हिन्दी माह में हिंदी पखवाड़ा न हो, हिन्दी डे न हो और प्रतियोगिताएं न हो तो हिन्दी का विकास रुका हुआ सा लगता है। इस सन्दर्भ में कुछ लोग बहुत कर्मठता, समर्पण व ईमानदारी से कार्य करते हैं। उनके कारनामे हमेशा उनकी याद दिलाते रहते हैं। हिन्दी के चहुंमुखी विकास के लिए, हिन्दी मास सितंबर में जिन विभागों के नए भवनों का उदघाटन होना होता है या जिनके नामपट्ट टूट चुके होते हैं, उनमें से एक दो के नामपट्ट हिन्दी को खुश करने के लिए, हिन्दी में लिखवाने ही पड़ते हैं। ज़िला भाषा अधिकारी महाराज को यह महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा गया कि शहर में नवनिर्मित, ‘वर्किंग वूमेन होस्टल’ के सभी नामपट्ट हिन्दी में लिखवाना सुनिश्चित करें।
सरकारी भाषा अधिराज जिनके कार्यालय सम्बन्धी उत्तरदायित्त्वों में हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार भी शामिल है, का उपनाम ‘आज़ाद’ था। वे हिन्दी व उर्दू की मां कही जाने वाली संस्कृत के भी अनुभवी ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाते हुए नामपट्ट का मसौदा बनाकर, लिखने को दे दिया। कई बार ऐसा हो जाता है कि ज़िम्मेदारी निभाने के दौरान, फेसबुक पढ़ते हुए या यू टयूब से प्रेरित होकर कुछ फारवर्ड करते हुए ध्यान भटक जाता है और पेंटर ब्रश के साथ मिलकर कुछ का कुछ लिख देते हैं। लेकिन पेंटर समझदार, पढ़ा लिखा रहा व फेकबुक पढ़ते हुए काम नहीं करता था, उन्होनें अधिकारीजी को सुझाव दिया कि ‘वर्किंग वूमेन होस्टल’ को हिन्दी में ‘कार्यकारी महिला छात्रावास’ न लिखकर यदि ‘कामकाजी महिला छात्रावास’ लिखा जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा क्यूंकि कार्यकारी का अर्थ, आम लोगों द्वारा ‘एग्ज़ीक्यूटिव’ लिया जाएगा।
यह सुनकर ज़िला बुद्धिजीवी के दिमाग़ का समझदार हिस्सा तुरंत सावधान हो गया, उन्होंने तपाक से कहा, कामकाज तो उर्दू भाषा का शब्द है। पेंटर ने कहा हमारा देश हिन्दुस्तानी ही तो बोलता, लिखता है और फिर कई शहरों में जहां जहां ऐसे होस्टल हैं, वर्किंग को कामकाजी लिखा गया है जोकि प्रचलित शब्द है। हिन्दी के प्रचार प्रसार में कर्मठता व संजीदगी से कार्य कर रहे समझदारजी ने सख्ती से कहा कामकाजी शुद्ध हिन्दी का शब्द नहीं है आप इसकी जगह कार्यरत, कर्मरत या प्रशासनिक कुछ भी लिख दें। पेंटर की सामान्य समझ गलत शब्द के प्रयोग को रोक रही थी। उसने फिर निवेदन किया कि हिन्दी भाषा में उर्दू, संस्कृत, अंग्रेज़ी, अरबी, फारसी, पश्तो, तुर्की, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, यूनानी व इटेलियन जैसी अनेक भाषाओं के शब्द खप चुके हैं तभी यह भाषा समृद्ध हुई है। एक दूसरी भाषा के शब्दों को पचा जाने की सामर्थ्य ही किसी भाषा को समृद्ध बनाकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाते हैं। हमें हिन्दी की पाचन शक्ति बनाए रखनी चाहिए। निश्चित ही यह बातें हिंदी के असली सेवक को पहले से पता थी।
भाषा के अधिकृत प्राधिकारी, जो पेंटर को अब ज़्यादा तुच्छ नज़रों से देख रहे थे, को लगा कि यह आम आदमी उनके उच्च स्तरीय ज्ञान व सरकार को चैलेंज कर रहा है। हिन्दी में बात करना आसान है पर शान नहीं है, तो बात अंग्रेज़ी में ही उभरी, ‘डू नॉट टीच मी, हिंदी विशेषज्ञ मैं हूं या तुम’। ‘आप हैं सर’, पेंटर ने सोचा भैंस के आगे बीन बजाने से आज भी क्या होगा। उसने बड़े अदब से सरकारी कुर्सी से माफी मांग कर, हुक्म बजा कर अपनी रोज़ी सलामत रखने में ही भलाई समझी। जनाब ने जैसा चाहा, वैसा लिखे नामपट्ट का चित्र अगले दिन अखबारों में शान से छपा और अतिप्रशंसा मिली। फिर एक दिन, भाषा के राजा को जब यह पता लगा कि उनका पसंदीदा उपनाम, ‘आज़ाद’, उर्दू भाषा का शब्द है तो उन्होंने इसे भी अपने से तुरंत अलग किया। उन्होंने पूरी ईमानदारी से हिन्दी की सेवा जो करनी थी। भाषा के ऐसे असली सेवक, सैंकड़ों वर्ष पहले पैदा हुए होते तो मज़ाल इस भाषा का कोई शब्द, उस भाषा के शब्द को छूने की भी हिम्मत करता।
हिन्दी मंथ चल रहा है, हिन्दी के ऐसे अधिकृत सेवक आज भी तैयार हैं।
- संतोष उत्सुक