यूपी के बाद दिल्ली नगर निगम चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत ने मोदी लहर को आगे बढ़ाने का काम किया है। वैसे दिल्ली नगर निगम के चुनाव को राष्ट्रीय राजनीति से जोड़ना तो सही नहीं होगा किन्तु राष्ट्रीय राजधानी होने से इस महानगर की छोटी खबर भी देश भर में चर्चा का विषय बन जाया करती है। भाजपा जहां इन नतीजों के बरअक्स गुजरात और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव का शुभ संकेत मान रही है तो वहीं आप में हड़कंप मचा है। असल में आप की हार उसकी कार्यशैली, व्यवहार और आचरण की हार है। दिल्ली की जनता से वादाखिलाफी और काम की बजाय ऊटपटांग हरकतों से आजिज आये दिल्लीवालों ने भाजपा को स्थानीय सत्ता सौंपने में अहम भूमिका निभाई।
इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में मोदी लहर है। हर कोई पीएम के साथ खड़ा दिखना चाहता है। वोटर ने नहीं देखा कि उम्मीदवार कौन था और बीजेपी ने 10 सालों में कैसा काम किया। उसने बीजेपी को मोदी के नाम पर वोट दिया। मतदाताओं के पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। दिल्ली की जनता आम आदमी पार्टी के कामकाज से काफी खफा थी। इसके संकेत कुछ दिन पहले हुए राजौरी गार्डन उपचुनाव में ही मिल गए थे। केजरीवाल ने खुद इसे माना था। आप से नाराजगी की वजह से उसका कुछ वोट कांग्रेस और कुछ बीजेपी में चला गया।
बीते तीन साल में दिल्ली की सियासत ने जबर्दस्त करवटें बदलीं। पहले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की आंधी ने कांग्रेस का पत्ता साफ कर दिया किन्तु एक साल के भीतर ही विधानसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस के साथ ही भाजपा को भी जनता ने जमीन सुंघा दी। 70 सदस्यों वाले सदन में कांग्रेस को शून्य और सातों लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा को महज तीन सीटों पर समेट कर दिल्ली वालों ने अरविन्द केजरीवाल नामक एक धूमकेतु को जन्म दे दिया। उसके बाद देश की राजनीति तमाम हिचकोले खाते हुए अभी हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के चुनाव रूपी पड़ाव पर आकर ठहरी जिसने ठंडी पड़ती मोदी लहर को सुनामी का रूप दे दिया। उसके बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव निश्चित रूप से एक पहेली बन गए थे।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने जिस तरह मोदी के विजय रथ को रोकने का ऐतिहासिक काम किया था, उससे यह आभास होने लगा था कि केजरीवाल मोदी को सीधी टक्कर दे सकते हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का अब तक का कार्यकाल केंद्र सरकार से तनाव भरा रहा। केजरीवाल ने जनता से किये वादों पर ध्यान देने की बजाय केंद्र सरकार से लोहा लेने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। वहीं राजनीतिक महत्वकांक्षा इतनी बढ़ी की लोकसभा चुनाव में मोदी को टक्कर देने वाराणसी चुनाव लड़ने पहुंच गये। वहीं गोवा और पंजाब को लेकर भी आम आदमी पार्टी ने गलतफहमी पाली और दोनों राज्यों में उसे मुंह की खानी पड़ी।
आम आदमी पार्टी का जबर्दस्त उभार, लोक−लुभावन वायदे, योजनाबद्ध रणनीति तथा केजरीवाल जैसा जुझारू नेता होने के कारण ये माना जाता रहा कि विगत 10 साल से दिल्ली नगर निगम पर काबिज भाजपा इस बार बेदखल हो जाएगी। बीते तीन साल में दिल्ली का नगरीय प्रशासन इतना लचर था कि इसे राष्ट्रीय राजधानी कहने में शर्म आने लगी। ऊपर से मुख्यमंत्री बनते ही केजरीवाल ने नगर निगम पर कब्जा करने की योजना पर काम करते हुए आम जनता को प्रभावित करने का भरसक प्रयास किया था। भाजपा इस बात को समझती थी इसीलिए उसने सभी पार्षदों की टिकिट काटकर नया प्रयोग किया। इसे लेकर उस पर उंगलियां भी उठीं कि उसने अपने जनप्रतिनिधियों के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार पर मुहर लगा दी।
उधर कांग्रेस को दिल्ली में अपना अस्तित्व बचाना था। राजौरी गार्डन विधानसभा उपचुनाव में दूसरे स्थान पर आकर वह वेंटीलेटर से तो बाहर आ गई परन्तु पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली सहित कुछ बड़े नेताओं के पार्टी छोड़ देने से उसका दम फूल गया। चुनाव पूर्व सर्वे और एग्जिट पोल ने दिल्ली में भाजपा की प्रचंड विजय की जो भविष्यवाणी की थी वह परिणामों से सही साबित हो गई। भाजपा 181 सीटों पर विजय हासिल कर पहले नंबर पर रही वहीं आम आदमी दूसरे स्थान पर रही और कांग्रेस को तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा। इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत ये रही कि सारे सर्वेक्षणों में जनता ने दिल्ली नगर निगम में भाजपा के कामकाज पर खुलकर असंतोष जताने के बाद भी उसे पहले से ज्यादा सीटें देकर एक विरोधाभास को जन्म दे दिया।
भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ा वहीं आम आदमी पार्टी इसे केजरीवाल सरकार के दो वर्षीय कामकाज पर जनमत संग्रह बताकर मोदी लहर को रोकने का पराक्रम दोहराना चाह रही थी किन्तु तमाम उम्मीदों के मुताबिक आ रहे परिणामों ने एक बार फिर ये प्रमाणित कर दिया कि आन्दोलन से निकली राजनीतिक पार्टी को मिली सफलता स्थायी नहीं होती तथा वह अपने ही अंतर्विरोधों के कारण टूट जाती है। दिल्ली नगर निगम के चुनाव उस दृष्टि से भाजपा के लिए उत्साहवर्धक भले हों किन्तु सही मायनों में ये केजरीवाल के खिलाफ जनादेश है जिन्होंने विधानसभा चुनाव में मिले ऐतिहासिक जनादेश को अपनी अधकचरी और अहंकारी सोच के चलते मिट्टी में मिला दिया।
पिछले दिनों संपन्न हुये राजौरी गार्डन उपचुनाव ने इस चुनाव परिणाम का पूर्वाभास करा दिया था जिसे आम आदमी पार्टी ने बजाय विनम्रता से स्वीकार कर अपनी गलतियां सुधारने के ईवीएम में गड़बड़ी और हारने पर ईंट से ईंट से बजा देने जैसे बयानों से और पुख्ता कर दिया। कांग्रेस ने दिल्ली में अपने वजूद को फिर से कायम यदि कर लिया तो वह आम आदमी पार्टी की भूलों का ही नतीजा रहा। हालांकि वह पांच साल पुरानी संख्या से काफी नीचे आ गई किन्तु भाजपा का विकल्प बनने की केजरीवाल की महत्वाकांक्षा में बाधा बन गई है।
दिल्ली की सत्ता ठीक ढंग से चलाने की बजाय पूरे देश का सुल्तान बनने की आपाधापी में केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की संभावनाओं पर ही जो झाड़ू फेरी उससे उन बुद्धिजीवियों के गाल पर करारा तमाचा पड़ा है जो भाजपा और मोदी के अंधे विरोध के चलते केजरीवाल को महामानव बनाने पर तुले थे। पंजाब और गोवा में मात खाने के बाद यूं तो गुजरात को लेकर आम आदमी पार्टी का हौसला ठंडा पड़ ही गया था किन्तु दिल्ली के नतीजों ने अब ये दिखा दिया कि केजरीवाल में न गंभीरता है न ही गहराई। जहां तक कांग्रेस की बात है तो दिल्ली का चुनाव उसने भले ही कितनी भी ताकत से लड़ा हो किन्तु उ.प्र. और उत्तराखंड की हार ने उसका मनोबल पहले ही तोड़ दिया था इसलिए वह अपनी इज्जत बचाने के लिए लड़ रही थी जिसमें भी उसे आंशिक सफलता ही मिल सकी।
दिल्ली नगर निगम चुनाव को राष्ट्रीय राजनीति की दिशा मोड़ने वाला कहना तो ठीक नहीं होगा किन्तु इसने वैकल्पिक राजनीति के उभार को पूरी तरह उतार पर ला दिया है। उस लिहाज से ये परिणाम बजाय नगर निगम में भाजपा के खराब प्रदर्शन के दिल्ली की केजरीवाल सरकार के कामकाज के विरुद्ध जनमत संग्रह बन गया। कांग्रेस के लिए भी ये परिणाम शोचनीय है जिसे राजधानी के मतदाताओं ने मुख्य विपक्षी दल के लायक भी नहीं समझा। अगर इस चुनाव के जनादेश का ईमानदार विश्लेषण किया जाये तो कहा जा सकता है कि यदि सत्ता में बैठे चेहरे बदल दिए जाएं तो मतदाता सत्ता विरोधी रुझान को भी नजरंदाज कर देता है। भाजपा द्वारा अपने सभी पार्षदों की टिकिट काटकर नये उम्मीदवार उतारने का जो दांव खेला गया वह चमत्कारिक रूप से कारगर रहा। देखना ये है कि क्या अमित शाह विधानसभा व लोकसभा के आगामी चुनावों में भी इसे दोहराते हैं या नहीं?
दिल्ली नगर निगम चुनाव के नतीजों के बाद अरविंद केजरीवाल को यकीन हो गया होगा कि मोदी की आंधी में दिल्ली भी आ गई है। अब वह ईवीएम से छेड़छाड़ का लाख बहाना बनाएं, पर इतना तय है कि उनकी कुंडली में इसके बाद राजयोग नहीं है। दिल्ली क्या मिली, पंजाब का मोह पाल लिया और अब तो लगता है कि दिल्ली भी हाथ से निकल जाएगी। असल में लोकतंत्र में जनता ही मालिक होती है और जो जनता राजा बनाती है वही धूल भी चटा देती है। दिल्लीवासियों ने वादाखिलाफी का सबक आप को सिखाया। भाजपा और अन्य दलों को भी सचेत होने की जरूरत है क्योंकि उन्हें भी जनता की कसौटी पर खरा उतरना होगा।
- आशीष वशिष्ठ