अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रेरणादायक कविताएं... मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ

By रेनू तिवारी | Aug 16, 2019

 पूर्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी की आज पहली पुण्यतिथि है। इस मौके पर देश के कई बड़े नेता उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। नई दिल्ली में अटली जी के स्मृति स्थल 'सदैव अटल' पहुंचकर पीएम मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। इसके अलावा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी अटल जी को श्रद्धांजलि दी। बता दें, बीते साल 16 अगस्त 2018 को लंबी बीमारी के बाद भारत के पूर्व पीएम अटल बिहारी वापजेयी का निधन हो गया था।

अटल जी एक महान कवि भी थे जिन्होंने अपने शब्दों में गई गहराईयों पर बात की। आइये पढ़ते हैं अटल बिहारी वाजपेयी जी की प्रेरणादायक कविताएं

क़दम मिला कर चलना होगा 

बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

 

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,

अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

 

उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,

घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,

जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

 

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,

प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,

असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,

पावस बनकर ढ़लना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

 

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,

नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,

जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा।

क़दम मिलाकर चलना होगा।

हरी हरी दूब पर

हरी हरी दूब पर 

ओस की बूंदे 

अभी थी, 

अभी नहीं हैं| 

ऐसी खुशियाँ 

जो हमेशा हमारा साथ दें 

कभी नहीं थी, 

कहीं नहीं हैं| 

 

क्काँयर की कोख से 

फूटा बाल सूर्य, 

जब पूरब की गोद में 

पाँव फैलाने लगा, 

तो मेरी बगीची का 

पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा, 

मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ 

या उसके ताप से भाप बनी, 

ओस की बुँदों को ढूंढूँ? 

 

सूर्य एक सत्य है 

जिसे झुठलाया नहीं जा सकता 

मगर ओस भी तो एक सच्चाई है 

यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है 

क्यों न मैं क्षण क्षण को जिऊँ? 

कण-कण मेँ बिखरे सौन्दर्य को पिऊँ? 

 

सूर्य तो फिर भी उगेगा, 

धूप तो फिर भी खिलेगी, 

लेकिन मेरी बगीची की 

हरी-हरी दूब पर, 

ओस की बूंद 

हर मौसम में नहीं मिलेगी|

 

मौत से ठन गई 

ठन गई! 

मौत से ठन गई! 

जूझने का मेरा इरादा न था, 

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई। 

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ, 

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ? 

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ, 

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा। 

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र, 

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 

प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये, 

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है। 

पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई। 

मौत से ठन गई।

 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

सवेरा है मगर पूरब दिशा में 

घिर रहे बादल 

रूई से धुंधलके में 

मील के पत्थर पड़े घायल 

ठिठके पाँव 

ओझल गाँव 

जड़ता है न गतिमयता 

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से 

मैं देख पाता हूं 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

समय की सदर साँसों ने 

चिनारों को झुलस डाला, 

मगर हिमपात को देती 

चुनौती एक दुर्ममाला, 

बिखरे नीड़, 

विहँसे चीड़, 

आँसू हैं न मुस्कानें, 

हिमानी झील के तट पर 

अकेला गुनगुनाता हूँ। 

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

 


अपने ही मन से कुछ बोलें

क्या खोया, क्या पाया जग में

मिलते और बिछुड़ते मग में

मुझे किसी से नहीं शिकायत

यद्यपि छला गया पग-पग में

एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी

जीवन एक अनन्त कहानी

पर तन की अपनी सीमाएँ

यद्यपि सौ शरदों की वाणी

इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!

जन्म-मरण अविरत फेरा

जीवन बंजारों का डेरा

आज यहाँ, कल कहाँ कूच है

कौन जानता किधर सवेरा

अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!

अपने ही मन से कुछ बोलें!

 


राह कौन सी जाऊँ मैं? 

चौराहे पर लुटता चीर

प्यादे से पिट गया वजीर

चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?

राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया

मधु ऋतु में ही बाग झर गया

तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में

घाटों के व्यापार में

क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं ?

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