बहादुर शाह जफर की इच्छा थी उन्हें हिन्दुस्तान में ही दफनाया जाए

By प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क | Oct 23, 2020

भारत के आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दिल में हर वक्त अपने वतन की माटी के लिए तड़प बनी रहती थी। अंग्रेजों ने उन्हें देश निकाला दिया तो वह दो गज जमीन की हसरत लिए दुनिया से कूच कर गए लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अपनी जान बख्श देने के लिए कोई समझौता नहीं किया। अंग्रेजों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा था हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की। उनकी यह चेतावनी सही साबित हुई और आजादी के मतवाले स्वतंत्रता मिलने तक लगातार अपने प्राणों की आहुति देते रहे तथा जालिम अंग्रेजों की जान भी लेते रहे। बर्मा की राजधानी रंगून (वर्तमान में म्यांमार और यांगून) में जब वह अपने जीवन के आखिरी दौर में थे तब वतन की याद में तड़पते हुए उनके लफ्जों से निकल पड़ा− कितना है बदनसीब जफर दफन के लिए दो गज जमीन भी न मिली कूए यार में। इन पंक्तियों में उनकी देशभक्ति ही नहीं बल्कि अपनी माटी के लिए उनके दिल में भरी मुहब्बत भी झलकती है। बहादुर शाह जफर का जन्म 24 अक्तूबर 1775 को दिल्ली में हुआ था।


बहादुर शाह जफर की इच्छा थी कि वह आखिरी सांस अपने देश में ही लें और उन्हें हिन्दुस्तान में ही दफनाया जाए लेकिन वक्त ने उन्हें दूसरे मुल्क में मरने को मजबूर कर दिया। इसीलिए उनके दिल की आवाज इन पंक्तियों में छलक पड़ी। वह अपने पिता अकबर शाह द्वितीय की मौत के बाद 28 सितंबर 1838 को दिल्ली के बादशाह बने। उनकी मां ललबाई हिन्दू परिवार से थीं। 1857 में जब आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा महाराजाओं ने जफर को हिन्दुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजा दी। भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में आजादी की इस पहली लड़ाई में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी लेकिन बाद में अंग्रेज अपने छल कपट से इस क्रांति को दबाने में कामयाब रहे। बहादुर शाह जफर ने हुमायूं के मकबरे में शरण ली लेकिन मेजर हडसन ने उन्हें उनके बेटे मिर्जा मुगल खिजर सुल्तान और पोते अबू बकर के साथ पकड़ लिया। अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जफर को जब भूख लगी तो अंग्रेज थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। इस पर भारत के इस आखिरी मुगल बादशाह ने अंग्रेजों को जवाब दिया कि देश के लिए सिर कुरबान कर हिन्दुस्तानी बेटे अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं। 1857 की क्रांति को पूरी तरह दबा देने के मकसद से अंग्रेजों ने जफर को निर्वासित कर रंगून भेज दिया।


इतिहासकार मालती मलिक और के. सुरेंद्र के अनुसार 1857 की आजादी की लड़ाई अपने आप में काफी महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसमें हिन्दू और मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर फिरंगियों के खिलाफ लड़ रहे थे। इन दोनों समुदायों के सेनानियों के मन में एक दूसरे के प्रति किसी भी तरह की कोई सांप्रदायिक भावना नहीं थी। बहादुर शाह जफर सिर्फ देशभक्त बादशाह ही नहीं बल्कि उर्दू के मशहूर कवि भी थे। उन्होंने बहुत सी कविताएं लिखीं जिनमें से अधिकतर 1857 के दौरान मची उथलपुथल के दौरान या तो खो गईं या फिर नष्ट हो गईं। रंगून की जेल में भी उनकी कविताओं का जलवा जारी रहा। उन्हें वहां हर वक्त हिन्दुस्तान की फिक्र सताती रही लेकिन आखिरी सांस अपने देश में लेने और देश में ही दफनाए जाने की उनकी आखिरी ख्वाहिश पूरी नहीं हो पाई। मुल्क से अंग्रेजों को भगाने का ख्वाब लिए सात नवम्बर 1862 को 87 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। उन्हें रंगून में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफनाया गया। इस दफन स्थल को अब जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है। उनके प्रति लोगों के दिल में सम्मान का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत में जहां कई सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम से एक सड़क है। बांग्लादेश के विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।

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