भारी पड़ती सुविधाओं के नाम पर बैंकों की वसूलियां

By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Aug 13, 2024

पिछले पांच सालों में एसबीआई को छोड़ शेष 11 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने केवल और केवल मिनिमम बैलेंस के नाम पर 8 हजार 500 रु. करोड़ रु. की कमाई की है। इसका साफ साफ अर्थ है कि गरीब आदमी के खातों से साढ़े आठ हजार करोड़ रुपए तो इन बैंकों में न्यूनतम बैलेंस ना रख पाने के कारण गवाने पड़े है। यह तो तब है जब देश के सबसे बड़े बैंक ने 2019-20 में न्यूनतम बैलेंस की पैनेल्टी के रुप में 640 करोड़ जुर्माना के रुप में वसूलने के बाद न्यूनतम बैंलेंस पर पेनेल्टी लगाने का आदेश वापिस ले लिया। 12 में से 11 बैंकों की साढ़े 8 हजार करोड़ की पांच साल में पेनेल्टी वसूली रही है तो कल्पना की जा सकती है कि निजी क्षेत्र के बैंकों ने इस तरह के जुर्माने से कितना खजाना भरा होगा। साढ़े 8 हजार करोड़ रु. की जुर्माना राशि का आंकड़ा किसी भी तरह से कपोल कल्पित या अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं हैं क्योंकि यह जानकारी अधिकृत रुप से संसद में केन्द्रीय वित राज्य मंत्री पंकज चौधरी द्वारा दी गई है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में बैंकों में मार्च, 23 में 294 करोड़ से अधिक खाते हैं। अब यह स्पष्टीकरण देने का कोई मतलब नहीं कि यह पैसा गरीब खातेदारों के अकाउंट्स से ही गया हैं क्योंकि पैसे वाले खाताधारकों के खातों में तो न्यूनतम बैलेंस रहता ही है।


देश में बैंकिंग नेटवर्क का इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि 12 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, 22 निजी क्षेत्र के बैंक, 44 विदेशी बैंक, 56 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, 1485 अरबन कोआपरेटिव बैंक और हजारों की संख्या में ग्रामीण सहकारी बैंकिंग संस्थाएं हैं। यह तो सभी संस्थागत बैंकिंग संस्थाएं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बैंकिंग सेवाओं का विस्तार हुआ है। 24 गुणा 7 सेवाएं मिलने लगी है। जन धन खातों की परिकल्पना से गरीब से गरीब आदमी का बैंकों से जुड़ाव हुआ है। और अब डिजिटल लेन-देन की सुविधा ने तो सब कुछ ही बदल कर रख दिया है। आज पांच रुपए का धनिया तक पेटीएम या इसी तरह के किसी प्लेटफार्म से आसानी से भुगतान कर खरीदा जा सकता है। दिन प्रतिदिन डिजिटल पेमेंट का चलन आम होता जा रहा है। चंद मिनटों में कहीं से भी किसी को भी मोबाइल या ऑनलाइन बैंकिंग सुविधा से चंद सैकंड में भुगतान पहुंचने लगा है। यह सब बैंकिंग सेवाओं में सुधार और विस्तार का उदाहरण है तो दूसरी और नकदी लेन-देन का स्थान डिजिटल पेमेंट ने ले लिया है।

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बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार निष्चित रुप से शुभ संकेत माना जाना चाहिए। यह भी साफ है कि लोगों में निश्चित रुप से अवेयरनेस आई है। यह दूसरी बात है कि साइबर ठगी के मामलें भी बहुत अधिक होने लगे हैं। पर सबसे अधिक चिंतनीय बैंकों द्वारा अपनी आय बढ़ाने के लिए सुविधाओं के नाम पर चार्जेज लगालगाकर अपनी आय बढ़ाना है। आम आदमी को किसी तरह की गलत फहमी में नहीं रहना चाहिए कि बैंक उन्हें यह सेवाएं फ्री में दे रहे हैं। आज हालात यह है कि एटीएम पोस मशीन से बड़ा बड़ा कारोबारी भुगतान लेने को तैयार नहीं होता। उसका साफ कहना होता है कि इसमें हमारे चार्जेज लग जाते हैं इसलिए डिजिटल प्लेटफार्म से ही भुगतान प्राप्त करना उचित समझते हैं। खैर चिंतनीय बात यह है कि बैंकों द्वारा सुविधाओं के नाम पर वसूली राशि बहुत अधिक होने के साथ ही आम खाताधारक के लिए भारी पड़ने लगी है। आज हो यह रहा है कि बैंक की छोटी से छोटी सेवा के लिए भी भुगतान करना पड़ता है। भुगतान के आसान तरीके आरटीजीएस और एनईएफटी की सेवाएं चार्जेवल है। हांलाकि दो लाख तक के आरटीजीएस पर कोई चार्ज नहीं लिया जाता पर राशि बढ़ने के साथ ही चार्ज बढ़ता जाता है। डुप्लीकेट पासबुक से लेकर चैक बाउंस होने पर रिटर्न चार्ज, सिग्नेचर वैरीफाई चार्ज, नोमिनी का नाम बदलवाने, इंट्रेस्ट सर्टिफिकेट लेने, ईकेवाईसी और इसी तरह की सेवाओं के लिए चार्ज लिए जाते हैं। एटीएम का उपयोग हांलाकि अब कम होता जा रहा है पर दूसरे बैंक के एटीएम के उपयोग और इसी तरह की अन्य सेवाओं के लिए चार्जेज आम होता जा रहा है। देखा जाए तो हमें पता ही नहीं चल पाता कि बैंकों द्वार कब कितना पैसा काट लिया जाता है। लेनदेन की सूचना के एसएमएस से लेकर अन्य सेवाएं करीब करीब सषुल्क होने के कारण हमें कुछ ना कुछ चुकाना ही पड़ता है। चिंतनीय यह है कि इस सबके बावजूद बैंकों में ग्राहकों के प्रति जो संवेदनशीलता और आपसी संबंध होने चाहिए वह कहीं खोते जा रहे हैं।


इसमें कोई दो राय नहीं कि बैंक सेवा प्रदाता संस्था हैं और सहज सुविधाएं उपलब्ध कराने और निरंतर सेवाओं में सुधार के लिए बैंकों द्वारा प्रयास किये जाते रहे हैं। पर इसके साथ ही बैंकों को न्यूनतम बैलेंस या अन्य तरह के अनावश्यक चार्जेंज लगाने से पहले आम खाताधारकों के हितों को भी देखना चाहिए। बैंक केवल और केवल पैसा कमाने का स्थान नहीं हैं अपितु बैंकों की भी आमजन के प्रति जिम्मेदारी बनती हैं। सभी कुछ केचल और केचल खाताधारक से ही देय है तो फिर बैंकों और पुराने जमाने के साहूकारों या आज के गली गली में फैले सूदखोरों या फिर बॉक्सरों से वसूली करने वाली संस्थाओं से अलग होना ही पड़ेगा। कहीं ना कहीं सरकार और बैंकिंग संस्थाओं को जनसरोकारों से भी जुड़ना होगा ताकि जिस तरह से पिछले कुछ सालों में बैंकों में आम आदमी की सहज पहुंच हुई हैं और आमआदमी का मोबाईल अब बैंक बन गया है यह सराहनीय है। आवश्यकता चार्जेज के पुनरावलोकन की है। इस और ध्यान देना ही होगा।


- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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