भैया, टमाटर छूना तो दूर देखने के भी पैसे लगने लगे हैं। इसलिए दबा दबा कर मत देखो, खराब हो जायेंगे। टमाटर वाले ने टमाटर की महंगाई के दौर इंसान की औकात बात कह दी है। गनीमत टमाटर का भाव तो है, यहाँ ऐसे-ऐसे इंसान भी हैं जिनका मूल्या दो कौड़ी की नहीं है। सामने वाले ने गुस्से में बोला "टमाटर है या सोना, जो इताना भाव खा रहा है! क्या कम से देखूँ भी न, ये भी बता दे। लगता है तेरे टमाटर से ज्यादा तू लाल हैं।"
"ऐसा नहीं है भैया, सब लोग दबा दबा कर रख देते हैं और खरीदते नहीं। ऐसे तो टमाटर नरम हो जाते हैं।"
"ऐसे कैसे नरम हो जाते हैं ! आदमी देख के बात किया कर, हम कान्ट्रैक्टर हैं, हमें पता किसे कैसे दबाना है। टमाटर से प्यार करने वाले देखे नहीं होंगे तूने !"
"भैया खरीद लो और मजे से कितना भी दबाओ, कितना भी प्यार करो कोई बोलेगा नहीं. …. कितना तौल दूँ ?"
"तौलने की बड़ी जल्दी पड़ी है !! .. भाव क्या है ?"
"ये दू सौ रुपये किलो, और ये वाला तीन सौ रुपये किलो।"
"आम का भाव बता भाई, सोने-चाँदी का नहीं, कौन सा टमाटर है ये तीन सौ वाला?"
"ये बगीचे के ताजा लाल टमाटर हैं भैया।"
"और ये तीन सौ वाला !?"
"ये बेंगलूरी टमाटर हैं।"
"कोई मिला नहीं तुझे बेवकूफ बनाने को!! हम कोई अंगूठाछाप हैं जिसको कुछ पता नहीं है ! ये टमाटर हों या वो। सब एक ही होता है, जैसे टी और चाय |"
"टी में जो बात है भैया वो चाय में कहाँ ! और कम भाव में हाय-हैलो' भी हैं, इधर नीचे पड़े हैं, अधसड़े। सौ रुपये किलो।"
"अरे !! क्या अधसड़े ले जायेंगे हम !!"
"गलत समझ गए भैया, ये आधे अच्छे हैं। यानि आधे अच्छे। सिर्फ कहलाते अधसड़े हैं। संसार में पूरा अच्छा कौन है ! बड़े बड़े लोग ले जाते हैं बंगले वाले, कार वाले, मेमसाब लोग आती हैं जिनके यहाँ किट्टी पार्टियाँ होती हैं। संत कह गए हैं कि 'साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।'
"बड़ा विद्वान है रे तू तो !! कहाँ तक पढ़ा है ?"
"'पढ़ाई का क्या है भैया। मोल करो तलवार की, पड़ा रहने दो म्यान।' हमारी पढ़ाई से क्या होता है साहब, ग्राहक पढ़ा-लिखा और समझदार होना चाहिए। सब टमाटर को दबा दबा कर पता नहीं क्या देखते हैं !"
"हद करता है तू!! वो टमाटर वाला भी तो है, उसके टमाटर भी अभी मैंने दबा दबा कर देखे. उसने तो कुछ नहीं कहा !"
"उसके टमाटर नकली हैं। नकली टमाटर अपनी बिरादरी से बहिष्कृत होते हैं। उसका तो एक टमाटर खाकर भी फेंक दोगे तो भी कुछ नहीं बोलेगा।"
"वो बहिष्कृत हैं तो तेरे टमाटर क्या हैं भाई?"
"ये बेंगलूरी देवता हैं,...। भैया हर कोई छू नहीं सकता इनको। ईमानदार टाईप लोग तो दूर से पालागी करते निकल जाते हैं।"
"और जो नीचे पड़े हैं वो क्या हैं !!?"
"हैं तो देवता ही, पर वो पढ़े लिखे दागी हैं, लेकिन बुराई कुछ नहीं है उनमें। आप ले जाइये … तौलूं ?"
"चल रहने दे, मेरे यहाँ जब कोई पार्टी होगी तब ले जाऊंगा। अभी तो मैं भी इन बेंगलूरी टमाटर को पालागी करता हूँ।" भैया अपने हाथों को सूंघते आगे बढ़ गए। अभी भी उनके हाथों में बेंगलूरी टमाटर की महक थी।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)