जा सके। यह एक घातक अंतरराष्ट्र्रीय साजिश प्रतीत होती है, जिसे देश की विपक्षी पार्टियां जाने−अनजाने मजबूती प्रदान करने का कार्य करती रही हैं।
जबकि वास्तव में 2014 से ही 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के सिद्धांत पर चलती हुई मोदी सरकार बिना भेदभाव के सभी जातियों, वर्गों, समुदायों एवं धर्मों के लोगों का विकास करने में जुटी हुई है। दूसरी ओर स्वयं अमेरिका समेत इन देशों में ही निर्दोष एवं मासूम अल्पसंख्यकों और विदेशी नागरिकों के साथ जिस प्रकार के व्यवहार किए जाते हैं, वे इन्हें असभ्य, नस्लवादी, रूढ़ एवं असहिष्णु समाजों की सूची में शामिल किए जाने के लिए पर्याप्त प्रतीत होते हैं। इस वर्ष जनवरी से मार्च तक में ही अमेरिका में लगभग डेढ़ दर्जन भारतीय विद्यार्थियों की हत्या कर दी गई अथवा संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई थी। यही नहीं, अमेरिका के विभिन्न भागों में स्थित हिंदू मंदिरों पर भी हमले काफी बढ़ गए हैं। गौरतलब है कि न्यूयॉर्क से लेकर कैलिफोर्निया तक अब तक अमेरिका में हिंदुओं एवं हिंदू मंदिरों पर कई हमले किए जा चुके हैं। इन हमलों से भारतीय−अमेरिकी समुदाय बेहद चिंतित, भयभीत और नाराज भी है। इसी वर्ष अप्रैल के आरंभिक सप्ताह में पांच भारतीय−अमेरिकी सांसदों प्रमिला जयपाल, रो खन्ना, राजा कृष्णमूर्ति, श्री थानेदार और ऐमी बेरा ने डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस को पत्र लिखकर मंदिरों पर हमलों को लेकर रिपोर्ट मांगी थी और साथ ही यह भी कहा था कि भारतीय−अमेरिकी समुदाय के लोग अमेरिका में हिंदू मंदिरों पर होने वाले हमलों में हुई वृद्धि को लेकर डरे हुए हैं।
अमेरिका में भारतीय−अमेरिकी हिंदुओं और उनके धार्मिक मंदिरों पर लगातार होते हमलों को लेकर इसी वर्ष अप्रैल के शुरूआत में अमेरिकी थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट ने अपनी एक रिपोर्ट 'पाकिस्तान डिस्टेबलाइज प्लेबुक−खालिस्तान सेपरेटिस्ट एक्टिवज्मि विदिन अमेरिका' में कहा था कि अमेरिका में कई गुरुद्वारे अब चरमपंथ, उग्रवाद और हिंसा की जन्म−स्थली बन गए हैं। हडसन इंस्टीट्यूट के अनुसार खालिस्तान समर्थक चरमपंथी संगठन पूरी दुनिया के लिए खतरा हैं और भारत कई बार खालिस्तान समर्थकों पर कार्रवाई की मांग कर चुका है। इसलिए खालिस्तान से जुड़े संगठनों और उनके समर्थकों की सभी गतिविधियों की जांच होनी चाहिए। इसी वर्ष 28 जून को उत्तरी अमेरिकी हिंदुओं के गठबंधन 'सीओएचएनए' द्वारा आयोजित 'राष्ट्रीय हिंदू समर्थन दिवस' में हिंदू समुदाय के नेताओं, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थित मिें प्रमुख अमेरिकी सांसदों ने अमेरिका में जारी हिंदूफोबिया के विरूद्ध भारतीय−अमेरिकी हिंदुओं के प्रति अपना समर्थन जताया था। बहरहाल, भारतीय−अमेरिकी हिंदू नागरिकों पर जब−तब होते रहने वाले नस्ली हमलों में लगातार होती वृद्धि चौंकाती भी है और भयभीत भी करती है, क्योंकि ये आंकड़े अमेरिका में 'हिंदूफोबिया' के नए संस्करण के फैलाव के सबूत हैं।
गौरतलब है कि हिंदूफोबिया का आशय हिंदुओं, उनकी संस्कृति तथा उनके धर्म के प्रति घृणा और अपमानजनक दृष्टिकोण तथा व्यवहार अपनाए जाने से है, जिसमें कमी आने के बजाए और वृद्धि ही होती जा रही है। दुर्भाग्य से अमेरिका की बाइडेन सरकार ने न तो अब तक भारतीय−अमेरिकी हिंदुओं की चिंताओं पर ध्यान दिया है और न ही उत्तरी अमेरिकी हिंदुओं के संगठन 'सीओएचएनए' के सुझावों पर। यहां तक कि उसने अमेरिका में जारी हिंदूफोबिया के विरूद्ध स्वदेशी थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट की बात भी अब तक नहीं मानी है। यही कारण है कि अब तक परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं आ सका है। इसलिए अमेरिका में जारी हिंदूफोबिया को लेकर अब अमेरिकी सरकार की मंशा पर संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
−चेतनादित्य आलोक,
वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड