By विजयेन्दर शर्मा | Sep 04, 2021
शिमला। देश इन दिनों भारत आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इसे यादगार बनाने के लिये कई कार्यक्रम हो रहे हैं। इसी कडी में आपको प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क हिमाचल प्रदेश के ऐसे गांव में लेकर जा रहा है । जहां किसी प्रेमी जोडे को अदालत से नहीं देवता से संरक्षण मिलता है। देवता के अटल फैसले को काई भी चुनौती नहीं दे सकता।
अक्सर इशक प्यार मोहब्बत की बातें सुनने को मिलती हैं। प्रेमियों को अपना प्यार पाने के लिये कुर्बानियां देनी पड़ी हैं। कई बार उनका जमाना दुशमन बना व आनर किलिंग जेसे मामले भी सामने आते रहे हैं। प्रेमी जोड़ों को न तो समाज ने स्वीकार किया न ही परिवार ने । शांत प्रदेश हिमाचल प्रदेश में भी ऐसी घटनाओं से अछूता नहीं रहा है। परिजनों और रिश्तेदारों की मर्जी के खिलाफ शादी करने वाले प्रेमी जोड़ों की लाशें कहीं लटकती मिलीं तो कहीं दफना दी गईं। लेकिन हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा स्थान भी है, जहां प्रेमी जोड़ों को अदालत नहीं देवता संरक्षण देता है।
हम बात कर रहे हैं हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू की सैंज घाटी में शांघड़ के ग्राम देवता शंगचूल महादेव की। यहां प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों को पनाह दी जाती है। शांघड़ में कदम रखते ही प्रेमी जोड़ा देवता शंगचूल महादेव की शरण में आ जाता है और ग्रामीण उस जोड़े की रक्षा के लिए आगे आते हैं।
शांघड़ के बाशिन्दे ऐसे मामलों में देवता के आदेशों से बंधे हुए हैं। अब तक कई ऐसे जोड़ों ने प्रेम विवाह के बाद गांव में पनाह ली और मामला शांत होने तक गांव की ही शरण में रहे। आज ऐसे जोड़े सुखी परिवारों के मुखिया हैं या बेहतरीन जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भले ही उनका घर देवता के मंदिर से मीलों दूर ही क्यों न हो, लेकिन देवता से जुड़े किसी भी देव कारज में हाजिरी देने वे जरूर पहुंचते हैं।
इस गांव में प्रकृति का नायाब नमूना शांघड़ मैदान स्थित है। मैदान और गांव के बीच एक विशाल पत्थर है, जिस पत्थर को पार करते ही जो जोड़ा गांव की ओर बढ़ गया तो उसे संरक्षण मिलेगा। ऐसे जोड़ों को ग्रामीण शरण में लेकर अपने पास रखते हैं और उनके परिजनों को ग्रामीण समझाने-बुझाने के लिए भी कदम उठाते हैं।
धार्मिक स्थल शांघड़ को प्रकृति ने जितना संवारा है, उतनी ही अनूठी यहां की परंपरा है। जिला मुख्यालय कुल्लू से लगभग 60 किलोमीटर दूर बसा शांघड़ गांव सैंज घाटी के अंतिम छोर पर है। तकरीबन 1200 की आबादी वाली शांघड़ पंचायत में लोगों की आय का मुख्य स्रोत कृषि और बागवानी है। देवी-देवताओं को सर्वोपरि मानने वाले शांघड़वासी प्राचीन संस्कृति का संरक्षण बखूबी करते हैं। भले ही पर्यटन की दृष्टि से शांघड़ अछूता रहा हो, लेकिन यहां की सुंदरता किसी भी आगंतुक का मन मोह लेने की क्षमता रखती है।
बताया जाता है कि देवता की पूरी जमीन का आधा हिस्सा ऐसा है, जो जहां ब्राह्मण, पुजारी, मुजारों, बजंतरी व गुर सहित अन्य देव कारकूनों को दिया गया है। वहीं आधा हिस्सा गोचारे के रूप में खाली रखा गया है। 128 हैक्टेयर में फैले शांघड़ मैदान के चारों ओर घने देवदार के गगनचुंबी पेड़ प्रहरी के रूप में खड़े हैं। शांघड़ मैदान का इतिहास पांडवों के जीवनकाल से जुड़ा है। जनश्रुति के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने कुछ समय शांघड़ में भी बिताया। जिस दौरान उन्होंने यहां धान की खेती के लिए मिट्टी छानकर खेत तैयार किए। वे खेत आज भी विशाल शांघड़ मैदान के रूप में यथावत हैं। इस मैदान में एक भी कंकड़-पत्थर नहीं मिलता।
समाज सेवी राकेश चौहान का कहना है कि गांव के लोग देव आदेशों से बंधे हुए हैं। देवता के आदेश हैं कि गंधर्व विवाह कर यदि कोई जोड़ा आए तो उसे संरक्षण प्रदान करना है। सदियों से यह परंपरा चली आ रही है। शांघड़ पंचायत विश्व धरोहर ग्रेट हिमालयन नैशनल पार्क क्षेत्र में होने के कारण भी विशेष ख्याति अर्जित नहीं कर पाई।
दरअसल इस मैदान में अनेक देवस्थल मौजूद हैं। जहां शुद्धि के लिए शैंशर के मनुऋषि तथा कनौण के ब्रह्मा तथा लक्ष्मी माता, लपाह की माता ऊषा सहित अनेक देवी-देवता आते हैं। मैदान के साथ लगते पटाहरा गांव में किसी भी प्रकार के लड़ाई-झगड़े, ऊंचे आसन पर बैठने तथा शोर-शराबे पर पूर्ण प्रतिबंध है।
देववाणी के अनुसार रियासतकाल में सराज का यह क्षेत्र बुशैहरी राजा के अधीन था। राजा के शांघड़ मैदान में बैठने पर देवता ने राजा को अपनी शक्ति से प्रभावित कर दिया। देवशक्ति की अनुभूति होने पर राजा ने देवता के प्रमुख कारकून के कहने पर अपनी जगह से दिखने वाली सारी जमीन देवता के नाम कर दी, जो आज भी देवता के नाम पर ही है। देवता ने राजा के मान-सम्मान में वहां पर रखी राजगद्दी के नीचे का स्थान राजा के लिए रखा, जो आज भी मौजूद है। इस स्थान को रियासती स्थल कहते हैं और स्थानीय लोग इसे रायती थल कहते हैं।