ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ
अथ श्री महाभारत कथा अथ श्री महाभारत कथा
कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की
सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की
शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी
है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी
ये विश्व भारती है वीरो की आरती है
है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी
महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।
पिछले अंक में हम सबने भीम और हिडिंबा का मिलन और द्रौपदी का स्वयंवर आदि की कथाएँ पढ़ी। द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण की सलाह को सिरोधार्य किया और प्रसन्नता पूर्वक पांचों पांडवों को अपने पति परमेश्वर के रूप में स्वीकार करते हुए पत्नी धर्म का निर्वाह करने लगी ।
आइए ! आगे की कथा अगले प्रसंग में चलें-----
युधिष्ठिर और इंद्रप्रस्थ राज्य की स्थापना
हस्तिनापुर के राज्य को जब यह समाचार मिला कि पांडव जिंदा हैं। तब वहां कौरव भाइयों को छोड़कर बाकी सब खुशी के मारे झूम उठे। भीष्म द्वारा पांडवों और द्रौपदी के स्वागत के लिए राजमहल में भव्य इंतजाम किए गए।
परंतु पांडवों की अनुपस्थिति में महाराज धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर चुके थे। जब युधिष्ठिर और पांचों पांडव भाइयों ने महाराज धृतराष्ट्र से अपना अधिकार माँगा, तब महाराज धृतराष्ट्र ने दुर्भावना से उन्हें खांडवप्रस्थ दे दिया।
खांडवप्रस्थ नागराज तक्षक की भूमि थी और वहां नागों का बसेरा हुआ करता था। जिन्हें देवराज इंद्र का रक्षण भी प्राप्त था। ऐसे में नागों को खांडवप्रस्थ से हटाने के लिए अर्जुन को देवराज इंद्र से युद्ध करना पड़ा। जिसमें अर्जुन को विजय प्राप्त हुई और इंद्र देवता से वरदान स्वरूप पांडवों को खांडवप्रस्थ एक सुंदर नगरी के रूप में मिल गया। साथ ही अपने पुत्र अर्जुन की कर्मनिष्ठा और शौर्य से प्रभावित होकर देवराज इंद्र ने उन्हें गांडीव और उत्तम रथ भी दे दिया।
इसके बाद विश्वकर्मा व मय दानव की वास्तु और शिल्पकला के आधार पर खांडवप्रस्थ को सुंदर और भव्य इंद्रपुरी नगरी में परिवर्तित कर दिया गया। जहां पांडवों के लिए एक मायावी और सुंदर महल की भी स्थापना की गई थी। जिसका वास्तविक और काल्पनिक रूप दोनों ही भिन्न थे।
इसी कारण जब एक बार दुर्योधन यहां आया, तब वह जिसे वास्तविक भूमि समझ रहा था, वहां असल में जल मौजूद था जिसके कारण वह गिर गया और तब द्रौपदी ने अंधे का पुत्र अंधा कहकर उसका उपहास उड़ाया। अपने इसी उपहास के कारण दुर्योधन द्रौपदी पर काफी क्रोधित हुआ और मन ही मन उससे चिढ़ने लगा।
फिर जब पांडवों द्वारा इंद्रप्रस्थ के स्थापना पर्व के दौरान समस्त राजाओं को निमंत्रित किया गया, तब उस समारोह में पांडवों का भाई शिशुपाल भी आया था। शिशुपाल ने भगवान श्री कृष्ण का मजाक उड़ाया था। इसी अपमान के कारण भगवान श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका धड़ सिर से अलग कर दिया था।
इसके अलावा, भीम ने भगवान श्री कृष्ण की मथुरा नगरी के सबसे बड़े दुश्मन जरासंध को मारने के लिए द्वंद युद्ध भी किया था। क्योंकि जरासंध को पुर्नजीवित होने का वरदान प्राप्त था। जिस कारण उसकी मृत्यु ऐसे बलशाली व्यक्ति के हाथों होनी थी। जोकि द्वंद युद्ध में उसके शरीर को दो हिस्सों में बांट सके। यह काम केवल भीम ही कर सकते थे। ऐसे करके भीम ने जरासंध को मृत्यु के घाट उतार दिया।
उधर, एक बार इंद्रप्रस्थ राज्य की सीमा पर अचानक किसी राक्षस ने हमला कर दिया था। अब राज्य की सुरक्षा के खातिर अर्जुन को वहां जाना पड़ा। इस दौरान अर्जुन का गांडीव युधिष्ठिर के कमरे में ही छूट गया था। अब क्या करें, अर्जुन विवश होकर उनके कक्ष में प्रवेश करते हैं, तो वहां द्रौपदी भी मौजूद होती हैं। ऐसे में अर्जुन द्रौपदी और युधिष्ठिर के एकांत को भंग करने के अपराध के कारण स्वयं को वनवास देकर दंडित करते हैं।
अर्जुन अपने वनवास के दौरान ब्राह्मण का वेश धारण करके जंगलों में भ्रमण करते हैं। तभी भगवान श्री कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ कर देते हैं। क्योंकि एक तो वह अर्जुन को अपना प्रिय मानते थे और दूसरा अर्जुन एक महान योद्धा था। तत्पश्चात्, अर्जुन सुभद्रा को लेकर इंद्रप्रस्थ लौट आते हैं। जहां अर्जुन और सुभद्रा का बेटा अभिमन्यु जन्म लेता है।
युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ की घोषणा :-
खांडवप्रस्थ को अपनी कर्मभूमि बनाने के पश्चात् पांडवों ने राजसूय यज्ञ करने की घोषणा कर दी। इस घोषणा से युधिष्ठिर और पांचों पांडवों के यश और वीरता की चर्चा चारों ओर होने लगी। यह खबर हस्तिनापुर में भी पहुंच गई कि युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ का आयोजन किया जा रहा है।
आपको बता दें कि राजसूय यज्ञ वैदिक काल में राजा स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करने के उद्देश्य से किया करते थे। जिसमें अपने परिवार का सहयोग पाने के उद्देश्य से युधिष्ठिर अपने पांडव भाइयों, द्रौपदी और माता कुंती समेत हस्तिनापुर जाते हैं। जहां मामा शकुनि, दुर्योधन और दुशासन एक बार फिर पांडवों को अपनी कुटिल योजना का शिकार बनाते हैं।
जब युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ महाराज धृतराष्ट्र को राजसूय यज्ञ की जानकारी देने महल में जाते हैं। तो दुर्योधन द्वारा उन्हें द्यूत क्रीड़ा (जुआ) के लिए उकसाया जाता है। ऐसे में युधिष्ठिर दुर्योधन के मंसूबों से अनजान द्वयुत क्रीड़ा में भाग लेने के लिए अपनी सहमति दे देते हैं। हालांकि पांडव भाई मिलकर युधिष्ठिर को ऐसा करने से मना करते हैं, लेकिन इसके बावजूद युधिष्ठिर द्यूत क्रीडा के लिए हामी भर देते हैं।
आगे की कथा अगले प्रसंग में
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी