'मैं रहूं या न रहूं, यह देश रहना चाहिए' यह पंक्ति प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतवासी का मनोभाव है। इस भाव को चरितार्थ करने के लिए न जाने कितनी ही पीढ़ियों ने अपने आपको इस मातृभूमि पर न्यौछावर कर दिया। अखंड भारत हमारे लिए केवल शब्द नहीं है। यह हमारी श्रद्धा, भाव, देशभक्ति व संकल्पों का अनवरत प्रयास है जिसे प्रत्येक देशभक्त जीवंत महसूस करता है। हम इस भूमि को माँ मानते हैं और पुत्रवत इस भूमि की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। हम कहते भी हैं माताभूमि: पुत्रोहंपृथिव्या:। इसलिए माँ का प्रत्येक कष्ट हमारा अपना कष्ट है और एक माँ खंडित रहे, कष्ट में रहे, यह उसके पुत्र कैसे स्वीकार कर सकते हैं। समय-समय पर भारत खंडित कैसे हुआ, कौन-सी गलतियां हम से हुईं। वो कौन से कारण रहे जिन्होंने इसकी पृष्ठ्भूमि लिखी इन सबका चिंतन, विभाजन की पीड़ा व पुनः अखंड होने का विश्वास व संकल्प ही इसका एक मात्र हल है। जब भारत की लाखों आँखों में पलने वाला यह अखंड भारत का सपना करोड़ों-करोड़ों हृदयों की धड़कन बन कर धड़कने लगेगा, तभी यह संभव होगा।
असंभव में छिपा है संभव शब्द
अखंड भारत का स्वप्न कुछ लोगों को असंभव लगता हो। लेकिन यदि हम इतिहास का अवलोकन करेंगे, तो ध्यान आएगा कभी जो बातें असंभव लगा करती थीं, कुछ समय के पश्चात वो संभव भी हुआ है। मनुष्य की उम्र कुछ वर्ष हुआ करती है पर देशों की उम्र हजारों-हजारों वर्ष होती है। विश्व के ऐतिहासिक अनुभव हैं कि किसी भी देश का विभाजन स्थाई अथवा अटल नहीं होता। 1905 का बंग भंग, पुनः 1911 में एक हो गया। 2000 वर्ष पूर्व नष्ट इजराइल, मई 1948 में फिर से स्वतंत्र राष्ट्र बना। ‘होली रोमन एम्पायर’ शीघ्र नष्ट हो गया। न पवित्र रहा, न रोमन और न एम्पायर। विशाल ब्रिटिश साम्राज्य भी स्थाई न रहा। जर्मनी का विभाजन 1945 में, परन्तु 1989 में पूर्वी जर्मनी व पश्चिम जर्मनी को विभाजित करने वाली बर्लिन की दीवार गिरा दी गई, जर्मनी पुनः एक हो गया। दोनों वियतनाम एक हो गये। सोवियत संघ से 15 मध्य एशियाई देश अलग होकर पुनः स्वतंत्र राष्ट्र बन गये।
संस्कृति ही हमारा मूल
1947 में ही भारत का पहला व आखिरी विभाजन नहीं हुआ। वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र स्वरूप ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि भारत की सीमाओं का संकुचन 1947 से काफी पहले शुरू हो चुका था। सातवीं से नवीं शताब्दी तक लगभग ढाई सौ साल तक अकेले संघर्ष करके हिन्दू अफगानिस्तान इस्लाम के पेट में समा गया। हिमालय की गोद में बसे नेपाल, भूटान आदि जनपद अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मुस्लिम विजय से बच गए। अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया पर अब वह राजनीतिक स्वतंत्रता संस्कृति पर हावी हो गयी है। श्रीलंका पर पहले पुर्तगाल, फिर हॉलैंड और अंत में अंग्रेजों ने राज किया और उसे भारत से पूरी तरह अलग कर दिया। यद्यपि श्रीलंका की पूरी संस्कृति भारत से गए सिंहली और तमिल समाजों पर आधारित है। दक्षिण पूर्वी एशिया के हिन्दू राज्य क्रमश: इस्लाम की गोद में चले गए किन्तु यह आश्चर्य ही है कि भारत से कोई सहारा न मिलने पर भी उन्होंने इस्लामी संस्कृति के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाने के बाद भी उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखा है और पूरे विश्व के सामने इस्लाम के साथ सह अस्तित्व का एक नमूना पेश किया। किन्तु मुख्य प्रश्न तो भारत के सामने है। तेरह सौ वर्ष से भारत की धरती पर जो वैचारिक संघर्ष चल रहा था उसी की परिणति 1947 के विभाजन में हुई। पाकिस्तानी टेलीविजन पर किसी ने ठीक ही कहा था कि जिस दिन आठवीं शताब्दी में पहले हिन्दू ने इस्लाम को कबूल किया उसी दिन भारत विभाजन के बीज पड़ गए थे। इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम आधार पर हुआ। पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी देश घोषित किया। वहां से सभी हिन्दू-सिखों को बाहर खदेड़ दिया। अब वहां हिन्दू-सिख जनसंख्या लगभग शून्य है।
भारत बोध का अभाव
विभाजन के कारणों की समीक्षा करने पर ध्यान आता है कि तात्कालिक नेतृत्व के मनों में भारत बोध का अभाव व राष्ट्र और भारतीय संस्कृति के बारे में भ्रामक धारणा थी। अंग्रेज अपनी चाल में सफल हुए और उनके द्वारा स्थापित बात कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा और न है बल्कि यह तो अनेक राज्यों का मिश्रण है, उस समय देश के अधिकतर नेता भी इन्हीं बातों में आकर उन्हीं की भाषा बोलने लगे। श्री सुरेंद्र नाथ बनर्जी द्वारा लिखी पुस्तक 'A Nation in Making' का शीर्षक भी इसी बात की ओर इशारा करता है। अग्रेजों ने उस समय एक और नैरेटिव स्थापित करने का प्रयास किया और उसमें भी उन्हें सफ़लता मिली कि जैसे मुसलमान व वे बाहर से आये हैं वैसे ही आर्य भी बाहर से आये हैं और वही अब हिंदू के नाम से जाने जाते हैं। समय-समय पर देश हित को पीछे छोड़ मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने भी विभाजन की बात को ओर हवा देने का काम किया। तुष्टीकरण के नाम पर भारत के मान बिंदुओं से समझौता किया गया। फिर चाहे वो करोड़ों देशवासियों में देशभक्ति के भाव को बढ़ाने वाला गीत ‘वंदे मातरम’ के विरोध की बात हो, राष्ट्रीय ध्वज के रूप में भगवा रंग व चरखे को न मानने की बात हो, राष्ट्रीय जनसम्पर्क की भाषा के रूप में हिंदी को न स्वीकार करने की बात हो, गोहत्या बंदी की मांग का विरोध हो या फिर अनेक महापुरुषों का महत्व कम किये जाने की बात हो। इन मानबिन्दुओं पर होते आघात के कारण हिन्दुओं की आस्था के केंद्र बिंदु कम होते चले गए व मुस्लिम समाज में भी अलगाव बढ़ता गया। विदेशी आक्रांताओं ने समय-समय पर भारत पर हमले कर हमें पराधीन करने का प्रयास किया। हम पराधीन भी हुए, लेकिन कभी भी हमने पराधीनता स्वीकार नहीं की। हम उसके खिलाफ़ संघर्ष करते रहे। परंतु 1947 में हमारे अपने ही राजनैतिक नेतृत्व ने विभाजन को स्वीकार कर लिया। यह देशवासियों के लिए सबसे दुखद था। अंग्रेज जो स्वतंत्रता हमें जून 1948 तक देने वाले थे। वह 15 अगस्त 1947 को दी जाएगी, ऐसी घोषणा उनके द्वारा 3 जून 1947 को ही कर दी गयी। ताकि कांग्रेस व मुस्लिम लीग को पुन: सोचने का मौका न मिल सके और देश में इसके प्रतिरोध में भी वातावरण न बन सके।
भारत का विभाजन स्थायी नहीं
हम सबके सामने प्रश्न यह है कि हम केवल पुरानी बातों का रोना न रोते हुए, आज हम अखंड भारत के लिए क्या कर सकते हैं यह सोचना होगा। यह हमारा व आने वाली पीढ़ियों का दायित्व है कि हम इस अखंड भारत के स्वप्न को पूरा करेंगे। यही दृढ़ संकल्प हमारे आगे के रास्ते को प्रशस्त करेगा। यह कार्य हम ही प्रारंभ करेंगे ऐसा नहीं है, हमारे पूर्वजों ने भी इस कार्य को जारी रखा। इसी कारण आज हम इस अखंड भारत के विषय में अपनी भूमिका के बारे में सोच पा रहे हैं। प्रसिद्ध विद्वानों के निष्कर्षों तथा कथनों से भी ध्यान में आता है कि भारत का विभाजन स्थायी नहीं है। जनरल करियप्पा ने कहा है कि भारत फिर से संगठित (एक) होगा। महर्षि अरविन्द के शब्दों में हम स्थाई विभाजन के निर्णय को स्वीकार नहीं करते। महात्मा गांधी के अनुसार दोनों की सांस्कृतिक एकता तथा दोनों में लचीलापन ही दोनों को एक बनाने का प्रयत्न करेगा। प्रसिद्ध लेखक-वान वाल्बोनवर्ग ने भी कहा था कि भौगोलिक दृष्टि से भारत और पाकिस्तान का विभाजन इतना तर्कहीन है कि आश्चर्य होता है कि यह कितने समय तक चल सकेगा?
भारत की अखंडता का आधार भूगोल से ज्यादा सांस्कृतिक है। अखंड भारत कब होगा यह कहना कठिन है। लेकिन भारत फिर से अखंड होगा ही यह तय है, क्योंकि यही भारत की नियति भी है। और हम सब तो सौभाग्यशाली हैं क्योंकि हमने अपनी आँखों से पिछले कुछ समय में बहुत सी असंभव लगने वाली बातों को संभव होते हुए देखा है। फिर चाहे वो श्रीराम मंदिर निर्माण का विषय हो, धारा 370 की समाप्ति या फिर तीन तलाक का मामला। हम ‘याचि देही, याचि डोला’ (यानी इन्हीं आँखों से व इसी शरीर से) को मानने वाले लोग हैं। अखंड भारत की आकांक्षा के साथ-साथ हमें अपने लिए कुछ करने वाली बातें भी तय करनी होगी। हमें समाज की कमियों को पहचान कर उसको दूर करने के लिए तत्पर रहना होगा। अपने आप को संगठित रखना होगा। अपने सिद्धांतों को व्यवहार में उतारना व जीवन में उसका प्रकटीकरण दिखे इस और प्रयासरत रहना होगा। देशहित के बारे में सोचने वाले बंधुओं को व समाज की सज्जन शक्ति को साथ लेकर चलना होगा। इन सब करणीय बातों का ध्यान रखते हुए नित्यप्रति अखंड भारत का स्वप्न अपनी आँखों में रखना। मैं अपने इसी जीवन में अखंड भारत को साकार होते हुए देखूंगा, यही प्रबल इच्छाशक्ति हमारे आगे के मार्ग को भी तय करेगी और हम अखंड भारत को साकार होते हुए देखेंगे। ऐसे में जब पूरा देश आज़ादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर 'आज़ादी अमृत महोत्सव' मना रहा है। तो हमारी भूमिका व कर्त्तव्य और अधिक बढ़ जाता है कि हम आज़ादी के इस भाव को अक्षुण्ण रखते हुए, अखंड भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए अपनी जिम्मेदारीयों को भी तय करें।
-डॉ. पवन सिंह
(लेखक मीडिया विभाग, जे.सी. बोस विश्वविद्यालय, फरीदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)