By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Jul 02, 2020
भारत सरकार ने जैसे ही टिक-टॉक सहित 59 चीनी एपों को बंद करने की घोषणा कि मानो मीडिया के हाथों बटेर लग गया। सभी न्यूज़ चैनलों, समाचार पत्रों में लाल घेरे के बीचों बीच आड़ी रेखा से ढके हुए टिक-टॉक का चित्र दिखाकर खुशियाँ मनाई जा रही थी। न्यूज चैनल इस मामले में कुछ आगे थे। वे टिक-टॉक का चित्र कभी जूम करते तो कभी एनिमेट करते तो कभी तालियाँ बजाते। न्यूज एंकरों को देखते ही बनता था। टी.वी. स्टूडियों में ऐसे उछल-उछलकर समाचार बता रहे थे जैसे उनकी होड़ लंगूर से हो। कभी-कभी तो संदेह होने लगता कि हम न्यूज़ चैनल नहीं डिस्कवरी चैनल देख रहे हैं। अरे! भाई एक एप ही तो बंद हुआ है कौन-सा चीन से युद्ध जीत लिया है।
आपको क्या लगता है कि टिक-टॉक बंद हो गया है? पहले यह बताइए कि टिक-टॉक में पहले ऐसा क्या हो रहा था जो अब नहीं हो रहा है? जो लोग इसे अच्छी तरह से समझते हैं उन्हें अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। आप सभी को पता है कि नवाबजादे फिल्म का एक गीत जिसे गुरु रंधावा ने गाया है, पर सबसे अधिक टिक-टॉक वीडियो बनते हैं। गाने के बोल- हाय नि हाय नखरा तेरा नी / हाई रेटेड गबरू नु मारे/हाय नि मुंडे पागल हो गए ने / तेरे गिण गिण लक्क दे हुलारे / हाय नि हाय नखरा तेरा नी... बैकग्राउंड में चलता है जिस पर घर बैठे जो चाहे वो नाच सकता है, झूम सकता है या फिर स्टंट दिखा सकता है। जो भी करना हो सब 15 सेकंड के भीतर करके दिखाना होता है। चाहे आप उटपटांग ही क्यों न करें लेकिन लोगों को पसंद आ जाएँ तो आपकी बल्ले-बल्ले है। यदि आपको गीत पसंद नहीं है तो 'दीवार' जैसी फ़िल्म के डायलॉग की नकल ही कर लीजिए। 'मेरे पास आज गाड़ी है, बंगला है, तुम्हारे पास क्या है?' यह सब इतना मज़ेदार लगने लगता है कि आपकी हँसी छूट जाती है।
हमारे देश में टिक-टॉकर कोई यूँ ही नहीं बनता। बरसों से खाली पड़ी नौकरियों की भरती निकले तो लोग टिक-टॉक से बाहर सोचेंगे। बेरोजगारी डायन न जाने कितनों को हर दिन कच्चा चबा जाती है। अच्छा जिन लोगों में अभिनय की क्षमता है उन्हें नेपोटिज्म कभी आगे आने का मौका नहीं देता। ऐसे में युवा करे तो क्या करे? देश की जितनी जनसंख्या नहीं उसके दुगने मोबाइल हैं। जब मोबाइल होगा तो डाटा भी होगा। जब डाटा होगा तो टिक-टॉक एप भी होगा। एक-दूसरे की देखा-देखी शुरु हो जाते हैं टिक-टॉकर बनने की राह पर। फिर क्या है जिन्हें खुद की गली के लोग नहीं जानते थे उन्हें दुनिया भर के लोग पहचानने लगते हैं। नाम का नाम और पैसा तमाम। हाँ जहाँ तक फूहड़ता, अश्लीलता का सवाल है वह टिक-टॉक क्या किसी भी मंच पर असह्य है।
अब तो टिक-टॉक नहीं रहा। ऊपर से तालाबंदी। अब जितने लोग खाली बैठे हैं, उन्हें टिक-टॉक से ज्यादा मजा आने वाला है। हमारे नेता दुनिया के सबसे बड़े टिक-टॉकर हैं। उन्हें सुनने, देखने, समझने से जितना मजा आता है उतना तो टिक-टॉक पर भी नहीं आता। कब दिन को रात और रात को दिन कहेंगे कोई बता नहीं सकता। जो सुबह बोलेंगे दोपहर में उसका विरोध करेंगे। दोपहर में जिसका विरोध करेंगे रात में उसका समर्थन करेंगे। और रात में जिसका समर्थन करेंगे उसके अगले दिन कहेंगे कि हमने तो कुछ बोला ही नहीं। बिना हड्डी की जुबान का कमाल टिक-टॉक से भी ज्यादा मजेदार होता है। फूहड़ता-शालीनता के नाम पर जिस टिक-टॉक का विरोध हुआ उससे ज्यादा फूहड़ता तो आए दिन सुनने-देखने को मिलती है। वास्तव में टिक-टॉप एप पर नहीं टिक-टॉक सोच पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है। जब भूखे को रोटी, बेसहारों को सहारा और बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा तब कोई क्यों टिक-टॉक पर जाएगा। टिक-टॉक पहले भी खराब था, आज भी है और कल भी रहेगा। आज भी लोग रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोजगार चाहते हैं, न कि टिक-टॉक। इसलिए परिस्थितियों को ठीक-ठाक करने की आवश्यकता है, टिक-टॉक अपने आप मिट जाएगा।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
(सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार)